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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

god grant redemption एक और बकवास आलेख--डा श्याम गुप्त

                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

-- एक और बकवास आलेख---
---चित्र में दिए गए आलेख में हिन्दू धर्म के लिए बड़ी बड़ी बातें कही गयी हैं, परामर्श दिए गए हैं
------ | परन्तु शायद लेखक ने स्वयं अच्छी तरह से रामायण या राम चरित मानस या अन्य हिन्दू ग्रन्थ तथा हिन्दू देवताओं के क्रिया-कलाप अच्छी तरह से नहीं पढ़े व जाने हैं |
-----------The
god who grant redemption even to enemies ------------------always grant the same after their death.
------बिना दंड के कोइ भी अपराधी नहीं छूटना चाहिए , यही उचित धर्म है , कोइ भी ईश्वर, देव या गोड उचित सजा दिए बिना किसी को redemption नहीं करता
-----आजकल एक फेशन होगया है कि हिन्दू धर्म के विरुद्ब कुछ बात हो तो ये सभी तथाकथित अंग्रेज़ी कालम वाले, मीडिया वाले, अंग्रेज़ी लेखक दौड़े चले आते हैं किसी अन्य धर्म के लोग कुछ भी अत्याचार करते रहें तो अपने खोल में चले जाते हैं ---

 

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

वेदों के महावाक्य---डा श्याम गुप्त

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

---वेदों के महावाक्य --- 
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वेदों की चार घोषणाएं हैं ----- जो भारतीय दर्शन , जीवन व व्यवहार का मूल हैं --
ऋग्वेद का कथन है ‘प्रज्ञानाम ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म परम चेतना है |
यजुर्वेद का सार है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।
सामवेद का कथन है ‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो। )
अथर्ववेद का सारतत्व कहता है ‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।
---- ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्य तात्विकता से ओत प्रोत हैं, जो भारतीय संस्कृति की मनीषा है |
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प्रथम उद्घोषणा है#प्रज्ञानाम #ब्रह्म, प्रज्ञान क्या होता है? क्या वह केवल बुद्धि और चातुर्य है? प्रज्ञान शरीर में, मन में, बुद्धि में, अहम में, सब में विद्यमान होता है। #प्रज्ञान जड़ और चेतन दोनों में रहता है। उसे हम निरंतर संपूर्ण चेतना कहते हैं। #चेतना क्या होती है? चेतना का अर्थ है जानना। क्या जानना? थोड़ा कुछ या टुकड़े टुकड़े में जानने को चेतना नहीं कहते हैं। यह संपूर्ण ज्ञान होता है।
------यह उस दिव्य तत्व जो जड़ और चेतना दोनों में निहित है, उसका ज्ञान होना ही संपूर्ण चेतना है।
-------वास्तव में प्रज्ञान और ब्रह्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, वे दो अलग वस्तुएं नहीं हैं। ब्रह्म क्या है? #ब्रह्म वही है जो सर्वव्यापी हैं, यह वृहद तत्व का सिद्धांत है। संपूर्ण सृष्टि ही वृहद है या शक्तिशाली विशाल सूत्र है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ब्रह्म व्याप्त है। सरल भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है, सर्वत्र फैला हुआ। वह चारों ओर व्याप्त है, एक सद्गुरु भी इन गुणों से युक्त होता है|
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द्वितीय उद्घोषणा --- ‘#अहम् #ब्रह्मास्मि।’ अहम् का अर्थ केवल ‘मैं’ नहीं होता अपितु #अहम् का अन्य अर्थ होता है #आत्मा। अहम् ही आत्मा का स्वरूप होता है जो चेतना के चारों ओर उपस्थित होती है, वह मनुष्य में आत्मा के रूप में स्थापित की गई है। यह आत्मा सबके अंदर साक्षी रूप में अवस्थित होती है। आत्मा, चेतना और ब्रह्म ये सब भिन्न नहीं हैं। अहम् ब्रह्मास्मि का अर्थ है- मेरे अंदर भी आत्मा या मेरे अंदर का== ‘मैं’ ही सनातन साक्षी है, वही ब्रह्म है।==
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तृतीय उदघोषणा है- ‘#तत्वमसि।’ यह सामवेद का सार है। तत् का अर्थ है ‘वह’ और त्वम् का अर्थात् ‘तू, तुम’, असि का अर्थ है ‘हो।’ जब तक मैं और तुम का भेद होता है तब तक मैं और तुम दो अलग-अलग रहते हैं, पर जब मैं और तुम इकट्ठे हो जाते हैं तब ‘#हम’ बन जाते हैं, दोनों मिलकर एक अस्तित्व बन जाता है। जहां दुविधा है वहां ‘तुम’ है और जहां उपाधि (द्वैत का भाव ) नहीं है वहां ‘तत् है। एक जीव है, दूसरा देव है। सामवेद में यह बहुत स्पष्ट ढंग से समझाया गया है कि जीव और देव दोनों एक ही हैं।
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चतुर्थ घोषणा#अयम् #आत्म #ब्रह्म’ यह चौथा कथन है। इसमें तीन शब्द हैं- अयम्, आत्म तथा ब्रह्म। परंतु वे तीन नहीं हैं। पहला वह जो आप स्वयं समझते हैं, एक वह जो और अन्य लोग आपको समझते हैं और एक वह जो वास्तव में तुम हो, जिससे अभिप्राय है शरीर, मन (चित्त) और आत्मा। हम अपने शरीर से काम करते हैं, मन से विचार करते हैं और इन दोनों की साक्षी रूप में हमारी आत्मा होती है। जागृत अवस्था में आप व्यक्तिगत रूप से पूरा विश्व होते हैं, स्वप्नावस्था में तेजस और निद्रावस्था में प्रज्ञा स्वरूप। प्रज्ञानाम ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म ही परम चेतना होती है। प्रज्ञान ही आत्मा होती है।
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ये वेद उद्घोषणायें महावाक्यों के रूप में –#उपनिषदों के अंतर्गत वर्णित हैं--जो -==उपनिषदों का निर्देश स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन == विचार समाये हुए है।
-----प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को #महावाक्य माना है – उपनिषदों में जो ये चार महत्वपूर्ण वाक्य हैं , जो आत्मा (स्वयं) और ब्रह्म के संबंधों पर आधारित हैं। इन्हें ही महावाक्य कहा जाता है। ये चारों वाक्य ब्रह्म के स्वरूप को अलग-अलग तरीके से पेश करते हैं। इनमें यह भी बताने की कोशिश की गई है कि ==आत्मा और ब्रह्म के बीच कोई अंतर नहीं ==है। इन चारों महावाक्यों की चर्चा वेदों की उत्पत्ति के क्रम में है।

-----प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद) प्रज्ञा रूप उपाधिवाला आत्मा ब्रह्म है...[ Consciousness is Brahman ]
-----अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हूँ " ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद) [ I am Brahman....]
-----तत्वमसि - "वह (ब्रह्म) तू ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ) तत्वमसि [तत त्वम असि] - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... जो जीव आप में है, वही मुझमें है। [You are That....]
------अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ही ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद ) यह सर्वानुभाव सिद्ध अपरोक्ष आत्मा ब्रह्म है...[This Self (Aatma) is Brahman...]
-----उपनिषदों में एक पांचवां महावाक्य है -- #सर्वं #खल्विदं #ब्रह्म् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है", यह समस्त संसार ब्रह्म ही है ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) यह उपरोक्त चार उद्घोषणाओं /महावाक्यों का सार रूप ही है |
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-----पहला महावाक्य ऋग्वेद के #ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है , जिसे ' #लक्षणा#वाक्य ' भी कहा गया है। इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है, क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य रूप में रखा गया है।
-----दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के #वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसमें यह जताने की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे ' #अनुभव #वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
------तीसरा महावाक्य सामवेद के #छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , आप भी ब्रह्म है , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे #उपदेश #वाक्य भी कहा जाता है। यह उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वह दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।
------चौथा महावाक्य #मुंडक उपनिषद से लिया गया है। ' अयामात्मा ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही ब्रह्म है। यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है, इसलिए इसे ' #अनुसंधान #वाक्य ' भी कहा जाता है।
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ब्रह्म का स्वरूप ---
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वेदांत में #सच को ' ब्रह्म ' के रूप में स्वीकार किया गया है। इस ब्रह्म के पास ही वह #माया नामक शक्ति है, जिसके कारण एक सत्य तक पहुंचने के कई रास्ते दिखते हैं।
-----जो कई रास्ते या ब्रह्म के कई रूप दिखते हैं , वह दरअसल माया नामक शक्ति का परिणाम है। ब्रह्म एक है और जो विभिन्नता दिखती है , वह ब्रह्म के ही अलग-अलग रूप हैं।
------हर रूप की अलग विशेषता हो सकती है , उनके नाम भी अलग-अलग हो सकते हैं, पर सार-तत्व एक ही है और मूल भी एक ही और सिर्फ एक ही है। हमारा रूप व नाम दूसरे से अलग हो सकता है और इस तरह अनंत लोगों का रूप सामने आ सकता है।
---------इस अद्वैत के सिद्धांत के मुख्य चार बिंदु हैं-
**ब्रह्म का अस्तित्व है ,
**ब्रह्म एक है ,
**आप ब्रह्म हैं और
** मैं भी ब्रह्म हूं।
--------इसमें ब्रह्म को भगवान या चैतन्य का भी नाम दिया जा सकता है।
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मोक्ष या मुक्ति का स्वरुप ------
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ब्रह्म की इस अनंतता को पहचानना और अद्वैत के रहस्य को समझना ही मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य है | पूर्ण मुक्ति या मोक्ष तक पहुंचने का यही एकमात्र मार्ग है।
-------आध्यात्मिक जीवन के तीन प्रमुख चरण माने जाते हैं -
**द्वैत,
**विशिष्टताद्वैत और
**अद्वैत।
----------हर व्यक्ति जीवन के इन तीन चरणों से होकर गुजरता है।
----#द्वैत रूपी प्रथम चरण में व्यक्ति और भगवान दोनों का अलग-अलग अस्तित्व रहता है।
-----#दूसरे चरण में व्यक्ति खुद का भगवान से तादाम्य अनुभव करने लगता है परन्तु दो अलग अलग अस्तित्व की उपस्थिति का आभास रहता है |
-----#अद्वैत रूपी अंतिम चरण में व्यक्ति को एक ईश्वर से एकत्व अर्थात ब्रह्म व आत्मा के एकत्व का आभास होता है। उसे यह ज्ञात होता है कि मेरा या तेरा जैसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं। ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं । यही वह महादशा होती है ---जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं----यही #मोक्ष है |

उपनिषदों में अन्य महावाक्य --
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चार महावाक्यों के अलावा उपनिषदों में कुछ अन्य महत्वपूर्ण महावाक्य भी हैं, इन्हें #उक्तियाँ व #महासूत्र भी कहा जा सकता है –
-----'#सर्वम् #खल्विदम #ब्रह्म ' यह सारा संसार ब्रह्म हैं। सब ब्रह्म में स्थित हैं सब में ब्रह्म उपस्थित है |
-----=='ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ' ==ब्रह्म ही सत्य है, जगत यानी यह दुनिया मिथ्या है, आभासी है माया के कारण विविध रूप दिखाई देते हैं ।
------==='वसुधैव कुटुंबकम' -====का अर्थ है, पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है। सभी धर्म में इस प्रकार की बात कही गई है। वसुधैव कुटुंबकम की धारणा हमें उस प्यार की शिक्षा देती है, जो हर जीव, हर आत्मा में विद्यमान है।
------==अतिथि देवो भव=== (अतिथि देवता समान होते हैं) को वही महत्व दिया गया है जो #मातृ देवो भव और #पितृ देवो भव को मिला है।
------==सत्यं शिवं सुन्दरम् ==--- ब्रह्म सत्य की व्याख्या करता है और इसकी प्राप्ति का मार्ग भी बतलाता है। इस उक्ति में जीवन के तीन पक्ष बताए गए हैं: सत्य, शिव और सुंदर। यहां शिव चेतना और सुंदर आंतरिक आह्लाद का प्रतीक है। इस उक्ति को दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है। इस उक्ति में मुख्य रूप से सत्य के महत्व को दर्शाया गया है। सत्य के मार्ग पर चल कर ही आप शिव और आंतरिक प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं, वही वास्तविक सौन्दर्य भी है| सत्य ही हमारे मस्तिष्क, भाषा और कृत्यों में एकरूपता या मेल स्थापित करता है। धर्म के तीन पक्ष भी सत्य, शिव और सुंदर ही हैं। यह भारतीय संस्कृति के प्रत्येक भाव, व्यवहार व कृतित्व का संतुलन व मूल तत्व है | जो सत्य होगा वही शिव भी होगा एवं वही सुन्दर भी | किसी भी तत्व, भाव व कृतित्व व व्यवहार में सुन्दर तत्व सबसे अंत में है ----अर्थात सत्य के बिना, कल्याणकारी रूप के बिना सौन्दर्य का कोई अर्थ नहीं |
------==सत्, चित्त और आनंद ==- यहां चित्त चेतना और आनंद सुंदर या आंतरिक प्रसन्नता का द्योतक है। ब्रह्म सच्चिदानंद है, अर्थात आत्मा भी सच्चिदानंद है, यदि वह सत्य में स्थित चित है तभी आनंद स्थिति में है, तभी ब्रह्म से तादाम्य में है |




 

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

श्याम स्मृति-३१ से ३५......डा श्याम गुप्त

                                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

श्याम स्मृति-३१. विशेषज्ञों का बदलता हुआ दायित्व व व्यवहार....
           आजकल विशेषज्ञों ,चिकित्सकों का कर्म व कृतित्व केवल ‘चिड़िया की आँख’ की भाँति रह गया है, अर्थात वे सिर्फ अपनी विशेषज्ञता से सम्बंधित विषय वस्तु व रोग पर ही ध्यान देते हैं, रोगी पर नहीं, शेष अपने सामान्य या घरेलू चिकित्सक पर छोड़ देते हैं | यह तथ्य शिक्षित वर्ग-समाज में भी भटकाव पैदा कर रहा है |
           पहले सामान्य प्रेक्टिशनर विशेषज्ञ के पास रोगी को संदर्भित करता था तो उसका अर्थ होता था कि अब रोगी विशेषज्ञ की निगरानी में रहेगा जब तक वह सम्पूर्ण रूप से ठीक होकर पुनः अपने चिकित्सक के पास सम्पूर्ण जानकारी एवं सुझावों के साथ वापस नहीं भेजा जाता | परन्तु आज विशेषज्ञ सिर्फ जिसके लिए उसके पास भेजा गया है रोग के उसी भाग को चिड़िया की आँख की भाँति देखकर सिर्फ यह कह कर भेज देते हैं कि शेष आपका चिकित्सक जाने, वही बताएगा| अतः इन दोनों के मध्य रोगी को अपने रोग, चिकित्सा, आदि के बारे में भटकाव रहता है |
        कल भी रोगी को भटकाव रहता था, अपने अज्ञान, अंग्रेज़ी भाषा के अज्ञान आदि के कारण | आज भी रोगी भटकाव में रहता है, क्योंकि चिकित्सा विषय महा-विशेषज्ञता का विषय है अतः पूर्ण रूप से शिक्षित व्यक्ति भी इस बारे में सामान्य मनुष्य ही होता है, पूरी फीस लेकर भी चिकित्सकों द्वारा पूरा समय व पूरी जानकारी न दिए जाने एवं भिन्न-भिन्न संस्थानों, चिकित्सकों के भिन्न-भिन्न तौर, तरीके, सुझाव्, इंटरनेट पर जानकारी एवं चिकित्सकों के बारे में राय, रिव्यूज़, अखबारों, पत्रिकाओं में दिए गए आलेखों, सुझावों आदि जिन्हें प्रायः चिकित्सक न मानने का परामर्श भी देते हैं, के कारण रोगी भटकाव में रहता है |
         अतः चिकित्सकों को यह दायित्व समझना होगा कि टीवी, इंटरनेट, पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों, मीडिया आदि में ऐसे आलेखों आदि का प्रकाशन न करें सिवाय चिकित्सा-जर्नल्स के | विशेषज्ञ चिकित्सक अपने रोग को चिड़िया की आँख की तरह देखने की बजाय सम्पूर्ण रोगी-रोग को देखें एवं रोगी व रोग से सम्बन्धित सारी उचित सूचनाएं व निर्देश स्वयं ही रोगी को दें, सामान्य चिकित्सकों पर न छोड़ें |
        अन्य सभी क्षेत्र के विशेषज्ञों के सन्दर्भ में भी यही तथ्य व कृतित्व उचित है|

श्याम स्मृति-३२.बलात्कार ..क्यूं....
          बलात्कार पर आधुनिका एवं महिला-पक्ष द्वारा प्रायः ये प्रश्न उठाये जाते हैं....
१.लड़कियों के कम कपड़ों पर बात करने वाले भूल जाते हैं कि फिर क्यूँ बलात्कार का शिकार होती हैं वे ज़रा सी बच्चियां जिन्होंने अभी चलना-फिरना, बातें करना सीखा ही है, या गरीब की बच्चियां/लड़कियां जिनके पास भड़काऊ कपडे हैं ही नहीं ?
२.क्या एक लड़की के अनुचित कपडे, अनुचित व्यवहार, अनुचित जगह पर जाने मात्र से ५ से ७ लोगों की हवस की भावना या वासना इस कदर उबल सकती है कि वे ऐसी घटना को अंजाम दे दें ?
३.इस अपराध का केवल और केवल एक ही कारण है ...'पुरुष की गन्दी सोच' |
        ये नारियां भूल जाती हैं कि किसी कंपनी का बॉस या कर्मचारी घर से त्रस्त होने पर भड़ास आफिस में निकालता है, आफिस की घर में | उसी प्रकार हर जगह पर अनावृत्त देह-दृष्टि से उत्पन्न व भड़की वासना अवश्य निकलेगी एवं वहीं निकलेगी जहां उसका वश चलता है, जो उसकी पहुँच में है, हर अर्ध-नग्न देहधारी पर सीधे सीधे नहीं |
         निश्चय ही लड़कियों / महिलायों के अनुचित कपडे, अनुचित व्यवहार व अनुचित जगह पर होने से हवस या भावना को उद्दीपन प्राप्त होता है एवं वे उबल सकती है और घटनाओं को अंजाम देती हैं | इसीलिये शास्त्र में प्रावधान है कि एकांत में पिता, पुत्र व भाई के साथ भी नहीं होना चाहिए |
        निश्चय भी अपराध का एक मात्र कारण पुरुष की गंदी सोच है परन्तु सोचना यह है कि पुरुष में यह गंदी सोच उत्पन्न कहाँ से हुई, क्यों हुई ? दृश्य, श्रव्य एवं आजकल पाठ्य साधनों से ही तो सोच बनती है | स्त्री के स्वयं के आचरण व संकार जो माता, बहन, सखी, शिक्षिका आदि के रूप में बालपन से ही पुरुष का आचरण व संस्कार-सोच का निर्माण करते थे वे सब कहाँ हैं | पिता, गुरु, शिक्षक, मित्र, अग्रज के रूप में जो ज्ञान-गुण संस्कार-सोच बालपन से ही स्वयं संस्कारवान पुरुष से, पुरुष में जाते थे वे कहाँ हैं? स्त्रियाँ समाज की मूल होती हैं, पुरुष नहीं |

श्याम स्मृति-३३. पंचजन--पंचजन्य ----
        शास्त्रों -पुराणों आदि में प्रायः पंचजन शब्द प्रयोग होता है; मेरे विचारानुसार इसका अर्थ है--पांच प्रकार के जन होते हैं---
१- जो पथप्रदर्शक एवं पथ बनाने वाले होते हैं -जो सोचने-विचारने वाले -नीति-नियम निर्धारक, ज्ञानवान, अनुभवजन्य ज्ञान के प्रसारक व उन पर स्वयं चलकर ( या न भी चलें-लोग उनका अनुकरण करते हैं )  सोदाहरण लोगों को चलने के लिए प्रेरित करने वाले होते हैं | महान जन, विचारक, आदि. "महाजना येन गतो स पन्था" " के महाजन, विचारक, क्रान्ति-दृष्टा, ऋषि-मुनि भाव, साधक लोग ।

२- जो महान जनों द्वारा निर्धारित पथ पर, विचारकर उत्तम पथ निर्धारण करके उस पर चलने वाले होते हैं, क्रियाशील व्यक्ति "महाजना येन गतो स पन्था " पर चलने वाले, क्रियाशील लोग, जीवन मार्ग के पथिक, उत्तम संसारी लोग । |
३- अनुसरण कर्ता ---पीछे पीछे चलने वाले -फोलोवर्स--जिन्हें पथ देखने व समझने, विचारने की आवश्यकता नहीं होती | जो क्रियाशील लोग करते हैं वही करने लगते हैं।
      ----दो अन्य प्रकार के व्यक्ति और होते हैं --
-विरोधी -- जो विचारकों, चलने वालों, स्थिर-स्थापित पथों का विरोध करते हैं । इनमें (अ)-जो सिर्फ विरोध के लिए विरोध करते हैं, विना सटीक तर्क या कुतर्क सहित - वे विज्ञ होते हुए भी समाज के लिए हानिकारक होते हैं, उन्हें यदि तर्क या साम, दाम, दंड, विभेद द्वारा राह पर लाया जाय तो उचित रहता है....(ब) -जो वास्तविक बिन्दुओं पर सतर्क विरोध करते हैं वे ज्ञानीजन--'निंदक नियरे राखिये, की भांति समाजोपयोगी होते हैं ।
- उदासीन - न्यूट्रल -- जो कोऊ नृप होय हमें का हानी, वाली मानसिकता वाले होते हैं; यही लोग समाज के लिए सर्वाधिक घातक, ढुलमुल नीति वाले, किसी भी पक्ष की तरफ लुढ़कने वाले, अविचारशील होते हैं, जिनके लिए प्रायः कठोर नियम, क़ानून बनाने व उन पर चलाने की आवश्यकता होती है।

श्याम स्मृति-३४.स्थिरता व गति और जीवन ...      
       सत्य काल निरपेक्ष है, धर्म भी सत्य का ही एक नाम है और ज्ञान भी सत्य का ही रूप है | अतः सत्य, धर्म व ज्ञान, काल निरपेक्ष हैं, यही शाश्वत है, स्थिर है | अन्य सब कुछ व जीवन भी काल सापेक्ष है, गतिशील है, परिवर्तनशील है....यही गति है |   
“ एक नियम है इस जीवन का,
  जीवन का कुछ नियम नहीं है |
  एक नियम जो सदा सर्वदा,
  स्थिर है, परिवर्तन ही है || “

श्याम स्मृति-३५.आभार व समन्वयात्मक प्रोत्साहन....
         परम पिता परमात्मा एवं माँ आदिशक्ति का तो हमें सदैव आभारी रहना ही चाहिए जिनकी परम-कृपा एवं क्रियात्मक मूल प्रेरणा के बिना कहीं कुछ नहीं घटता |                

       सामान्यतया हम उनको भी आभार प्रकट करते हैं जो किसी कृति की रचना में हमें परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहायक होते हैं| परन्तु किसी भी क्रिया व कर्म करने के निश्चय पर पहुँचने के लिए प्रायः दो मूल विचारधाराओं का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहता है | प्रथम आपके साथ समन्वयात्मक विचार वाले प्रोत्साहक जो अपने कृतित्व से आपके विचारों के महत्वपूर्ण प्रेरक हैं, जिन्हें आप सकारात्मक प्रेरक कह सकते हैं| और दूसरे जो और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं वे हैं आपके विचारों के निरोधात्मक विचार वाले निरुत्साहक एवं कभी कभी निंदक भाव वाले प्रोत्साहक जिन्हें नकारात्मक प्रेरक भी कहा जा सकता है| ये नकारात्मक प्रेरक आपके मन में उस कर्म-विशेष के प्रति एक दृड़ता का भाव उत्पन्न करते हैं| हमें दोनों का ही समान रूप से आभारी रहना चाहिए |


 

वृहत्साम --डा श्याम गुप्त

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

वृहत्साम ----- डा श्याम गुप्त 
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वेदों में प्रायः हम किसी यज्ञ, अनुष्ठान, कर्म-कांड व घटना या कथाक्रम के आदि या अंत में एक वाक्यांश बहुधा पढ़ते हैं---‘फिर उन्होंने वृहत्साम गाये…..’ जिसका अर्थ स्पष्टतः नहीं मिलता परन्तु निश्चय ही वे विशिष्ट गायन होंगे |

----- गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ---

वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्द्सामहम
मासानां मार्गशीर्षोsहमृतूनां कुसुमाकरः||१०/३५ विभूतियोग 

-----साम अर्थात गायन करने योग्य सामवेद की श्रुतियों में, मैं वृहत्साम और वैदिक छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ | बारह महीनों में मार्गशीर्ष ( दिसंबर-जनवरी के भाग ) और छः ऋतुओं में मैं वसंत हूँ |
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आरण्यक व ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ऋचाओं के आधार पर स्वर प्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस को स्वर-आलाप में व्यंजित करता हो, समत्व भाव को प्रदर्शित करता हो '#बृहत्साम' कहा जाता है। 

साम एवं वृहत्साम ----

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ऋग्वेद की जिन ऋचाओं को सामवेद में गाया जाता है? वे मनोहारी गीत हैं उन्हें #साम कहते हैं। इनका गायन एक विशिष्ट परम्परागत वैदिक पद्धति से किया जाता है जो अत्यंत मनोहारी होता है | गायन विशिष्ट पद्धति का होने के कारण अत्यन्त कठिन है? जिन्हें सीखने के लिए वर्षों तक गुरु के पास रहकर साधना करनी पड़ती है।
---- #साम अर्थात् सु-समन्वित स्वर, harmony, स्वरों की संगति से अभिव्यक्ति ‘साम’ या ‘राग’ का रूप ले लेती है। अतः ‘साम’ का अर्थ हुआ रागयुक्त अभिव्यक्ति अर्थात् गीत और काव्य। ‘साम’ का अर्थ ‘उद्गीथ’ अर्थात् ‘#गेयमन्त्र
---- वैदिक मन्त्रों से लेकर ललित निबन्ध तक सभी को साम-सम्पृक्त माना जा सकता है। सभी में कोई-न-कोई ‘साम’ प्रतिष्ठित है।
----- इसकी ही विस्तार-शक्ति (विराट या ‘ही’) और रूप-शक्ति (विराज या ‘श्री’) छान्दोग्य में वर्णित सारे सामों का ‘मूल साम’ रचती है। 

-----उनमें एक साम वह है? जिसमें इन्द्र की सर्वेश्वर के रूप में स्तुति की गई है? जिसे बृहत्साम कहते हैं? -----‘#वृहत्साम’ पद में महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘वृहत्’, जो इस ‘साम’ (संगीत) की विशिष्टता का बोध कराता है। यह विशेषण इस ‘साम’ को एक दिव्य परिवेश से जोड़ता है क्योंकि वृहत् यहाँ पर दिव्यता का वाचक है। ‘वृहत्’ का अर्थ परमात्मा और विश्वात्मा दोनों होता है। यह ‘विराट्’ का पर्यायवाची है अर्थात ==विराट के गान== ….
परम्परागत रूप से वृहत्साम संहिता के किसी विशेष भाग की संज्ञा न होकर सूर्य और विष्णु से जुड़े हुए मन्त्रों की एक गायन पद्धति का ही नाम है। सम्भवतः इसका प्रयोग यज्ञ के अनुष्ठान-कल्पों में और उनके बाहर भी प्रार्थना मूलक संगीत के रूप में होता था और आधुनिक कीर्तन-भजन आदि उसी प्रवृत्ति के विकसित रूप हैं।
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वृहत्साम व मुनि भारद्वाज ---
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ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है- 'यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफ़ा में गुप्त था, उसे जाना, परंतु भारद्वाज ऋषि ने द्युस्थान (स्वर्गलोक)-के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया'। यह बात भारद्वाज ऋषि की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों दर्शाती है। उन्होंने आत्मसात किया था 'बृहत्साम'।
सामवेद के #रथन्तर आदि विभिन्न सामों में #वृहत्साम ( बृहत् नामक साम )प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्ठ है जिसमें परमेश्वर की इंद्र रूप में स्तुति की गयी है| अतिरात्र याग में यही पृष्ठ-स्त्रोत (=मुख्य ) है | इसी कारण भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ वृहत्साम को अपना स्वरुप बताया है |
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तैत्तिरीय व ब्राह्मण-ग्रन्थ में वर्णित घटना इस प्रकार है- भारद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। दृढ़ इच्छा-शक्ति और कठोर तपस्या से इन्द्र को प्रसन्न किया। भारद्वाज ने प्रसन्न हुए इन्द्र से अध्ययन हेतु सौ वर्ष की आयु माँगी। भारद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये। अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर दुबारा इन्द्र ने फिर वर माँगने को कहा, तो भारद्वाज ने पुन: सौ वर्ष अध्ययन के लिये और माँगा। इन्द्र ने सौ वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भारद्वाज ने तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया।
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इसके बाद पुन: इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा-'हे भारद्वाज! यदि मैं तुम्हें सौ वर्ष और दे दूँ तो तुम उनसे क्या करोगे?' भारद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया, 'मैं वेदों का अध्ययन करूँगा।' इन्द्र ने तत्काल बालू के तीन पहाड़ खड़े कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी रेत हाथों में लेकर कहा---
------'भारद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा तीन सौ वर्षों का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के तीन सौ वर्षों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है।' 
------अत: मेरी बात पर ध्यान दो- 'अग्नि है सब विद्याओं का स्वरूप। अत: अग्नि को ही जानो। उसे जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वत: हो जायगा |
---- इसके बाद इन्द्र ने भारद्वाज को सावित्र्य-अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया। भारद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया'| इन्द्र द्वारा अग्नि-तत्त्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएँ कीं। यही रचनाएँ #वृहत्साम कहलाईं | 
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ऋषि भारद्वाज बृहत्साम-गायक थे। वे चार प्रमुख साम-गायकों, गौतम, वामदेव, भारद्वाज और कश्यप में गिने जाते हैं।
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संहिताओं में ऋषि भारद्वाज के इस 'बृहत्साम' की बड़ी महिमा बतायी गयी है। काठक-संहिता में तथा ऐतरेय-ब्राह्मण में कहा गया है कि 'इस बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज़ और वीर्य बढ़ता है। 'राजसूय यज्ञ' समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है। -----
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1. भारद्वाज कहते हैं अग्नि को देखो, यह मरणधर्मा मानवों में मौजूद अमर ज्योति है। यह अग्नि विश्वकृष्टि है अर्थात् सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कर्मों में प्रवीणतम ऋषि है, जो मानव में रहती है, उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिये। अत: पहचानो।
-----अर्थात स्वयं को आत्म को जानें स्वयं के अन्दर जो आत्मशक्ति, इच्छा शक्ति, दृड़ता, कर्मठता रूपी अग्नि है वही विश्वकृष्टि है वही प्रथम अग्नि है, उसे जानना चाहिए |
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2. मानवी अग्नि जागेगी। विश्वकृष्टि को जब प्रज्ज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि आप सच्चाई पर दृढ़ रहें।
----सत्य व दृढ़ता पर स्थिर रहने से अंतर की आत्मशक्ति प्रज्वलित होती है |
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3. ऋषि भारद्वाज कहते हैं- 'हम झुकें नहीं। हम सामर्थ्यवान के आगे भी न झुकें। दृढ़ व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकें। क्रूर-दुष्ट-हिंसक-दस्यु के आगे भी हमारा सिर झुके नहीं'।
---सत्य पर दृढ रहने से इतनी आत्मशक्ति प्राप्त होती है एवं आप किसी भी स्थिति में अन्याय के आगे न झुकने की शक्ति प्राप्त कर पाते हैं |
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4. ऋषि समझाते हैं कि जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिये कि सुनने वाले बुद्धिमान बनें। 
----सदैव ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित रहना चाहिए | इसके लिए उत्तम वाणी, सत्य वचन एवं सदेच्छा युत व्यवहार रहना चाहिए |
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5. हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे, युद्धों में संरक्षण दे, इच्छित धनों का प्राप्त कराये और हमारी बुद्धियों को निन्दित मार्ग से रोके।
-----विद्या व ज्ञान का उपयोग सदा समाज के सदुपयोग में होना चाहिए, आवश्यक श्री, वैभव, बल की प्राप्ति, दुष्टजनों के विरोध, अज्ञानता के निरोध हित होना चाहिए |
----- यह सामवेद के उत्तरार्चिक में अध्याय ३ ( ऋग्वेद- मण्डल१, अनुवाक १०, सूक्त ५२ ) के अंतर्गत है | इसके देवता इंद्र, दृष्टा ऋषि शयु बार्हस्पत्य हैं, अतिरात्र याग में यह एक पृष्ठस्त्रोत ( मूल) है | यहाँ वृहत्साम के मूल मन्त्र भावार्थ सहित प्रस्तुत हैं ----
त्वमिदधि हवामहे सातौ वाजस्य कारव: |
त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्त्वां काष्ठास्वर्वतः ||१||

---हे इंद्ररुप परमेश्वर ! हम स्तोता अन्नवृद्धि के लिए आपका ही आह्वान करते हैं | विवेकशील मनुष्य भी शत्रुओं की शत्रुता से आक्रान्त होने पर, जब सब प्रयत्न करके भी हारने लगते हैं तो आपको ही पुकारते हैं |
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया महस्तवानो अद्रिव: |
गामश्वं रथ्यमिन्द्र् सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ||२||

---हे अतुल पराक्रमी ! हाथ में विचित्र वज्र धारण करने वाले, स्वयं के तेज से प्रकाशित इंद्ररूप परमेश्वर! आप हमें गोधन, रथायोग्य कुशल अश्व, अन्न तथा ऐश्वर्य प्रदान करें |
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वृहत्साम -एक विश्लेषण ---
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आर्यों की मूल विचरण भूमि में जो सुमेरिया-बेबीलोन वंक्षु की घाटी से लेकर भारतीय सप्तसिन्धु तक विस्तृत थी, कोई सुपर्ण या तार्क्ष्य संज्ञावाली योद्धा और गोपालक जाति थी, जिसका इस गायन-पद्धति से विशेष सम्बन्ध था। इसीलिए कहा जाता है कि तार्क्ष्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन है। विष्णु जब तार्क्ष्य पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा काटते हुए उसके दोनों पंखों की ध्वनि ‘रथन्तर’ और ‘वृहत्’ सामों की अनुगूँज रचती चलती है।
------- ‘वृहत्साम’ गायन-पद्धति निश्चय ही एक रीति-मुक्त और विधि निषेधों से अन्य सामो की तुलना में एक मुक्त और एक विशेष रीति या भंगिमा पर आधारित व्यापक पद्धति रही होगी, अन्यथा, उसकी यह सुदूरव्यापी भूमिका सम्भव नहीं हो पाती। गीता में इसका उल्लेख एक व्यापकतर संकेत देता है।
------- ‘वृहत्’ विष्णु या सूर्य के साम को एक पृथक सत्ता देता है। यह वृहत्साम सूर्य का साम है और यह सबसे बड़ा साम है। सूर्य का मूल रूप है द्यु-मण्डल का ‘सविता’। यह सविता ही द्वितीय मण्डल अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य और सोम बनकर अवतीर्ण है तथा पार्थिव मण्डल में अग्नि बनकर। अतः सविता का क्रियात्मक ‘साम’ द्यु (स्वर) अन्तरिक्ष (भुवः) पृथ्वी (भू) तक व्याप्त है। इसी से इसके ‘साम’ को ‘वृहत्साम’ कहते हैं।
------- सविता ही सगुण ब्रह्म का प्रथम व्यक्त रूप है। उसी का एक विकास है ‘विष्णु’ संज्ञा वाला आदित्य। बाद में विष्णु का रूप विकसित होते- होते इतना व्यापक हो गया कि सोम, अग्नि, शक्ति का प्रतिनिधि आदि देवता बन गया। इस प्रकार सविता या आदित्य से जुड़ा ‘वृहत्साम’ विष्णु का भी ‘वृहत्साम’ बन गया।
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‘वृहत्साम’ एक प्रकार का मन्त्र गान है, जिसको विशेष ढंग से गाया जाता है। यह वैदिक साहित्य का कोई अंश नहीं परन्तु (वैदिक) गायन का ही प्रकार भेद।
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अतः ‘बृहत्’ का साम वह साम है जो सारे सामों का ‘मूल साम’ है, जो प्रथम सगुण ब्रह्म सहस्रशीर्षा ( ‘पुरुष’ सूक्त –ऋग्वेद -जो बाद में अनन्तशाही नारायण के रूप में कल्पित किये गये) का ‘साम’ है और यही ---------एक अन्य वैदिक परम्परा के अनुसार द्यु-मण्डल में उद्भूत प्रथम सगुण परमात्मा विग्रह सविता का ‘साम’ है। 
-------यही अन्तरिक्ष और धरती में आदित्य, साम और अग्नि के रूप में विभाजित होकर क्रिया विस्तार कर रहा है। अर्थात् सृष्टि-प्रसव और सृष्टि-विकास में अभिव्यक्त होती हुई भगवद्विभूति और लीला का ‘साम’ ही ‘वृहत्साम’ है।
------- भगवान की सारी अवतार कथाएँ एवं विभूतियोग को व्यक्त करनेवाला काव्य साहित्य और शिल्प उस ‘वृहत्साम’ की अभिव्यक्ति है।
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‘वृहद्’ शब्द सारी सृष्टि लीला और अवतार लीला के मध्य स्थित दिव्य तत्त्व (divinity) का वाचक है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष (भुव) और पृथ्वी (भू) के सारे देवमण्डल का मूल है ‘द्यु’ (स्वः) के सविता में, उसी तरह सारे देवताओं के सामों के मूल में है यह ‘सविता’ का या लोकप्रचलित शब्दावली में ‘सूर्य’ का वृहत्साम।
वृहत्साम का लोक व्यवहार रूप में अर्थ --
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‘वृहद्’ शब्द ‘समूह’ का भी वाचक है। बृहत्पति (बृहस्पति), प्रजापति; गणपति आदि परमात्मा वाचक शब्दों में वृहद्, प्रजा, गण आदि समानधर्मी शब्द हैं और इनका सरलार्थ ठहरता है जनसमूह या ‘लोक’। अतः ‘वृहत्साम’ का एक अर्थ ‘लोकसाम’ भी हुआ। वैसे भी ‘विश्व’ शब्द का अर्थ ‘विष्णु’ भी होता है। ‘ॐ’ प्रथम नाम है तो विश्व द्वितीय नाम। ‘विश्व’ अर्थात् ‘लोक’। इस प्रकार वृहत्साम की परिधि में लोक (समूह गण प्रजा वृहद) में प्रचलित तथा लोक द्वारा अभिव्यक्त समस्त दिव्य गीत परम्पराएँ तथा दिव्यकथा परम्पराएँ आ जाती हैं। 
-----यों सारा आदिम काव्य और आदिम संगीत ही व्यक्तिकृत नहीं, समूहकृत अर्थात् ‘अपौरुषेय’ माना जाता है। परन्तु यह ‘दिव्य’ भी हो सकता है और ‘अदिव्य’ (सेक्यूलर) भी। अदिव्य भाग वृहत्साम नहीं हो सकता। अतः दिव्य सविता का साम ही वृहत्साम है |
----- एक तथ्य यह भी है --‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ का जोड़े के रूप में प्रायः उल्लिखित होना।
-----विष्णु का वाहन सुपर्ण ‘साम’ का भी वाहन है और उसके दोनों पक्षों से क्रमशः ‘रथन्तर साम’ और ‘वृहत्साम’ की ध्वनि निकलती चलती है। ‘रथन्तर साम’ का सम्बन्ध कर्मकाण्ड प्रधान संस्कृत-परम्परा से है तो वृहत्साम का लोक-संस्कृति में व्याप्त लोक परम्परा से।
--------‘रथन्तर’ या ‘रथन्तरण’ राजमार्ग को पकड़ कर की गयी यात्रा का द्योतक है तो ‘वृहद्’ राजमार्ग से हटकर आरण्यक और ग्राम्य पगडण्डियों पर मुक्त पगविहार का।
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अर्थात भारतीय कला और संगीत में कालान्तर में जो दो भेद- मार्गी और देशी किये गये उनके मूल में यही ‘रथन्तर’ और ‘वृहद’ का ही भेद है। ‘मार्ग’ का अर्थ होता है अभिजात, संस्कार-शिक्षित और क्लासिक पद्धति तथा ‘देश’ का अर्थ होता है लोकाश्रयी मुक्त पद्धति ‘रथन्तरण’ शब्द ‘मार्ग’ का संकेत देता है और ‘वृहत्’ शब्द विस्तृत देश-भूमि का।
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अतः सुपर्ण के पंखों से उत्पन्न रथन्तर साम व वृहत्साम के जोड़े का यही अर्थ है कि भारतीय संस्कृति में जन जीवन, लोक व्यवहार, शास्त्रीय व शासकीय जीवन में विशिष्ट व लोक, शास्त्रीय व देशीय सदैव साथ साथ मान्य, प्रचलित व व्यहवरित हैं |