....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्रुतियों
व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य-अंक-९....
आधुनिक विज्ञान के
तथ्य.....
( श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों
में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः
वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक
सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना
चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित
हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका
वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )
वैदिक , पौराणिक एवं उसके परवर्ती
साहित्य में आधुनिक विज्ञान के बहुत से तथ्य सूत्र रूप में मौजूद हैं, उनमें से कुछ को यहाँ रखा जारहा है....
१- जीवाणु (
बेक्टीरिया )--- महाभारत, शान्ति पर्व १५/२६
..में कथन है....
"सूक्ष्म्य योनानि भूतानि तर्कागम्यानि कानिचित |
पक्ष्मणो
इति निपातेन येषां स्यात स्कंधपर्यय ||"
-----अर्थात इस
जगत में ऐसे सूक्ष्म जंतु हैं जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता
परन्तु वे तर्कसिद्ध हैं| ये इतने हैं क़ि आँखों की पलक हिलाएं
उतने से ही उनका नाश होजाता है|
२- प्राणवायु
आक्सीजन --- ऋग्वेद १/३८/४६०
में मरुद्गण( वायु देव ) की स्तुति में कहा है---
"यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासिः सयाति | स्तोता यो अमृत स्यात ||"
---हे मरुद्गण! ( वायु देव)
आप यद्यपि मरणशील हैं परन्तु आपकी स्तुति करने वाला अमर हो जाता है |---- वायु ( आक्सीजन के रूप में ) यद्यपि मानव शरीर के अन्दर स्वांस रूप
में जाकर स्वयम मृत (कार्बन डाई आक्साइड बन कर अशुद्ध रूप ) हो जाती है परन्तु
व्यक्ति को जीवन देकर अमर कर जाती है |
३- मरुभूमि की
स्थानीय वर्षा --- ऋग्वेद ४/३८/४६९ में कथन है क़ि....
"सत्य्त्नेणां अभवंतो धन्वंचिद
रुद्रियामांण | मिंह क्रिन्वात्या वाताम ||"
---यह सत्य है क़ि रुद्रदेव के पुत्र मरुत
मरुभूमि में भी आवात ( वात रहित -वायु रहित )
स्थिति में भी वर्षा करते हैं | निम्न वायु दाब
द्वारा स्थानीय वर्षा का वर्णन है |
४- विद्युत् गर्जन
-नाइट्रोजन-चक्र -- ऋग्वेद १/३८/४६४ में कथन है .....
"वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता
सिषक्ति | यदेषां वृष्टि रसर्जि ||"
---जब मरुद्गन वर्षा की सृष्टि करते हैं तो विद्युत् रंभाने
वाली गाय की भांति शब्द करती है , और गाय द्वारा
बछड़े की भांति पृथ्वी का पोषण करती है | --- वायु द्वारा गतिशील मेघों के परस्पर घर्षण से उत्पन्न
विद्युत ( आकाशीय -तडित) तीब्र गर्जन करती है और भूमि को उर्वरक प्रदान करके( नाइट्रोजन चक्र द्वारा )
पोषण देती है |
५- जल चक्र --- ऋग्वेद १/१३४/१४८९ के अनुसार---ऋषि कहता
है---
"अजनयो मरुतो वक्षणाम्यो दिव आ वक्षणाभ्य: ||" ---इन्हीं अजन्मा हवाओं से नदियों समुद्रों
का जल ऊपर आकाश में जाता है और बरसकर पुनः नदियों में आता है |
६..प्रकाश के सात रन्ग.....ऋग्वेद १/४/५२५--- में सूर्य की उपासना करते हुए ऋषि कहता
है.....
"सप्त त्वा हरितो रथो वहन्ति देव सूर्यः | शोचिष्केशं विचक्षण: ||" ----हे सर्व दृष्टा सूर्यदेव ! आप तेजस्वी
ज्वालाओं से युक्त दिव्यता धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणों रूपी अश्वों के
रथ पर सुशोभित होते हैं |
७.ऊर्ज़ा के रूप व
उपयोगों का वर्णन-----
ऋग्वेद 1/66/723 के अनुसार -----
"य ई चिकेत गुहा भवन्तमा य: ससाद
धाराम्रतस्य।
वि ये
च्रितन्त्र्प्रत्या सपन्त आदिद्वसूनि प्र ववाचास्मै ॥"
-----जो गुह्य अग्निदेव
को जानते हैं, यज्ञ में उन्हें प्रज्वलित करते हैं और
धारण की स्तुति करते हैं, वे अपार धन प्राप्त करते हैं ।
----अर्थात.. जो विभिन्न पदार्थों में निहित
--रसायन, काष्ठ, कोयला, जल, अणु आदि में अन्तर्निहित छुपी हुई अग्नि=
शक्ति= ऊर्ज़ा को जानकर, उनसे ऊर्ज़ा-शक्ति प्राप्त करके उपयोग में
लाते हैं वे वे व्यक्ति, समाज, देश सम्पन्नता प्राप्त करते हैं। केमीकल, एटोमिक, हाइड्रो-स्टीम काष्ठ स्थित मूल अग्नि ऊर्ज़ा आदि का वर्णन है ।
८.अग्नि की खोज व
उपयोग-- ऋग्वेद 1/127/1432----का कथन है ---
" द्विता यवतिं कीस्तासो अभिद्य्वो वमस्पन्त ।
उद वोचतं भ्रिगवो मथ्नन्तो दाश्य भ्रगव
॥" ----भ्रगु वेष में उत्पन्न ऋषियों( विशिष्ट
ज्ञान प्राप्त ऋषियों) ने मन्थन( ज्ञान व क्रिया ) द्वारा अग्निदेव को प्रकट किया, स्त्रोत कर्ता ( पढ्ने-लिखने वाले विद्वान् ) स्रजनशील (
वैग्यानिक उपयोग कर्ता-खोजकर्ता), विनयशील( समाज
व्यक्ति के प्रति उत्तर्दायी) भ्रगुओं ने प्रार्थनायें
कीं ।
९.शब्द व वाणी
अविनाशी-ऋग्वेद
१/१६४/१२१६--कहता है
"तभूवुर्षा सहस्राक्षरा परमे
व्योमनि॥" ...
वाणी सहस्र अक्षरों से युक्त होकर व्यापक
आकाश अन्तरिक्ष में संव्याप्त होजाती है| ---------अर्थात शब्द, वाणी, ( व सभी ऊर्ज़ायें) कभी विनष्ट नहीं होतीं, वे अक्षर हैं, अविनाशी । इसीलिये आज वैज्ञानिक गीता के श्लोकों
को अनन्त आकाश में से रिकार्ड करने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
१०- वायु चक्र -- ऋग्वेद -३/२८/२६८८... के अनुसार ----
"मातरिश्वा यदमिमीते मातरि | वातस्या मर्गो अभ्वात्सरी माणि ||" -- एक स्थान पर वायुमंडल में उपस्थित अग्नि ( उच्च ताप ) वायु में तरंगें, लहरें उत्पन्न होने का कारण
हैं |
-----अर्थात स्थानीय ताप बढ़ने से निम्न वायु-दाब होने पर
वायु की तरंगें उठती हैं और अधिक वायु दाब वाले स्थान से उस स्थान की और वायु चलने
लगती है | इस प्रकार वायु चक्र बनने से
हवा बहती रहती है |
११.-गीत-संगीत से
पोधों में वृद्धि - ऋग्वेद ३/८/२२२९ -- में ऋषि कहता है --
"अन्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तो वनस्पते
मधुना देव्येन |
यदाध्वार्श्तिशठा द्रविणोह धत्तायद्वा क्षयो
मातुरस्य उपस्थे |"
--- ...हे वनस्पति देव ! देवत्व के अभिलाषी
ऋत्विक गण यज्ञ में आपको दिव्य मधु व गान ( यज्ञीय प्रयोग... गान.. इन्द्रगान
...सामगान...संगीत आदि
) से
सिंचित करते हैं | आप चाहे उन्नत अवस्था में
हों ( पौधा..वृक्ष रूप ) या पृथ्वी की गोद में ( बीज अवस्था में ) वृद्धि को प्राप्त हों, हमें एश्वर्य प्रदान करें |
इस सन्दर्भ का एक ऋग्वेदीय श्लोक ( १०/८८/९७७४-१३ ) देखिये.....
"वैश्वानरं कवयो याज्ञियासो sग्नि देवा अजन्यन्नजुर्यम ।
नक्षत्रं प्रत्नम मिनच्चरिष्णु
यक्षस्याध्याक्षम तविषम बृहन्तम""
---क्रान्तिदर्शी महान देव वैश्वानर सूर्य ने यज्ञार्थी देवों
की उपस्थिति में अजर वैश्वानर अग्नि (
महान शक्तिशाली ऊर्जा ) को प्रकट किया। जिस समय अग्निदेव विस्तृत व महिमामय होते हैं
उस समय वे अंतरिक्ष में प्राचीनकाल से विहार करने वाले नक्षत्रों को देवताओं के
सामने ही निष्प्रभावी बना देते हैं । अर्थात अति प्राचीन व निष्क्रिय नक्षत्र व
ग्रह ( अत्यधिक गर्म या शीत से अथवा समयानुसार अक्रिय होने पर) मूल ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं ।
क्या अपनी पृथ्वी का भी ग्लोबल-वार्मिंग से
यही हश्र होगा ?
१३.जीन उम्र व
संस्कार....
आज विज्ञान ने जीन की खोज की है कि
-जिसका जैसा जीन उसकी उतनी उम्र..परन्तु हम जाने कब से जानते है कि जिन खानदानों में पुरखे
जैसी (लम्बी या कम ) उम्र के होते हैं वैसे ही उनके पीढी के बच्चे |
----बचपन में हमारे ननिहाल मे कलुआ धोबी चचा कहा करता था कि ( हम शहर के
बच्चों को अक्सर वहुत सी बातों का गुरु ज्ञान देता रहता था ) बबुआ, जैसा बाप वैसा पूत, ये तो बाप-दादों के गुन बच्चों में आते ही
हैं संस्कार, मन व काया में समाये रहते हैं और बोलते
हैं |
---युगों पहले अथर्व वेद का ऋषि कह गया है—
" त्रिते देवा अमृजतै तदैवस्त्रित
एत्न्मनुश्येषु ममृजे |"
मनसा, वाचा, कर्मणा से किये गए
कार्यों को देव ( इन्द्रियाँ ) त्रित ( मन ,बुद्धि, अहंकार ) में रखतीं हैं | ये त्रित इन्हें मनुष्य की काया में
आरोपित करते हैं । तथा----
"द्वादशधा निहितं त्रितस्य
पापभ्रष्टं मनुष्येन सहि |"
त्रित -मन, बुद्धि, अहंकार -का कृतित्व बारह स्थानों में --- दश इन्द्रियाँ
(मन के) चिंतन व स्वभाव---संस्कार ( जेनेटिक करेक्टर ) में आरोपित
होता है; वही मनुष्य की काया में आरोपितहोता है व
प्रभावी होता है |
--- क्रमशा भाग -१० ( अंतिम क़िस्त )