जब मानव एकाकी था ,सिर्फ़ एक अकेला मानव शायद मनु या आदम ( मनुष्य,आदमी ,मैन) हाथ में एक हथौडानुमा हथियार लिए घूमता रहता था,एक अकेला । एक दिन अचानक घूमते-घूमते उसने एक अपने जैसे ही अन्य आकृति के जानवर ( व्यक्ति) को जाते हुए देखा। उसने छिप कर उसका पीछा किया। चलते -चलते वह आकृति एक गुफा के अन्दर चली गयी। उस मानव ने चुपके से गुफा के अन्दर प्रवेश किया तो देखा की एक उसके जैसा ही मानव बैठा फल आदि खा रहा है। उसकी आहात जानकर अचानक वह आकृति उठी और अपने हाथ के हथौदेनुमा हथियार को उठालिया। अपने जैसे ही आकृति को वह आश्चर्य से देख कर बोली-तुम कौन ? अचानक क्यों घुसे यहाँ ,अगर में हथौडा चलादेता तो ! पहला मानव चारों और देख कर बोला ,अच्छा तुम यहाँ रहते हो । मैं तुमसे अधिक बलशाली हूँ । मैं भी तुम्हें मार सकता था । यह स्थान भी अधिक सुरक्षित नहीं है। तुम्हारे पास फल भी कम हें ,इसीलिये तुम कम जोर हो . अच्छा अब हम मित्र हैं ,मैंतुम्हें अपनी गुफा दिखाता हूँ।
दूसरा मानव उसकी गुफा देख कर प्रभावित हुआ। प्रसंशापूर्ण निगाहों से देखा . पहले मानंव ने कहा तुम यहाँ ही क्यों न ही n आजाते , मिलकर फल एकत्रित करेंगे और भोजन करे गे . उस
ने ध्यान से देखा, उसका हथौडा भी बहुत बड़ा है,उसकी गुफा भी अधिक बड़ी है ,उसके पास फल आदि भी अधिक मात्रा में एकत्रित हैं , उसने उसकी बाहों की पेशियाँ छू कर देखी ,वो अधिक मांसल ,कठोर थीं ,उसका शरीर भी उससे अधिक बड़ा था। दूसरे मानव ने कुछ सोचा और वह अपने फल आदि उठाकर पहले मानव की गुफा में आगया।
और यह वही प्रथम दिन था जव नारी ( शायद -शतरूपा या कामायिनी की श्रद्धा ) ने स्वेक्षा से पुरूष के साथ सह जीवन स्वीकार किया। यह प्रथम परिवार था। यह सहजीवन था। कोई किसी के आधीन नहीं। नर-नारी स्वयं में स्वच्छंद थे ,जीने ,रहने ,किसी के भी साथ रहने आदि के लिए।अन्य जीवों,पशु-पक्षियों की तरह । ,यद्यपि सिंहों, हंसों आदि उच्च जातियों की भांति प्रायः जीवन पर्यंत एक साथी के साथ ही रहने की मूल प्रवृत्ति तब भी थी अब की तरह,(निम्न जातियाँ ,कुत्ते,बिल्ली आदि की भांति कभी भी किसी के भी साथ नहीं.) और यह युगों तक चलता रहा।
जब संतानोत्पत्ति हुई,यह देखा गया की दोनों साथियों के भोजन इकट्ठा कराने जाने पर अन्य जानवरों आदि की भांति ,उनके बच्चे भी असुरक्षित रह जाते हें। तो किसी एक को घर रहने की आवश्यकता हुई । फल इकट्ठा कराने वाली सभ्यता में शारीरिक बल अधिक महत्वपूर्ण होने से पुरूष ने बाहर का कार्य सम्भाला। क्योंकि नारी स्वभावतः अधिक तीक्ष्ण बुद्धि,सामयिक बुद्धि,व त्वरित निर्णय क्षमता में कुशल थी अतः वह घर का ,परिवार का प्रबंधन कराने लगी। यह नारी -सत्तात्मक समाज की स्थापना थी। पुरूष का कार्य सिर्फ़ भोजन एकत्रित करना ,सुरक्षा व श्रमिक कार्य था। यह भी सहजीवन की ही परिपाटी थी। स्त्री-पुरूष कोई किसी के बंधन में नहीं था,सब अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र थे। युगों तक यह प्रबंधन चलता रहा, आज भी कहीं कहीं दिखता है।
जब मानव कृषि आदि कार्यों से उन्नत हुआ । घुमक्कड़ ,घुमंतू समाज स्थिर हुआ ,भौतिक उन्नति,मकान,घर,कपडे,मुद्रा आदि का प्रचालन हुआ तो तो पुरूष व्यवशायिक कर्मों में अधिक समर्थ होने लगा ,स्त्री का दायरा घर रहा ,पुरूष के अधिकार बढ़ने लगे ,राजनीति ,धर्म,शास्त्र, आदि पर पुरुषों ने आवश्यक खोजें कीं ,अबंधित शारीरिक व यौन संबंधों के रोगों ,द्वंदों आदि रूप में विकार सम्मुख आने लगे तो नैतिक आचरण ,शुचिता,मर्यादाओं का बिकास हुआ। नारी -मर्यादा -बंधन प्रारंभ हुए। और समाज पुरूष-सत्तात्मक होगया। परन्तु सहजीवन अभी भी था। नारी मंत्री,सलाहकार,सहकार ,विदुषी के रूप में घर में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व थी। यस्तु नार्यस्तु पूज्यन्ते ..का भाव रहा। महाकाव्य काल तक यह व्यवस्था चलती रही।
पश्च पौराणिक काल में अत्यधिक भौतिक उन्नति,मानवों के नैतिकता से गिराने के कारण ,धन की महत्ता के कारण सामाजिक -चारित्रिक पतन हुआ ,महिलाओं को पुरूष अहम् द्वारा उनका अधिकार छीना गया ( मुख्यतया ,घर,ज़मीन ,जायदाद ही कारण थे ) और पुरूष नारी का मालिक बन बैठा। आगे की व्यवस्था सब देख ही रहे हैं। इस सब के साथ साथ प्रत्येक युग में-अनाचारी होते ही रहते हैं । हर युग में अच्छाई-बुराई का युद्ध चलता रहता है । तभी राम व कृष्ण जन्म लेते हैं। और ---यदा यदा धर्मस्य --का क्रम होता है। नैतिक लोग नारी का सदैव आदर करते हैं ,बुरे नहीं --अतः बात वही है कि समाज व सिस्टम नहीं ,व्यक्ति ही खराव होकर समाज को ख़राब व बदनाम करता है।
ब्लॉग आर्काइव
- ► 2013 (137)
- ► 2012 (183)
- ► 2011 (176)
- ► 2010 (176)
- ▼ 2009 (191)
डा श्याम गुप्त का ब्लोग...
- shyam gupta
- Lucknow, UP, India
- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
शुक्रवार, 15 मई 2009
अंतर्राष्ट्रीय फैमिली डे-
आप चाहे कुछ भी कहिये,मानिए ,गाइए ,चिल्लाइये पर युग सत्य यही है कि----
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें ,कहती रहे ये ज़िंदगी ,
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें ,सुनती रहे ये ज़िंदगी।
कुछ तुम झुको ,कुछ हम झुकें ,चलती रहे ये ज़िंदगी
बहकें जो साथ साथ तो , ढलती रहे ये ज़िंदगी ॥
और
कहानी हमारी तुम्हारी न होती ,
न ये गीत होते ,न संगीत होता।
सुमुखि ! तुम अगर जो हमारे न होते,
सजनि! जो अगर हम तुम्हारे न होते।
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें ,कहती रहे ये ज़िंदगी ,
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें ,सुनती रहे ये ज़िंदगी।
कुछ तुम झुको ,कुछ हम झुकें ,चलती रहे ये ज़िंदगी
बहकें जो साथ साथ तो , ढलती रहे ये ज़िंदगी ॥
और
कहानी हमारी तुम्हारी न होती ,
न ये गीत होते ,न संगीत होता।
सुमुखि ! तुम अगर जो हमारे न होते,
सजनि! जो अगर हम तुम्हारे न होते।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)