....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
विश्व हिन्दी सम्मेलन..... जोहान्सबर्ग -अफ्रीका में ...जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा.
क्या विश्व हिन्दी सम्मलेन...भारत से बाहर विदेशों में होना अनिवार्य है......जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा.....अरे सारे विश्व हिन्दी सम्मलेन भारत में ही हों तो भारतीय भी हिन्दी की महत्ता समझें ....विदेशी क्या करेंगे हिंदी की महत्ता समझ कर ...क्यों समझें ...हम तो पहले अपनी भाषा की महत्ता समझ कर उसे प्रयोग में लाएं ......यहाँ तो सारा युवा समाज...तथाकथित पढ़ा लिखा, प्रवुद्ध युवा समाज ..अंग्रेज़ी में खाता--पीता--उठता-बैठता, सांस लेता है ...और आप चले हैं हिन्दी सम्मलेन विदेशों में करने ......
यह सब कुछ तथाकथित वर्गों, गुटों के साहित्यकारों ( वे साहित्यकार भी कहाँ हैं ..पत्रकार, संपादक, यानी अखबार नवीस, नेता , गुटबाज़ हैं ) विदेश घूमने का आयोजन बनाया हुआ है | अब देखिये ...वहाँ बहुत से विदेशी, स्थानीय भारतवंशी व भारतीय विद्वान भी गए होंगे ( पता नहीं गए भी हैं ..बुलाये गए भी हैं या नहीं ) परन्तु समाचार, विचार व भाषण सिर्फ अखवार बालों --- आलोचक, संपादक, पत्रिकाओं वालों के छपे हैं ....किसी बड़े साहित्यकार के नहीं | इन सब के विचार तो हम भारत में ही सुनते रहते है, सुनते आये हैं वर्षों से बिना किसी प्रभाव के... जब हम घिसे-पिटे विचारों ---आधा भरे गिलास से ही संतुष्टि की भावना करेंगे तो ऐसे सम्मलेन से हम क्या आशा करें ?
और हिन्दी का सुखद भविष्य सुनिश्चित हो .....तो कौन करेगा सुनिश्चित, विदेशों में आयोजन से कैसे होगा सुनिश्चित ..... क्या हम विदेशियों या योरोप-अमेरिका से आशा कर रहे हैं कि प्रत्येक बात की भांति ही.......पहले वे हिन्दी का प्रयोग प्रारम्भ करें तब हम भी नक़ल कर लेंगे ......
विश्व हिन्दी सम्मेलन..... जोहान्सबर्ग -अफ्रीका में ...जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा.
क्या विश्व हिन्दी सम्मलेन...भारत से बाहर विदेशों में होना अनिवार्य है......जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा.....अरे सारे विश्व हिन्दी सम्मलेन भारत में ही हों तो भारतीय भी हिन्दी की महत्ता समझें ....विदेशी क्या करेंगे हिंदी की महत्ता समझ कर ...क्यों समझें ...हम तो पहले अपनी भाषा की महत्ता समझ कर उसे प्रयोग में लाएं ......यहाँ तो सारा युवा समाज...तथाकथित पढ़ा लिखा, प्रवुद्ध युवा समाज ..अंग्रेज़ी में खाता--पीता--उठता-बैठता, सांस लेता है ...और आप चले हैं हिन्दी सम्मलेन विदेशों में करने ......
यह सब कुछ तथाकथित वर्गों, गुटों के साहित्यकारों ( वे साहित्यकार भी कहाँ हैं ..पत्रकार, संपादक, यानी अखबार नवीस, नेता , गुटबाज़ हैं ) विदेश घूमने का आयोजन बनाया हुआ है | अब देखिये ...वहाँ बहुत से विदेशी, स्थानीय भारतवंशी व भारतीय विद्वान भी गए होंगे ( पता नहीं गए भी हैं ..बुलाये गए भी हैं या नहीं ) परन्तु समाचार, विचार व भाषण सिर्फ अखवार बालों --- आलोचक, संपादक, पत्रिकाओं वालों के छपे हैं ....किसी बड़े साहित्यकार के नहीं | इन सब के विचार तो हम भारत में ही सुनते रहते है, सुनते आये हैं वर्षों से बिना किसी प्रभाव के... जब हम घिसे-पिटे विचारों ---आधा भरे गिलास से ही संतुष्टि की भावना करेंगे तो ऐसे सम्मलेन से हम क्या आशा करें ?
और हिन्दी का सुखद भविष्य सुनिश्चित हो .....तो कौन करेगा सुनिश्चित, विदेशों में आयोजन से कैसे होगा सुनिश्चित ..... क्या हम विदेशियों या योरोप-अमेरिका से आशा कर रहे हैं कि प्रत्येक बात की भांति ही.......पहले वे हिन्दी का प्रयोग प्रारम्भ करें तब हम भी नक़ल कर लेंगे ......