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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 28 सितंबर 2011

प्रथम नवरात्र पर माँ का आह्वान ----- ड़ा श्याम गुप्त

                                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


   
     माँ का आह्वान
परमशक्ति मां से बढकर तो तीन लोक में कुछ भी नहीं,
अतुलनीय मां महिमा तेरी, वर्णन की मेरी शक्ति नहीं

परम-ब्रह्म के साथ युक्त हो, श्रिष्टि रचना करती हो ,
रक्षक-पालक तुम हो जग की,जग को धारण करती हो।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश मां तेरी इच्छा से तन धारण करते ,
महा-शक्ति तेरी स्तुति की, जग में क्षमता-शक्ति नहीं।
                                     ----परम शक्ति मां……..||
तुच्छबुद्धि तुझ पराशक्ति के ओर-छोर को क्या जाने,
ममतामयी रूप तेरा ही, माता वह तो पहचाने ।

तेरे नव-रूपों के भावों परअगाध श्रद्धा से भर,
करें अनुसरण और कीर्तन, इससे बढकर भक्ति नहीं ।
                                     -----परम शक्ति मां……||
मां आगमन करो इस घर में, हम पूजन,गुण-गान करें,
धूप, दीप, नैवैध्य समर्पण, कर तेरा आह्वान करें ।

इन नवरात्रों में मां आकर, हम सबका कल्याण करो,
धरें शीश तेरे चरणों पर, इससे बढकर मुक्ति नहीं ॥

                                    ----परम शक्ति मां…… ||
          

सोमवार, 26 सितंबर 2011

वेद व गीता पर दुरभिसंधि ..पर प्रत्युत्तर....ड़ा श्याम गुप्त...

                                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                         धर्म की बात ...ब्लॉग पर हिदू धर्म व गीता के विरुद्ध कुछ प्रश्न व शंकाएं खड़ी की गयी हैं जो निम्न हैं... इन सर्वथा असत्याचरण पूर्ण, अज्ञानतापूर्ण शरारत पूर्ण  बातों का  हम साथ ही साथ प्रत्येक का बिन्दुवार निराकरण करेंगे....
 धर्म की बात-
Monday, May 16, 2011 --''वेदों की निंदक गीता''

          पुस्‍तक ''क्‍या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्‍दू धर्म?'' डा. सुरेन्‍द्र कुमार शर्मा 'अज्ञात' विषय ''वेदों की निंदक गीता'' में लिखते हैं कि वेद और गीता के अतिरिक्ति सभी धर्म ग्रंथ मानव रचित माने जाते हैं ...वेदों और गीता का विषयगत विश्‍लेषण इस निर्णय पर ले जाता है कि ये दोनों धर्म ग्रंथ एक ही 'धर्म' के नहीं हो सकते और न ही इन का र‍चयिता एक ही तथाकथित परमात्‍मा हो सकता है-----
-वेदों में जगह जगह इच्‍छा और कामना पर बल दिया गया है-
      कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्‍छतं समाः
     एवं त्‍वयि नान्‍य‍थेतोऽस्ति न कर्म लिप्‍यते नरे- यजु 40/2
       ---अर्थातः हे मनुष्‍यों, कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करो

जबकि गीता कहती है-----मा कर्मफलहेतुर्भूः - गीता 2/47.....अयुक्‍त- काकारेण फले सक्‍तो निबध्‍यते - गीता 5/12
अर्थात फल की इच्‍छा रखने वाले व्‍यक्ति फल में आसक्‍त होते हैा और बंधन में पड़ते हैं..

---निराकरण ---कोई  बच्चा भी उपरोक्त को पढकर जान सकता है कि वेदों में इच्छाओं व कामनाओं पर नहीं अपितु उचित सत्कर्म करने पर बल दिया गया है ...न कर्म लिप्यते नर..अर्थात कर्मों  में लिप्त नहीं होना है ....वही भाव गीता में है .......कर्म तो करना है पर फल की इच्छा से नहीं ....

-वेदों की ऐसी खाल तो नास्तिकों ने भी नहीं उतारी होगी जैसी गीता ने उतारी है, गीता -में वेदों के नाम पर गलत बयानी की गई है, वेदों में कहीं भी ईश्‍वर को 'पुरूषोत्‍तम' नहीं कहा गया, लेकिन गीता के 15 वें अध्‍याय में गीता का वक्‍ता स्‍वयंभू ईश्‍वर कहता हैः
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित- पुरूषोत्तमः - 15/18
अर्थात में लोक और वेद में 'पुरूषोत्तम' के नाम से प्रसिद्ध हूं


----निराकरण -- वेदों में प्रसिद्द ..श्लोक ... अणो अणीयान, महतो महीयान ...कहा गया है ईश्वर को .......श्वेताश्वेतरोपनिषद में ....समाहुग्रयं पुरुष महान्तं ....कहा गया है  इन का अर्थ 'पुरुषोत्तम ही है.....
 
-वेदों में  अवतारवाद का सिद्धांत है, वेदों में परमात्‍मा के अवतार धारण करने का कहीं उल्‍लेख नहीं मिलता, पर गीता का यह एक प्रमुख सिद्धांत है......
यदा यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लानिर्भवति भारत
अभ्‍युतथानमधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम
परित्राणाय साध्‍ूनां विनाशाय च दुष्‍क़ताम्
धर्म संस्‍थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे - गीता 4/7-8-अर्थात जब जब धर्म की ग्‍लानि होती और अधर्म की उन्‍नति होती है, तब तब मैं अर्थात (भगवान कृष्‍ण) पैदा होता हूं, साधुओ की रक्षा और पापियों के विनाश के लिए तथा धर्म को स्थापित करने के लिए मैं हर युग में पैदा होता है |

 -निराकरण ---  सही है गीता व सभी अवतार  वेदों के बहुत बाद की बातें है .... वेदों में अवतारका वर्णन  कैसे होगा ........सृष्टि के समय ब्रह्मा द्वारा. सृष्टि रचना पर ऋग्वेद में कहा गया  है........उन्होंने --- यथा पूर्वम अकल्पयत ....अर्थात प्रत्येक कल्प में, युग में नवीन सृष्टि ....पूर्व के समान ही होती है......यह सूत्र रूप में अवतारवाद की अवधारणा है |.....
४-क धर्म के दो धर्मग्रंथों में ऐसा पारस्‍पारिक विरोध हिन्‍दू धर्म की ही विशेषता है, हम दोनों धर्म ग्रंथों में से एक को पूरी तरह अस्‍वीकार करें, विद्वानों का एक विशेषतः आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्‍पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं
स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के शिष्‍य प. भीमसेन शर्मा ने इस और सब से प्रथम ध्‍यान दिया और कदम भी उठाया, उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्‍वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्‍वर के सिद्धांत के विपरीत है अत- उन्‍होंने जिस जिस श्‍लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्‍लोक को झट अर्ध चन्‍द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्‍लोकों को प्रक्षिप्‍त बता कर निकाल बाहर किया,
आर्यसमाजियों के विद्वतापूर्ण् प्रयासों से वेद और गीता के मध्‍य की खाई और गहरी हो गयी है, लगता है गीता भक्‍तों और वेदानुयायियों में ध्रुवीकरण हो जायेगा, इस के साथ ही जनता में फैलाया व फैला यह अंधविश्‍वास कि 'वेद और गीता एक ही चीज हैं' भी समाप्‍त हो जाएगा

---निराकरण----तेत्तिरीयोपनिषद में ( यथा -यजुर्वेद )---कथन है... असद इदमग्रे  आसीत, ततौ वे सदजायत ....वह निराकार था उससे साकार की उत्पत्ति हुई........ईश्वर-ब्रह्म   दोनों रूप है, अपने मूल रूप में ..निराकार और लौकिक ..संसारी माया रूप -जीव रूप में... साकार ..ज्ञानी लोग ही यह जान पाते हैं ......यही गीता में भी दर्शाया गया है, वेदों की शिक्षा का मूल सार ही गीता में प्रतिपादित किया गया है | सत्यार्थ प्रकाश में भी यही समन्वयवाद है |
..........
-५-गीता ---सब एक ही ब्रह्म के रचे हुए हैं सुनिए कृष्‍ण के द्वारा ही-
ॐ तत्‍सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्‍पृतः
ब्राह्मणास्‍तेन वेदाश्‍च यज्ञाश्‍च विहिता पुरा - गीता 17/23
अर्थात हे अर्जुन, ओम् तत, सत ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेदा यज्ञ आदि रचे गए हैं
  ...गीता में कृष्‍ण स्‍्पष्‍ट घोषना कर रहे हैं कि सब से प्रमुख वेद सामवेद में ही हूं-
वेदानां सामवेदास्मि - गीता 10/22

---निराकरण --- सत्य ही तो है श्री कृष्ण ...आत्म-ब्रह्म के रूप में यह घोषणा कर रहे हैं ...तो प्रत्येक वस्तु ब्रह्म ही तो है....तत सत् ...का अर्थ है ....तू वही  ब्रह्म है.... चार महा वेद - वाक्य हैं ...हं ब्रह्मास्मि, तत्वमसि, सर्व खल्विदं ब्रह्म, सोहं...=मैं, तू, वह सभी ब्रह्म हैं ---
-पुस्‍तक ''कितने अप्रासंगिक हैं धर्मग्रंथ'' में स. राकेशनाथ विषय 'गीता कर्मवाद की व्‍याख्‍या या कृष्‍ण का आत्‍मप्रचार'' में लिखते हैं गीता में कृष्‍ण्‍ ने अधिकांश समय आत्‍मप्रचार में लगाया है, गीता के अधिकांश श्‍लोकों में 'अस्‍मद' शब्‍द का किसी न किसी विभक्ति में प्रयोगा किया गया है, 'अस्‍मद' शब्‍द उत्तम पुरूष के लिए प्रयोग किया जाता है हिन्दी में इसका स्थानापन्‍न शब्‍द 'मैं' है

गीता में कुल 700 श्‍लोक हैं, कृष्‍ण ने 620 श्‍लोक कहे
375 बार 'मैं' का प्रयोग किया, इससे यह निष्‍कर्ष निकाला जा सकता है पूरी गीता में कृष्‍ण में, मुझ को, मैं ने, मेरे लिए, मेरा आदिा शब्‍दों द्वारा अपनी ही बात कहते रहे हैं, अर्जुन के लिए जो कुछ कहा वह अपनी बात समझने का जोर डालने के लिए

सातवें अध्‍याय में 30 श्‍लोक हैं, इन में से दो श्‍लोकों (20 व 26) को छोड कर शेष सब के साथ 'मैं' मौजूद है, कुछ पंक्तियां देखिए-
श्रीमद् भगवद् गीता 7/6/11 का अनुवादः
अर्थात में सारे संसार का उत्‍पत्त‍ि और प्रलय सथान अर्थात मूल कारण हूं, मेरे (6)अतिरिक्‍त दूसरी वस्‍तु कुछ भी नहीं, यह सारा संसार मुझ में इस प्रकार गुंथा हुआ है जैसे धागे में मणियां पिरोई रहती हैं (7) है अर्जुन में जल में रहस हूं तथा सुर्य चंद्रमा में प्रकाश हू, मे सारे वेदों में ओंकार हूं, मैं आकाश में शब्‍द हूं, मैं मनुष्‍यों में पुरूषार्थ हूं (8) मैं धरती में पवित्र गंध हूं और में अग्नि में तेज हूं, मैं सारे प्राणियों में जीवन तथा तपस्वियों में तप हूं (9) है पार्थ मुझे सारे प्राणियों का सनातन कारण समझ में बुद्ध‍िमानों की बु‍द्धि‍ और मैं तेज वालों का ते जूं (10) में बलवानों का काम तथा राग रहित बल हूं,मैं प्राणियां में र्ध्‍मानुकूल कामवासना हूं (11)

कया कृष्‍ण जी से यह पूछा जा सकता है कि जब आपके सिवा सारे संसार में कुछ है ही नहीं तो ये बढिया वस्‍तुएं छांटने से क्‍या लाभ?

---निराकरण--- वेदिक वाक्य है...अणो अणीयान् महतो महीयान ....वह ब्रह्म कण कण में  है ....कृष्ण .... ब्रह्म का विराट रूप दिखाते समय....स्वयं ब्रह्म -जीव की भांति चर्चा कर रहे हैं तो अस्मद का प्रयोग क्यों नहीं होगा....वेदों में  स्वयं ब्रह्म कहता है----एकोहं बहुस्याम .... अहं = मैं शब्द का प्रयोग है....

६-अगर आजकल कृष्‍ण किसी को गीता का उपदेश दें तो उन्‍हें अपनी विभूतियों में निम्‍नलिखित तत्‍व और बढाने पडेंगे, ''है अर्जुन में आयुधों में परमाणु हूं, रेलगाडियों में डीलक्‍स हूं, नेताओं में जवाहरलाल नेहरू हूं, सिने गाय‍िकाओं में लतामंगेश्‍कार हूं, होटलों में 'अशोका होटल' हूं, चीनियों में माओत्‍से तुंग हूं, प्रधान मंत्रियों में चर्चिल हूं, फिल्‍मों में 'संगम' हूं, मदिराओं में ह्वि‍स्‍की हूं, पर्वतारोहियों में तेनसिंह हूं, ठगों में नटरलाल हूं''
निराकरण-- सत्य है.कण कण में ब्रह्म है तो यह भी कहना असत्य नहीं होगा..
परन्तु लौकिक रूप में, सांसारिक-मायिक-व्यावहारिक रूप जो श्रेष्ठ है उसी में 'मैं'..यथा .आपके ही दिए उदाहरण में--मैं प्राणियां में धर्मानुकूल कामवासना हूं|(11)...मैं कहने, होने के लिए ..योगेश्वर बनना पड़ता है...कृष्ण बनना पडता है...ब्रहम -रूप में आत्मसात होना पड़ता है तब कोई बन पाता है...ब्रह्म का ...'मैं' ....
 
-न जाने कैसा विचित्र समय था और कैसे अज्ञानी लोग थे, ईश्‍वर को भी जानने वाला कोई नहीं था उसे अपना परिचय स्‍वयं कराना पडा, अपनी एक एक बात विस्‍तारपुर्वक बतानी पडी नीति तो यह बताती है कि अपने गुणों का स्‍वयं बखाने करने से इंद्र भी छोटा बन जाता है
'इंद्रोऽपि लघुतां याति स्‍वयं प्रख्‍यापितैर्गुणै'
---निराकरण--निश्चय ही यह नियम  इंद्र (समस्त देव गण)= इद्रियाँ, सांसारिक-भाव युक्त ...जीव के लिए है .....ब्रह्म --प्रत्येक बिंदु पर ..अपना परिचय देता है ..कि मनुष्य मेरे गुणों पर चले ...परन्तु इन्द्रियों से भ्रमित मानव अपनी महत्ता को प्रख्यापित करने में मग्न ..कुकर्म करता है तो ब्रह्म को चेताना पडता है....यही  वेद , उपनिषद, गीता,ब्राह्मण, पुराण, शास्त्रों की समान रूप से शिक्षा है...उनमें कतई अंतर व द्विविधाभाव नहीं है.....वे सभी वेदों से ही अवतरित हैं, होते हैं ...सामाजिक सामयिकता लिए हुये  ....... यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति .....निश्चय ही जो इतने सम्पूर्ण, इतने सुंदर ढंग से जीवन को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ लिख सकता है ...वह परमात्मा ही  हो सकता है....परम-आत्मा... भगवान -भर्ग वान...ऐश्वर्यपूर्ण -ईश्वर ......


शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

कविता लेखन ....मूल प्रारंभिक रूप-भाव......ड़ा श्याम गुप्त....

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

        ब्लॉग जगत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति हेतु मुफ्त लेखन की सुविधा होने से अनेकानेक  ब्लॉग आरहे हैं एवं नए नए  व युवा कवि अपने आप  को प्रस्तुत कर रहे हैं ....हिन्दी व भाषा एवं  समाज के लिए गौरव और प्रगति-प्रवाह की बात है ......परन्तु इसके साथ ही यह भी प्रदर्शित होरहा है कि .....कविता में लय, गति , लिंगभेद, विषय भाव का गठन, तार्किकता, देश-काल, एतिहासिक तथ्यों की अनदेखी  आदि  की जारही है |  जिसके जो मन में आरहा है तुकबंदी किये जारहा है | जो काव्य-कला में गिरावट का कारण बन सकता है|
              यद्यपि कविता ह्रदय की भावाव्यक्ति है उसे सिखाया नहीं जा सकता ..परन्तु भाषा एवं व्याकरण व सम्बंधित विषय का उचित ज्ञान काव्य-कला को सम्पूर्णता प्रदान करता है |  शास्त्रीय-छांदस कविता में सभी छंदों के विशिष्ट नियम होते हैं अतः वह तो काफी बाद की व अनुभव -ज्ञान की बात है  परन्तु प्रत्येक नव व युवा कवि को कविता के बारे में कुछ सामान्य ज्ञान की छोटी छोटी मूल बातें तो आनी  ही चाहिए |   कुछ  सहज सामान्य प्रारंभिक बिंदु  नीचे दिए जा रहे हैं, शायद नवान्तुकों व अन्य जिज्ञासुओं के लिए सार्थक हो सकें ....
(अ) -अतुकांत कविता में- यद्यपि तुकांत या अन्त्यानुप्रास नहीं होता परन्तु उचित गति, यति  व लय अवश्य होना चाहिए...यूंही कहानी या कथा की भांति नहीं होना चाहिए.....वही शब्द या शब्द-समूह बार बार आने से सौंदर्य नष्ट होता है....यथा ..निरालाजी की प्रसिद्ध कविता.....
"अबे सुन बे गुलाव ,
भूल  मत गर पाई, खुशबू रंगो-आब;
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा -
कैपीटलिस्ट ||"

(ब )- तुकांत कविता/ गीत आदि  में--जिनके अंत में प्रत्येक पंक्ति  या पंक्ति युगल आदि में (छंदीय गति के अनुसार)  तुक या अन्त्यानुप्रास समान होता है...
-- मात्रा -- तुकांत कविता की प्रत्येक पंक्ति में सामान मात्राएँ होनी चाहिए मुख्य प्रारंभिक वाक्यांश, प्रथम  पंक्ति ( मुखडा ) की मात्राएँ गिन कर  उतनी ही सामान मात्राएँ प्रत्येक पंक्ति में रखी जानी चाहिए....यथा ..

 "कर्म      प्रधान      जगत      में    जग   में,  =१६ मात्राएँ 
 (२+१ , १+२+१ ,  १+१+१ ,  २ ,  १+१ , २  =१६)
  प्रथम       पूज्य    हे     सिद्धि     विनायक  |  = १६.
(१+१ +१,  २+१,    २ ,   २+१ ,     १+२+१+१   =१६ )

  कृपा       करो       हे       बुद्धि      विधाता ,         = १६ 
(१+२ ,   १+२ ,     २ ,      २+१     १ +२ +२     =१६  )

 रिद्धि       सिद्धि      दाता         गणनायक ||   =  १६
(२+१,      २+१ ,     २+२ ,       १+१+२+१+१  =१६ )

-लिंग ( स्त्रीलिंग-पुल्लिंग )---कर्ता व कर्मानुसार.....उसके अनुसार उसी  लिंग का प्रयोग हो.... यथा ....
       " जीवन  हर वक्त लिए एक छड़ी होती  है "  ----यहाँ  क्रिया -लिए ..कर्ता  जीवन का व्यापार   है..न कि छड़ी  का  जो समझ कर  'होती है '  लिखा गया ----अतः या तो ....जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होता है ....होना चाहिए ...या  ..जिंदगी  हर वक्त लिए एक छड़ी होती है ...होना चाहिए |
- इसी प्रकार ..काव्य- विषय का --काल-कथानक का समय  (टेंस ), विषय-भाव ( सब्जेक्ट-थीम ), भाव (सब्सटेंस), व  विषय क्रमिकता,  तार्किकता , एतिहासिक तथ्यों की सत्यता,  विश्व-मान्य सत्यों-तथ्यों-कथ्यों  ( यूनीवर्सल ट्रुथ ) का ध्यान रखा जाना चाहिए....बस .....|
४-- लंबी कविता में ...मूल कथानक, विषय -उद्देश्य , तथ्य व देश -काल  ....एक ही रहने चाहिए ..बदलने नहीं चाहिए .....उसी मूल कथ्य व उद्देश्य को विभिन्न उदाहरणों व कथ्यों से परिपुष्ट करना एक भिन्न बात है ...जो विषय को स्पष्टता प्रदान करते  हैं  ....

                           -और सबसे बड़ा नियम यह है कि ...स्थापित, वरिष्ठ, महान, प्रात: स्मरणीय ...कवियों की सेकडों  रचनाएँ  ..बार बार पढना , मनन करना  व उनके कला व भाव का अनुसरण करना .......उनके अनुभव व रचना पर ही बाद में आगे शास्त्रीय नियम बनते हैं......








   

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आ बसा है कौन ......गीत....ड़ा श्याम गुप्त.....

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



नयन  के द्वारे ह्रदय में,
आ बसा है कौन ?
खोल मन की अर्गलायें ,
आ छुपा है कौन ?          -----नयन के द्वारे......||


कौन है मन की धरोहर, 
यूं चुराए जारहा |
दिले-सहरा में सुगन्धित,
गुल खिलाए जारहा |
कौन सूनी राह पर,
प्रेमिल स्वरों में  ढाल कर ;
मोहिनी मुरली अधर धर,
मन लुभाए जारहा |
धडकनों की राह से,
नस नस समाया कौन ?        
लीन  मुझको  कर, स्वयं-
मुझ में समाया कौन |        ----नयन के द्वारे ...........||


जन्म जीवन जगत जंगम -
जीव जड़ संसार |

ब्रह्म सत्यं , जगन्मिथ्या ,
ज्ञान अहं अपार |
भक्ति-महिमा-गर्व-
कर्ता की अहं -टंकार |
तोड़ बंधन, आत्म-मंथन ,
योग अपरम्पार |
प्रीति के सुर-काव्य बन,
अंतस समाया मौन  ,
मैं हूँ यह या तुम स्वयं हो -
कौन मैं तुम कौन ?               -----नयन के द्वारे .....||

शनिवार, 17 सितंबर 2011

पेंटिंग बेचने बिकने का धंधा.....

                                                                          

---क्या है ऐसा उपरोक्त पेंटिंग में जो आप नहीं बना सकते ...कोई भी नौसिखिया  नहीं बना सकता ......उस समय हुसैन भी नौसिखिया ही थे...एक दम साधारण पेंटिंग है ...कक्षा ५ के कला विद्यार्थी द्वारा बनाई जा सकने वाली...
---फिर क्यों यह साढ़े पांच करोड में बिकी ???????????
---सब नंबर दो की कहानी  है ....

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

हिन्दी-- एतिहासिक आइना एवं वर्तमान परिदृश्य ...डा श्याम गुप्त का आलेख....

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


              हिन्दी भाषा की वर्तमान स्थिति के परिदृश्य में विभिन्न परिस्थितियों व स्थितियों पर दृष्टि डालने के लिए पूरे परिदृश्य को निम्न कालखण्डों में देखा जा सकता है--- 
      १.पूर्व गांधी काल 
      २. गांधी युग
      ३. नेहरू युग 
      ४. वर्त्तमान परिदृश्य ....
        गोस्वामी तुलसीदास जी ने सर्वप्रथम 'रामचरित मानस'  को  संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में रचकर हिन्दी को भारतीय जन-मानस की भाषा बनाया | हिन्दी तो उसी समय राष्ट्रभाषा होगई थी जब घर-घर में रामचरित मानस पढी और रखी जाने लगी |  भारतेंदु युग, द्विवेदी युग में हिन्दी के प्रचार-प्रसार से देश भर में हिन्दी का प्रभाव लगातार बढ़ता रहा यहाँ तक कि एक समय मध्य प्रांत में एवं बिहार में हिन्दी निचले दफ्तरों व अदालतों की सरकारी भाषा बन चुकी थी यद्यपि युक्तप्रांत में इसी प्रकार के प्रस्ताव को कुछ लोगों व तबकों के विरोध के कारण हिन्दी को पिछड़ जाना पडा, जो बाद में १९४७ ई. में संवैधानिक मजबूरी से हुआ |

       दुर्भाग्य वश अंग्रेज़ी राज्य के प्रसार नीति के तहत प्रारम्भिक काल में मैकाले की नीति से रंग व रक्त में हिन्दुस्तानी किन्तु रूचि, चरित्र, बुद्धि व चिंतन से अंग्रेजों की फौज खडी करने के लिए अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार व हिन्दी की उपेक्षा से, हिन्दी विरोधी पीढियां उत्पन्न हुईं जो बाद में स्वदेशी शासन में भी सम्मिलित हुईं. ऐसे ही भारतीयों के शब्दों -"शिक्षा में भारतीयों को अंग्रेजों के समकक्ष आने में करोड़ों वर्ष लगेंगे" एवं "अब कैम्ब्रिज भारतीयों से भर गया है",- के कारण केम्ब्रिज छोड़ कर ऑक्सफोर्ड जाना आदि क्रिया-कलापों से हिन्दी के पिछड़ने की पारीस्थितियाँ  उत्पन्न हुई 

       गांधी जी के आविर्भाव के युग में मौ.अली जिन्ना के हिन्दी विरोध तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा की घोषणा के प्रतिक्रया स्वरुप अधिकाँश उर्दूभाषी हिन्दुओं ने उर्दू को छोड़कर हिन्दी अपनाई उर्दू प्रेमी कवि -साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द ने हिन्दी में लिखना आरम्भ कर दिया हिन्दी को लगभग सारे राष्ट्र ने खुले दिल से स्वीकार किया |
उत्तर-पश्चिम भारत पूर्ण रूप से हिन्दी के प्रभाव में था एवं दक्षिण भारत में हिन्दी के स्कूल व कालिज खुलने लगे थे तथा पूरी तरह से प्रचार-प्रसार आरम्भ होगया था कहीं भी हिन्दी का कोई विरोध नहीं था, बिना किसी संरक्षण के देश भर में स्वतः हिन्दी को अपनाया गया बाद में गांधीजी के तुष्टीकरण, मुस्लिमों में अलगावबाद व अंग्रेजों की नीति के कारण हिन्दी के पिछड़ने का अभियान प्रारम्भ होगया | स्वयं महात्मा गांधी ने अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को भेजा परन्तु बाद में खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों को साथ लेने के कारण वे हिन्दी की बजाय हिन्दुस्तानी के पक्षधर होगये, और हिन्दी के प्रचार-प्रसार को धक्का लगा |

           कांग्रेस पर विदेशों में पढ़े लिखे व अंग्रेज़ी पढ़े लोगों के वर्चस्व से नेहरू जी के आविर्भाव के युग में हिन्दी विरोध के स्वर मुखर होने लगे; परन्तु उर्दू के पाकिस्तान की भाषा बनने पर संविधान सभा में बहुमत से हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया गया इसके विरोध में 'बहुमत के निर्णय को अल्पमत पर थोपने' जैसे कथनों से हिन्दी विरोधियों को नया हथियार मिला जो बाद में हिन्दी के विरोध में प्रयोग होता रहा |

         आज़ादी के बाद महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज़ी में पारंगत व पाश्चात्य जीवन शैली वाले व्यक्तियों के पहुँचने से जनता में यह सन्देश गया कि अंग्रेज़ी के बिना देश का काम नहीं चलेगा यहाँ तक कि ईसाई मिशनरीज़ भी देश छोड़कर जाते-जाते रुक गईं, और हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी स्कूलों के आने का दुश्चक्र प्रारम्भ होगया जब मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में देवनागरी लिपि प्रयोग करने के पक्ष में प्रस्ताव पास हुआ तो केन्द्रीय मंत्री मंडल ने इसे लागू नहीं किया |  यद्यपि पूरे देश में हिन्दी का कहीं विरोध नहीं था |
         इस प्रकार विभिन्न एतिहासिक भूलों , तुष्टीकरण , राजनैतिक साहस व इच्छा की कमी के चलते आज हिन्दी भाषा का परिदृश्य यह है कि यद्यपि देश में सिर्फ २-३ % लोग अंग्रेज़ी जानने वाले हैं तथा साक्षरता विकास के साथ-साथ हिन्दी के समाचार पत्रों आदि का वितरण अंग्रेज़ी समाचार पत्रों की अपेक्षा काफी बढ़ रहा है परन्तु नव-साक्षरों का सांस्कृतिक स्तर सामान्य ही है, उनमें उच्च सांस्कृतिक कृतियाँ पढ़ने-समझने की क्षमता नहीं है इसका कारण है कि हिन्दी राजभाषा होते हुए भी समाज के सबसे ऊपरी श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं निर्णय करने वाले उच्च अधिकारी की भाषा आज भी अंग्रेज़ी है, उनके प्रेरणा श्रोत व आदर्श पश्चिमी विचार व साहित्य है; यहाँ तक कि तथाकथित हिन्दीवादी कवि व साहित्यकार, रचनाकार, मठाधीश आदि भी इस रंग में रंगे हुए हैं अतः वे देश के नव-कर्णधारों को उच्च सांस्कृतिक व साहित्यिक क्षमता प्रदान करने में असमर्थ हैं अतः हिन्दी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन धीरे धीरे बंद होकर सामान्य स्तर के सस्ते, मनोरंजन से भरपूर अंग्रेज़ी साहित्य से प्रभावी, अनुशासित व नक़ल के प्रकाशनों की भरमार होती जारही है चमक-धमक व सुविधापूर्ण अंग्रेज़ी स्कूलों का मोह, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधक है हिन्दी फिल्मों से करोड़ों कमाने वाले अभिनेता सामान्य बात भी अंग्रेज़ी में करते हैं, विदेशों में पढ़ते व घूमते एवं विदेशी उत्पादों का विज्ञापन भी करते हैं रही सही कसर मुक्त बाज़ार, मुक्त मीडिया, बड़े-बड़े शो रूम व माल कल्चर देश में अंग्रेज़ी के प्रसार व हिन्दी प्रसार को रोकने के लिए कटिबद्ध हैं; अतः स्कूल के बच्चे सैतीस की बजाय थर्टी सेवन ही समझ पाते हैं |

        यद्यपि समय समय पर दिग्गज व हिन्दी प्रेमी नेताओं ने हिन्दी की पुरजोर वकालत की है एवं हिन्दी के प्रचार-प्रसार का मुद्दा भी उठाया है परन्तु कालान्तर में कुर्सी मोह के कारण छोड़ दिया गया |

        आज अंग्रेज़ी सिर्फ हिन्दी ही नहीं अपितु क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्रभावित कर रही है | माताओं के अंग्रेज़ी भाषी होने से बच्चों की घरेलू भाषा अंग्रेज़ी होती जारही है कम्प्युटर, मोबाइल, मल्टी नॅशनल कंपनियों की बाढ़, नए -नए विदेशी अवधारणा वाले पाठ्यक्रम, अच्छा वेतन, विदेशों में घूमने की सुविधा आदि ने हिन्दी मोह छोड़कर अंग्रेज़ी मोह को बढ़ावा दिया है यह सब इसलिए हुआ कि हिन्दी राजभाषा घोषित होने के १५ वर्ष तक, और अब सदा के लिए, सरकारी कार्य में अंग्रेज़ी साथ-साथ बनी रहेगी, यह शर्त लगाई गयी | विश्व में शायद ही यह स्थिति कहीं हो |
हिन्दी की वर्त्तमान स्थिति का एक कारण यह भी है कि स्वतन्त्रता के समय हिन्दी की प्रतिस्पर्धा केवल अंग्रेज़ी से थी, जो कालान्तर में सरकारी नीतियों, अंग्रेज़ी समाचार पत्रों, मीडिया व उनके अँगरेज़-परस्त मानस-पुत्रों व छुद्र राजनैतिक स्वार्थों ने इसे अहिन्दी भाषी राज्यों के झगड़ों में परिवर्तित कर दिया, ताकि एकता बनाए रखने के बहाने से देश भर में सदा के लिए अंग्रेज़ी को स्थान दिया जा सके |

           अच्छा होगा कि हम वर्त्तमान परिदृश्यों, स्थितियों व परिस्थितियों को समझें, मनन करें एवं समाज की वास्तविक उन्नंति के मूलमन्त्र को ध्यान में रखें --- " निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल "|



मंगलवार, 13 सितंबर 2011

कविता...हिन्दी की रेल.....हिन्दी दिवस पर ....डा श्याम गुप्त ....


                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

अंग्रेज़ी की मेट्रो
हिन्दी की ये रेल न जाने, चलते चलते क्यों रुक जाती |
जैसे  ही रफ़्तार पकडती,  जाने क्यूं  धीमी  होजाती ||

कभी  नीति सरकारों की या, कभी नीति व्यापार-जगत की |
कभी रीति इसको ले डूबे , जनता के व्यबहार-जुगत   की ||


हम सब भी दैनिक कार्यों में, अंग्रेज़ी का पोषण करते |
अंग्रेज़ी अखबार मंगाते,  नाविल  भी  अंग्रेज़ी पढते ||

अफसरशाही कार्यान्वन जो सभी नीति का करने वाली |
सब  अंग्रेज़ी  के   कायल  हैं,  है अंग्रेज़ी ही पढने  वाली ||


नेताजी  लोकतंत्र क्या है,  पढने अमेरिका  जाते हैं |
व्यापारी कैसे सेल करें,  योरप से सीख कर आते हैं ||


यंत्रीकरण का दौर हुआ, फिर धीमी इसकी चाल हुई |
टीवी  बम्बैया-पिक्चर से,  इसकी भाषा बेहाल हुई ||                                           
हिन्दी की छुक छुक

छुक छुक कर आगे रेल बढ़ी, कम्प्युटर मोबाइल आये |
पहियों की चाल रोकने को, अब  नए बहाने फिर आये ||

फिर चला उदारीकरण दौर, हम तो उदार जगभर के लिए |
दुनिया ने फिर भारत भर में,  अंग्रेज़ी  दफ्तर खोल लिए ||

अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां है, सर्विस की मारा मारी है |
हर तरफ तनी है अंग्रेज़ी,  हिन्दी तो बस  बेचारी है ||

हम बन् क्लर्क अमरीका के,इठलाये जग पर छाते  हैं |
उनसे ही मजदूरी लेकर,  उन पर  ही  खूब लुटाते हैं ||

क्या इस भारत में हिन्दी की, मेट्रो भी कभी चल पायेगी |
या छुक छुक छुक चलने वाली ,पेसेंजर ही  रह जायेगी ||



सोमवार, 12 सितंबर 2011

यदि तुम आजाते जीवन में ( महादेवी जी की पुण्य-तिथि पर.)...----डा श्याम गुप्त



.                                               ...कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                    महीयसी  महादेवी  वर्मा जी की पुण्यतिथि पर .....उन्हीं की भाव-भूमि पर ...एक श्रृद्धा सुमन ...

यदि तुम आजाते जीवन में ,
निश्वासों में बस कर मन में |
कितने सौरभ कण से हे प्रिय!
बिखरा जाते इस जीवन में |

गाते रहते मधुरिम पल-छिन,
तेरे  ही गीतों का  विहान  |
जाने कितने वे इन्द्रधनुष,
खिल उठते नभ में बन वितान |

             खिल उठतीं कलियाँ उपवन में|
             यदि  तुम आजाते  जीवन में ||

महका  महका आता सावन,
लहरा लहरा  गाता सावन |
तन मन पींगें भरता नभ में ,
नयनों मद भर लाता सावन |

जाने  कितने  वर्षा-वसंत,
आते जाते पुष्पित होकर |
पुलकित होजाता जीवन का,
कोना कोना सुरभित होकर |

              उल्लास समाता कण कण में ,
              यदि तुम आजाते जीवन में ||

संसृति भर के सन्दर्भ सभी ,
प्राणों  की  भाषा बन् जाते |
जाने कितने नव-समीकरण,
जीवन  की  परिभाषा गाते |

पथ में  जाने  कितने दीपक,
जल उठते बनकर दीप-राग |
चलते हम तुम मन मीत बने,
बज उठते नव संगीत साज |

                 जलता राधा का प्रणय-दीप ,
                 तेरे मन के  वृन्दाबन में   |
                 यदि तुम आजाते जीवन में ||

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

स्त्री-विमर्श गाथा-भाग-७ ( अंतिम भाग )...नव जागरण काल ......ड़ा श्याम गुप्त....

                                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



              यूं तो सहज रूप में ही १५ वीं सदी से ही समय समय पर नव जागरण ,स्त्री जागरण, समाज सुधार के  बीज अंकुरित होते रहे थे |  ११ वीं सदी में  गुरु गोरखनाथ के पश्चात देश भर में संत साहित्यकार गुरु नानक , तुलसीदास, कबीर, सूरदास, रैदास, तुकाराम, एकनाथ, तिरुवल्लर, कुवेम्पू ,केलासम अपने अपने विचारों से अपने अपने ढंग से नव-जागरण का ध्वज उठाये हुए थे | राजनीति के स्तर पर भी  शिवाजी, राणा प्रताप अदि देश भक्तों की लंबी परम्परा चलती रही | 
                 मूलतः १९ वीं सदी में विश्व स्तर की कुछ महान एतिहासिक  घटनाओं के फलस्वरूप नव जागरण का कार्य तेजी से बढ़ा | ये थीं विश्व पटल पर अमेरिका का उदय व  विश्व भर में शासन तंत्र के बदलाव की नयी हवाएं .....राज-तंत्र का समाप्ति की ओर जाना  व गणतंत्र   की स्थापना   ( जिसका एक प्रयोग पहले ही भारत में वैशाली राज्य में हो चुका था ..यद्यपि वह कुछ अपरिहार्य कारणों से असफल रहा ) |  सारे विश्व में ही राज्यतंत्र की निरंकुशता से ऊबे जन मानस ने लोकतंत्र की  खुली हवा में सांस लेना प्रारम्भ  किया |  तुलसी की रामचरित मानस, सूरदास के कृष्ण-भक्ति साहित्य, कबीर के निर्गुण-भक्ति ज्ञान के साहित्य मूल रूप से समाज व नारी जागरण के वाहक बने; आगे  साहित्य जगत  में भारतेंदु हरिश्चंद्र , जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा,सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्रा नन्द पन्त,  मैथिली  शरण गुप्त, दिनकर, निराला, महाबीर प्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेम चन्द्र, शरतचन्द्र, रवीन्द्रनाथ टेगोर, सुब्रह्मनियम भारती .....समाज सेवी व राजनैतिक क्षेत्र  में  राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, आर्य समाज व  महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी आदि के प्रयासों से भारतीय समाज से विभिन्न कुप्रथाओं का अंत हुआ एवं नारी-शिक्षा द्वारा नारी के नव जागरण का युग प्रारम्भ  हुआ |                  
                                                                                                       


              
   
                       अंग्रेज़ी दासता से स्वतंत्रता पश्चात  समाज की विभिन्न भाव उन्नति के साथ नारी-शिक्षा, नारी-स्वास्थ्य, अत्याचार-उत्प्रीडन् से मुक्ति, बाल-शिक्षा, विभिन्न कुप्रथाओं की समाप्ति द्वारा   आज नारी व भारतीय नारी के पुनः अपनी आत्म-विस्मृति, दैन्यता, अज्ञानता से बाहर
आकर खुली हवा में सांस ले रही है  एवं समाज व पुरुष की अनधिकृत बेडियाँ तोडने में रत है |                                                       
                         परन्तु यह राह भी खतरों से खाली नहीं  है , इसके लिए उन्हें आरक्षण आदि की वैसाखियों व  पुरुषों का अनावश्यक सहारा  नहीं लेना चाहिए अपितु अपने बल पर सब कुछ अर्जित करना ही श्रेयस्कर रहेगा |  पुरुषों की बराबरी के नाम पर अपने स्त्रियोचित गुण व कर्तव्यों का बलिदान व नारी विवेक की सीमाओं का  उल्लंघन  उचित नहीं |  शारीरिक आकर्षण के बल पर  सफलता की आकांक्षा व बाज़ार और पुरुषों के समझौते वाली भूमिका  में लिप्त  नहीं होना  चाहिए |  भोगवादी व्यवस्था , अतिभौतिकवादी चलन एवं अंधाधुंध पाश्चात्य अनुकरण, आकर्षणों, प्रलोभनों  के साथ स्वार्थी पुरुषों व पुरुषवादी संगठनों, छद्म-नारीवादी संगठनों  की बाज़ारवादी व्यवस्था से परे रह कर ही  नारी- श्रृद्धा- मूलक समाज, स्त्री-नियंता समाज   नारी-पुरुष समन्वयात्मक समाज की स्थापना की रीढ़ बन् सकती है |
                

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

हिन्दी दिवस के लिए एक विशेष विचार ---डा श्याम गुप्त .......

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


हिन्दी का एक दुर्भाग्य यह भी ---लोक वाणियों का प्रश्रय ...

                 हिन्दी के प्रसार व उन्नति में अन्य तमाम बाधाओं के साथ एक मुख्य बाधा हिन्दी पट्टीके प्रदेशों की आंचलिक बोलियों को साहित्य-सिनेमा -दूरदर्शन-रेडियो आदि में अलग से प्रश्रय देना भी है। भोजपुरी, अवधी, बृज भाषाबिहारी आदि हिन्दी की बोलियों को आजकल साहित्य में अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा है जैसे कि वे हिन्दी न होकर हिन्दी-से अलग भाषाएँ हों। जो आगे चलकर साहित्य में भी अलगाव वाद की भूमिका बन सकता है।
-----जो कवि, साहित्यकार, सिने-आर्टिस्ट, रेडियो कलाकार व अन्य कलाकार-- मूल हिन्दी धारा के महासागर में अपनी वैशिष्यता , पहचान खोजाने से डरते हैं , क्योंकि वास्तव में वे उतने योग्य नहीं होते एवं स्वस्थ प्रतियोगिता से डरते हैं , वे अपना स्वार्थ लोक-वाणियों को भाषा बनाकर पूरा करने में सन्निहित होजाते हैं। इस प्रकार इन तथाकथित बोलियों( हिन्दी की ) से बनाई गयी भाषाओं की विविध सन्स्थाएं भी अपना अलग से पुरस्कार, सम्मान, आयोजन इत्यादि करने लगती हैं , सिर्फ शीघ्र व्यक्तिगत व संस्थागत पहचान व ख्याति के लिए |
----इस प्रकार छुद्र व तात्कालिक , व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए एक महान कर्तव्य ---हिन्दी को सारे विश्व राष्ट्रभाषा जन-जन की भाषा बनाने के ध्येय को अनदेखा किया जारहा है। ---कुछ मूल प्रश्न ....
१.--क्या सूर, बिहारी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रत्नाकर को सिर्फ -बृज भाषा का, तुलसी को सिर्फ अवधी का कवि कहलाना भारतीय पसंद करेंगे( हो सकता है इसके चलते यह मांग भी उठ खड़ी हो ) या किसी के द्वारा कभी कहीं कहा गया ? ये सभी महान कवि हिन्दी की महान विभूतियों के व कवियों के रूप में विश्व विख्यात हैं |
२. क्या स्वतन्त्रता से पूर्व या बाद में भी इन सभी आंचलिक भाषाओं को हिन्दी मानकर ही नहीं देखा , समझा , जाना व माना नहीं जाता था?
-----वस्तुतः होना यह चाहिए----
१. -हिन्दी -पट्टी की इन सभी बोलियों के साहित्य को अलग साहित्य न मानकर हिन्दी का ही साहित्य माना जाना चाहिए एवं सभी साहित्यिक/ कला के कार्य कलापों के लिए हिन्दी के साथ ही समाहित किया जाना चाहिए।
२. सभी देशज कवियों/ कलाकारों /सिनेमा को हिन्दी का ही माना जाना चाहिए -न कि इन विशिष्ट भाषाओं के ।
३. सभी हिन्दी-बोलियों को हिन्दी भाषा में ही समाहित किया जाना
-------तभी हिन्दी का महासागर और अधिक उमड़ेगा, लहराएगा

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

कृष्ण लीला तत्वार्थ .-१० ....सोलह हज़ार रानियाँ ...

                                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 सोलह हज़ार रानियाँ और पटरानी आठ |
श्री कृष्ण भगवान के देखो कैसे ठाठ |
देखो कैसे ठाठ,रीति यह भी बचपन की,
हर गोपी की चाह, किशोरी या पचपन की |
बृज-बालाओं संग नित्य नव रास रचाते,
राधा सखियाँ संग प्रेम की पींग सजाते  ||

रास रचाते नाचते, बढ़ीं प्रेम की पींग |
हर गोपी हर सखी संग, चली प्रेम की रीति |
 चली प्रेम की रीति , प्रीति बस राधा से थी,
अन्य किसी  की ओर नैन की डोर नहीं थी |
श्याम, प्रिया से अन्य कहाँ कब आँख लगाई,
उसी प्रिया को त्याग, बने जग में हरजाई  ||

सोलह हज़ार नारियाँ, परित्यक्ता गुमनाम |
निज रानी सम श्याम ने उन्हें दिलाया मान |
उन्हें दिलाया मान, नयी जग-रीति सजाई,
कभी किसी की ओर नहीं पर आँख उठाई |
जग में प्रथम प्रयास यह, नारी का उद्धार,
भ्रमवश कहते रानियाँ, थीं सोलहों हज़ार ||

रीति निभाई जगत की, जो पटरानी आठ |
अन्य किसी के साथ कब, श्याम निभाए ठाठ |
श्याम निभाए ठाठ, कहा- जग माया संभ्रम ,
जीवन राह में मिलें, हज़ारों आकर्षण-भ्रम |
यही श्याम की सीख, योग है यही कृष्ण का,
जल, जल-जीव व पंक, मध्य नर रहे कमल सा ||

अखिल भारतीय साहित्य परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक......ड़ा श्याम गुप्त.....

                                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                     अखिल भारतीय साहित्य परिषद की  राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक, पुस्तक लोकार्पण एवं सम्मान समारोह  दि १०-११ सितम्बर २०११ को लखनऊ में, मुन्नू लाल धर्मशाला , चौक में  आयोजित की जारही है ....आप सभी आमंत्रित हैं....|