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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 2 जुलाई 2023

पुस्तक --डॉ.श्याम गुप्त की लघुकथाएं ----लघुकथा ६ से १० तक ---

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




 पुस्तक --डॉ.श्याम गुप्त की लघुकथाएं ----लघुकथा ६ से १० तक ---

 

६.चींटियाँ ...

     अरुणा जी अध्ययन कक्ष में प्रवेश करते हुए कहने लगीं, ‘आजकल न जाने क्यों चींटियाँ बहुत होगईं हैं| सारे घर में हर जगह झुण्ड में घूमती हुईं दिखाई देतीं हैं| पहले तो प्रायः मीठा फ़ैलने, छिटकने पर या मीठे के वर्तन, पैकेट, डब्बे आदि में ही दिखाई देतीं थीं परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि अब तो नमकीन पर,आटे में,दाल-चावल,रोटियाँ,घी-तेल सभी में होने लगी हैं| कैसा कलियुग है | ‘

     मैंने कहा सुनिए, ‘बचपन में मैंने एक चींटी नाम से कविता लिखी थी, वह यूं थी...

               नमकीन क्यों नहीं खातीं, क्या बात है ये हे चींटी |

और अभी कुछ महीने पहले यूं लिखा है....

               चींटी के बिल डालते आटा, मिलता नहीं राह में कोई |
      सुनकर वे हंसने लगीं, ‘बात को कहाँ खींच लेजाते हैं|’ फिर बोलीं,’बात तो सही है,’पहले जगह-जगह पुरुष,’नारियां,’वृद्धजन आदि प्रतिदिन चींटी के बिल में आटा,’कुत्ते-गाय को रोटी आदि देते हुए दिखाई देते थे,’अब तो नहीं दिखाई देते|’’अतः बेचारी क्या करें ’बुभुक्षतम किम न करोति पापं’जो कुछ भी जहां दिख जाता है एकत्र करने लग जाती हैं|’ जब मनुष्य स्वयं ही संग्रह में लिप्त है तो वे क्या करें| इस युग में जिसे देखो वही धन–संग्रह के साथ हर वस्तु के संग्रह में लगा है, चार गैस-सिलेंडर,पेट्रोल,मिट्टी का तेल,खाद्य-सामग्री,सब्जी-फल से भरा फ्रिज, जैसे कल ये सब समाप्त होने वाला है| तो कौन चींटियों को आटा डालने जाए|

 

७.अपन तुपन ...

     सुन्दर की माँ छत पर खुली रसोई में सुन्दर का प्रिय व्यंजन ‘आलू का परांठा’ बना रही थी क्योंकि अंदर गरमी थी और घरों में पंखे नहीं थे| सुन्दर परांठे को यूँही लपेट कर बिना सब्जी के खारहा था और माँ उसे थाली में रखकर अच्छे बच्चों की तरह सब्जी से खाने को कह रही थी, सरोज हांफते हुए दौड़ कर आई, बोली, ‘चलो सुन्दर अपन-तुपन खेलेंगे|’ 

    ‘चलो जाओ उन्हीं के साथ खेलो, सुन्दर तेजी से बोला, ’तुमने कुट्टी क्यों की, जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम बड़ी खराब हो|’

        सरोज आँखों में आंसू भर कर चुपचाप खड़ी रही |

        ‘क्या बात है सरू?’ सुन्दर की माँ पूछने लगी,’अरे तुम रो क्यों रही हो?’माँ ने कहा|

        ‘ये मेरे साथ खेलने नहीं जा रहा है|’

        ‘इसने मुझसे कुट्टी क्यों की|’ सुन्दर बोला |

   बुरी बात है,सुन्दर की माँ हंसकर बोली,एक दूसरे से मत लड़ा करो, अच्छे बच्चे नहीं लड़ते |

   देखा, शांती! ‘सुन्दर की माँ अपनी समीप बैठी पड़ोसन से कहने लगी; जो लगभग पंद्रहवीं बार अपने सबसे छोटे बच्चे,जिसने अभी-अभी चलना व बोलना सीखा था, के लडखडाकर चलने, तुतला कर बोलने जैसे कृत्यों का हर्षपूर्ण वर्णन कर रही थी जो उसकी सातवीं संतान थी; ‘कैसे सुनहरी की बहू कल लड़ रही थी बिना मतलब के| अरे ये बच्चे कभी आपस में एक दूसरे के साथ खेलने से रह सकते हैं| बच्चों की तरफदारी लेकर बड़ों का लडना-झगडना बेमानी है |’

    ‘सरू,लो इसे खाओ और दोस्त बन जाओ|,’ सुन्दर की माँ सरोज को आलू का परांठा देती हुई बोली| सरोज ने अपनी फ्राक की बांह से आंसुओं को पौंछा और सुन्दर को जीभ दिखाती हुई परांठा खाने लगी |

      ‘चलो अब पुच्ची करो और दोस्ती करलो’, सुन्दर की माँ बोली |

       दोनों ने अपने-अपने दायें हाथ की हथेली को चूमते हुए दो बार पुच्ची-पुच्ची कहा और एक दूसरे की गर्दन में बाहें डाले खेलने चल दिए |

५.

८. मी टू प्लस –

    ‘ बड़े गहरे सोच में हो यार, ‘मी टू’ पर विमर्श तो नहीं चल रहा|’

     हाँ,यार, श्री, सही कह रहे हो, ‘मैं सोचता हूँ मैं भी एक प्रेस-वक्तव्य दे ही दूं |’

     ‘क्या मतलब !’

     तुम्हें याद है पांच साल पहले तुमने पूछ था कि तुमने तो कंपनी हाल ही में ज्वाइन की है, बड़ी जल्दी प्रोमोशन मिल गया |

     हाँ, तो ?

    मैंने बताया था कि मालकिन मुझसे खुश हैं और मुझे अपने घर बुलाकर प्रोमोशन पत्र दिया था |

    ओह, श्रीकांत के मुख से अचानक निकला |

                    

       ९.मनोरंजन --

     जोशी जी ने बड़ा सुन्दर सिनेमा का गीत सुनाया | एक के बाद एक सदाबहार, सुन्दर सुन्दर गाने| कुछ महिलाओं, बहुओं,युवा बेटियों ने भी सिनेमा के गीत सुनाये |

     डॉ.श्रीनाथजी कहने लगे, ‘अरे, बहुओं, बेटियों के सामने क्या ये गाने हम लोगों को सुहाते हैं?

   ‘आप भी किस युग की बातें कर रहे हैं,’ जोशीजी बोले |

   इसी बीच चाय के लिए मध्यांतर होजाता है और चर्चा चलती रहती है|       

   हाँ, सच है, हम सब बस रंग जमाने में ही तो व्यस्त हैं|’ श्रीनाथ जी कहने लगे, स्वयं के भौतिक सुख हेतु. समाज, देश, राष्ट्र, मानवता यहाँ तक कि स्वयं के स्व के लिए भी जीने का कोई चिंतन नहीं है| बस केरियर व सुख जो व्यक्ति को जड़ व भोगवादी बना रहा है|

    ‘तो क्या हमें अपनी मर्जी से अपनी स्वयं की ज़िंदगी जीने का कोई अधिकार नहीं है|’

    ‘पर आप तो अपनी ज़िंदगी के रंग जी चुके’, श्रीनाथ जी बोले ‘अब आप आज के भौतिक सुख के श्रोतों का उपयोग नव पीढी के ज्ञान वर्धन हेतु करें न कि स्वयं सुख हेतु|  आपके उचित परामर्श के अभाव में आज की पीढ़ी के माता-पिता, अच्छे चेतना युक्त माँ-बाप नहीं बनते तो आपही उत्तरदायी माने जायेंगे|’

    ‘बच्चे मानते भी हैं आजकल आपकी बातें,’ खुराना जी बोले|

    'हाँ सच है', श्रीनाथ जी ने कहा,'परन्तु हमें तो उचित मंच, समय व इसी प्रकार के सामाजिक कार्यक्रमों में अपनी बात रखते ही जाना चाहिए न "रस्सी आवत जात ते सिल पर होत निशान " 

   

    ‘पर सभी तो आपकी भांति साहित्यिक, साँस्कृतिक व उच्च-अभिरुचि वाले नहीं हो सकते,’मि राय बोले |

     पर यहाँ तो सभी पढ़े-लिखे , उच्चपद से निवृत्त या आसीन विज्ञजन हैं| अभिरुचि तो उत्पन्न हो ही जायगी धीरे धीरे| हम प्रारम्भ तो करें कहीं से भी और वह भी अपनी पीढ़ी के हितार्थ तो करना ही चाहिए|

    मैं कुछ दोहे सुनाना चाहती हूँ,’ आनंद जी की बहू झिझकते हुए बोली |

    दोहे! कुछ युवा व कुछ अन्य के मुख से भोंहें सिकोडते हुए निकला|  

    ‘यह तो अच्छा है’, कुछ लोग बोले, सुनाओ बेटा, कुछ तो नया हो|’     

    लीजिए श्रीनाथ जी, आपकी बातों का प्रभाव शुरू भी होगया’, एक तरफ से कुछ आवाजें आईं|  

 

 

६.

१०.इलेक्शन और गांधीजी......

       वे जनरल इलेक्शन के दिन थे | सारे देश में नारों, सभाओं, गानों, भाषणों, पोस्टरों के युद्ध की धूम थी| यहाँ तक कि बच्चे भी इस सब में खूब धूम धाम से सम्मिलित थे| जश्न जैसा माहौल था |

     रामप्रकाश जब घर के बाहर खेलने निकला तो सभी बच्चे किसी न किसी का बिल्ला लगाए हुए आपस में बहस कर रहे थे| उसने जगदीश से, जो दो बैलों की जोड़ी’ का बिल्ला लगाये था,पूछा, ‘तुम ये क्यों लगाए हो?’

     ‘मैं गांधीजी को वोट दूंगा,’ जगदीश ने कहा| ‘ये उनका निशान है|’

     गांधीजी! रामप्रकाश ने  आश्चर्य से कहा,’ पर वे तो मर चुके हैं|’ मेरे पिताजी कह रहे थे, ये तो कांग्रेस का चुनाव चिन्ह है| ‘तो फिर ये नेहरू जी का निशान होगा,’ माया ने सुझाया |

    पता नहीं, जगदीश बोला, ‘मेरे पिताजी कहते हैं कि हमें गांधीजी को वोट देना चाहिए, उन्होंने देश को आजाद कराया|’ अचानक जगदीश चिल्लाया, ‘क्या तुम जनसंघी हो? क्योंकि वे ही गांधीजी व कांग्रेस को बुरा भला कहते रहते हैं|’ 

    अचानक सब चिल्ला पड़े, ‘जनसंघी है भंगी, गली गली में शोर है, दीपक वाला चोर है|’  कुछ अन्य बच्चे चिल्लाए ‘दीपक को देंगे वोट, कांग्रेस से लेंगे नोट| बैलों की जोड़ी भाग गयी|’

   ‘ पर मेरे पिताजी कहते हैं कि हमें जनसंघ को वोट देना चाहिए क्योंकि वही पार्टी हिंदुत्व को बचा सकती है’, रामप्रकाश बोला|

    जगदीश कहने लगा, ‘मेरे पिताजी ने बताया है कि जनसंघियों ने गांधीजी को मारा है|  गांधीजी के हत्यारे के साथ कोई मत खेलो,वह चिल्ला कर कहने लगा| ‘

   आंसू भर कर रामप्रकाश बोला, ‘पर मैंने तो उन्हें कभी देखा ही नहीं| हो सकता है किसी जनसंघ वाले ने मारा हो तो मैं क्या करूं|’

    बाद में जब रामप्रकाश ने अपने पिताजी से पूछा की गांधीजी को किसने मारा तो वे बोले, ‘नाथूराम गोडसे जो आरएसएस का आदमी था और गांधीजी का सेवक था पर वह उनकी हिन्दू विरोधी बातों को अच्छा नहीं मानता था| गांधीजी ने तो उसे माफ़ कर दिया था| ‘

    क्यों, रामप्रकाश ने आश्चर्य से पूछा |

    ‘ये महान लोगों की बातें हैं सोच हैं बेटा, गांधीजी ने गांधीजी की तरह सोचा और नाथूराम ने सामान्य देशभक्त की तरह अपनी तरह सोचा| परिस्थितयों के अनसार दोनों ही सही थे| वे सोच में डूब गए’ और रामप्रकाश आधा समझता हुआ आधा न समझता हुआ खेलने चल दिया 


क्रमश ---