....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य --
सुमेरु व विन्द्याचल..
लगभग बीस
हजार वर्ष पूर्व जब हिमालय श्रेणी का विकास होगया उसे पार करना कठिन हुआ तो उन्नत
सभ्यता सहित भारतीय आर्य चारों ओर विश्व में प्रसार करने लगे और दक्षिण-भारत की और
उन्मुख हुए परन्तु विंध्यगिरि पर्वतमाला दुर्गम थी जिसको आर्यगण पार
करना चाहते थे |
श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय
शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में
वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के
मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को
याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही
करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित
हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें
व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक
पक्ष यहाँ क्रमिक रूप में प्रस्तुत किया जायगा....
सुमेरु व विन्द्याचल..
....... ऋग्वेद में वर्णन आता है कि..
‘इन्द्र
ने उड़ते हुए पर्वतों के पंखों को काटकर स्थिर कर दिया।‘
पृथ्वी अपने
विकास की प्रारंभिक अवस्था में बहुत गरम थी। उसका ऊपरी धरातल ठण्डा होता गया पर केन्द्र
में हलचलें चलती रहती थीं । विशाल चट्टानें भूगर्भ केन्द्र में हो रहे
परिवर्तन के कारण इधर-उधर खिसकती रहती थीं जिसके कारण पृथ्वी
की ऊपरी ठोस-द्रवीय सतह पर पर्वत विकसित व विलुप्त होते
रहते थे | उनकी ऊंचाई में परिवर्तन होते रहते थे ।
हिमालय
श्रृंखला के बनने से पूर्व आर्कटिक से दक्षिण-सागर तक समस्त सागरीय व
महाद्वीपीय-भाग, वृहद् भारतीय-भूभाग ही था, आर्यों का
निवास स्थान | सम्पूर्ण क्षेत्र सुमेरु नाम से जाना जाता था शायद
इसी को भारतीय शास्त्रों में जम्बू-द्वीप कहा गया है जिसके मध्य स्थित
पर्वत संसार का केंद्र व सुमेरु-पर्वत था यह विश्व का सबसे प्राचीन
क्षेत्र है यहीं इसके दक्षिण भूभाग में जो सदा ही पृथ्वी पर भूमि व सागरों-महाद्वीपों
की हलचलों से अप्रभावित रहा एवं प्रारम्भ से अंतिम स्थल-खंड गोंडवाना-लेंड
आदि के बनने व पुनः टूटने तक कभी भी पुनः सागर के अन्दर नहीं गया तथा प्राणी के
रहने एवं विकसित होने के हेतु सबसे उपयुक्त स्थान था जो तत्पश्चात हिमालय के उद्गम पर भारतीय-प्रायद्वीप
कहलाया, जहां मानव का जन्म हुआ|
उस काल के आर्यों का नायक इन्द्र
कहलाता था जो आवश्यकतानुसार अस्थिर पर्वतों-झीलों-भूमि आदि के नियमन (अभियांत्रिकी
कौशल एवं विविध युद्धों आदि अन्य तरीकों ) से आवागमन, आवास एवं सुरक्षा आदि की व्यवस्था
किया करता था। वेद.. इन्द्र की इन गाथाओं से भरे-पड़े हैं।
हिमालय-श्रेणी
का उद्गम प्रारम्भ होने पर उसके दक्षिण में स्थित समस्त क्षेत्र
( आज का अफ्रीका, मध्य-एशिया, भारत, चीन-जापान-पूर्वी
द्वीप-समूह आदि ) तीनों ओर स्थित सागर व उत्तर में उठते हुए हिमालय श्रृंखला से सुरक्षित
क्षेत्र- बृहद-भारत हुआ एवं श्रृंखला के उत्तर का भाग
आज के योरोप व आधुनिक रूस के साइबेरिया,–तिब्बत आदि समस्त भूमध्य सागर एवं हिमालय-पार के क्षेत्र बने | ( रूस में साइबेरिया की अल्टाई पर्वत-श्रंखला
से उत्तर में उसी के समीप 5 हजार फीट की ऊंचाई पर बेलूखा झील है। इसी के तट पर 14784 फीट ऊंचा बेलूखा
पर्वत है जिसे आज भी अल्टाई भाषा ( अतलाई या
इलावृतायी) में उच्च-सुमेर कहा जाता है। )
उस युग में पूरे क्षेत्र में आवागमन सरल था उत्तरी
ध्रुव प्रदेश भी हिम से ढका हुआ नहीं रह गया था था और हिमालय आज इतना
ऊंचा नहीं था। वह क्रमश: बढ़ रहा था, मध्य सागर ( टेथिस सागर ) इस
क्षेत्र से विलुप्त हो चुका था | पृथ्वी पर जीवन योग्य परिस्थितियों बढ़ने पर जीवन व जीव का तेजी से विकास इसी क्षेत्र में हुआ |
हिमालय के उद्भव के उपरांत इसका दक्षिणी भाग जो तदुपरांत भारतीय प्रायद्वीप बना | भौगोलिक रूप से पृथ्वी का सबसे सुरक्षित एवं जीवन योग्य स्थल होने के कारण यही स्थल मानव का प्रथम पालना बना जहां आदि-मानव अवतरित एवं विकसित हुआ, उन्नत हुआ मनु-पुत्र मानव बना |
पृथ्वी स्थिर हो चली थी तदन्तर हिमालय द्वारा उत्तरीय भाग से पृथक हुए भौगोलिक खतरों, जलवायु, हिमयुगों से अपेक्षाकृत सुरक्षित दक्षिण के भूभाग ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ में मानव स्थिर होना प्रारम्भ हुआ एवं आगे प्रगति-पथ पर आरूढ़ हुआ,..उन्नति के विभिन्न सोपानों को प्राप्त करता हुआ चतुर्दिक विश्व भर में फैलता एवं प्रगति का पथ दिखाता हुआ गतिमान होता रहा एवं वंश वृद्धि करता रहा|
इसी क्षेत्र में मानव कोटियाँ एवं आदि बोलियों / भाषाओं इत्यादि का विकास प्रारम्भ हुआ जिसका उन्नत रूप आदि-संस्कृत.....आर्यन-संस्कृत था जो समस्त विश्व, जम्बू-द्वीप की भाषा थी, जिससे मानव के विश्व में प्रसार के साथ-साथ समस्त विश्व की भाषाओं व संस्कृतियों का जन्म हुआ|
इस प्रकार मानव के उन्नततम रूप, संसार की सबसे उन्नत भाषा वैदिक-संस्कृत व संस्कृति का क्रमिक विकास भारत में हुआ और उन्नत मानव सारे विश्व में अपनी संस्कृति व ज्ञान एवं दिव्यता लेकर फैलता रहा विविध देशों व जीव-मानव की उन्नत कोटियों का सृजन करते हुए|..
देव अर्यमा, मित्र व वरुण- पृथ्वी... स्थल, जल व आकाश.....के संचालक हुए | विचार, सत्य, ज्ञान, न्याय व आचरण श्रेष्ठता के कारण मनु-पुत्र... पृथ्वी के मानव को पृथ्वी, पितरलोक व न्याय के देवता अर्यमा के नाम पर आर्य कहा जाने लगा जो तत्पश्चात श्रेष्ठ के अर्थों में प्रयोग लाया गया एवं अन्य सभी देवताओं व मानव से इतर एवं मानवीय श्रेष्ठता से च्युत जातियों को अनार्य कहा गया|
.
रूद्रशिव, ब्रह्मा, इंद्र, विष्णु व अन्य देवता आर्यों के आराध्य थे | केस्पियन-सागर क्षेत्र जीव-सृष्टि के सृष्टा महर्षि कश्यप एवं कैलाश क्षेत्र समस्त जीव-सृष्टि के ज्ञान-विज्ञान प्रदाता, कुशलतम योद्धा आदि महानायक भगवान शिव का निवास क्षेत्र बना |
हिमालय के उद्भव के उपरांत इसका दक्षिणी भाग जो तदुपरांत भारतीय प्रायद्वीप बना | भौगोलिक रूप से पृथ्वी का सबसे सुरक्षित एवं जीवन योग्य स्थल होने के कारण यही स्थल मानव का प्रथम पालना बना जहां आदि-मानव अवतरित एवं विकसित हुआ, उन्नत हुआ मनु-पुत्र मानव बना |
पृथ्वी स्थिर हो चली थी तदन्तर हिमालय द्वारा उत्तरीय भाग से पृथक हुए भौगोलिक खतरों, जलवायु, हिमयुगों से अपेक्षाकृत सुरक्षित दक्षिण के भूभाग ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ में मानव स्थिर होना प्रारम्भ हुआ एवं आगे प्रगति-पथ पर आरूढ़ हुआ,..उन्नति के विभिन्न सोपानों को प्राप्त करता हुआ चतुर्दिक विश्व भर में फैलता एवं प्रगति का पथ दिखाता हुआ गतिमान होता रहा एवं वंश वृद्धि करता रहा|
इसी क्षेत्र में मानव कोटियाँ एवं आदि बोलियों / भाषाओं इत्यादि का विकास प्रारम्भ हुआ जिसका उन्नत रूप आदि-संस्कृत.....आर्यन-संस्कृत था जो समस्त विश्व, जम्बू-द्वीप की भाषा थी, जिससे मानव के विश्व में प्रसार के साथ-साथ समस्त विश्व की भाषाओं व संस्कृतियों का जन्म हुआ|
इस प्रकार मानव के उन्नततम रूप, संसार की सबसे उन्नत भाषा वैदिक-संस्कृत व संस्कृति का क्रमिक विकास भारत में हुआ और उन्नत मानव सारे विश्व में अपनी संस्कृति व ज्ञान एवं दिव्यता लेकर फैलता रहा विविध देशों व जीव-मानव की उन्नत कोटियों का सृजन करते हुए|..
देव अर्यमा, मित्र व वरुण- पृथ्वी... स्थल, जल व आकाश.....के संचालक हुए | विचार, सत्य, ज्ञान, न्याय व आचरण श्रेष्ठता के कारण मनु-पुत्र... पृथ्वी के मानव को पृथ्वी, पितरलोक व न्याय के देवता अर्यमा के नाम पर आर्य कहा जाने लगा जो तत्पश्चात श्रेष्ठ के अर्थों में प्रयोग लाया गया एवं अन्य सभी देवताओं व मानव से इतर एवं मानवीय श्रेष्ठता से च्युत जातियों को अनार्य कहा गया|
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रूद्रशिव, ब्रह्मा, इंद्र, विष्णु व अन्य देवता आर्यों के आराध्य थे | केस्पियन-सागर क्षेत्र जीव-सृष्टि के सृष्टा महर्षि कश्यप एवं कैलाश क्षेत्र समस्त जीव-सृष्टि के ज्ञान-विज्ञान प्रदाता, कुशलतम योद्धा आदि महानायक भगवान शिव का निवास क्षेत्र बना |
( यूयं
विश्वं परि पाथ वरुणो मित्रो अर्यमा |
युष्माकंशर्मणि परिये सयाम सुप्रणीतयो.अति दविषः ||
युष्माकंशर्मणि परिये सयाम सुप्रणीतयो.अति दविषः ||
मेरुश्रृंगान्तरचर:
कमलाकरबान्धव:।
अर्यमा तु सदा
भूत्यै भूयस्यै प्रणतस्य मे।। )
विंध्यगिरि-
पौराणिक
कथ्य है कि---- अगस्त ऋषि से अनुरोध किया गया ...आप विन्ध्याचल की वृद्धि
रोकने की कृपा करें। वे अपनी पत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्यगिरि के पास पहुंचे
और और कहा..."हे विंध्य ! मैं दक्षिण जाना चाहता हूं, तुम मुझे मार्ग
दो। विंध्य ने सिर झुकाकर अभिवादन किया, अगस्त्य ने आशीर्वाद के साथ कहा जब तक मैं
लौटकर नहीं आता, उस समय तक तुम इसी प्रकार झुके ही रहो | विंध्यगिरि बिना ऊंचा उठे आज भी ऋषि
अगस्त और उनकी पत्नी के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहा है।
वस्तुतः ऋषि
अगस्त एक महान खोजकर्ता व वैज्ञानिक थे| विन्ध्याचल विश्व की
सबसे पुरानी
पर्वत श्रृंखला है इसीलिये दुर्गम भी, उनसे अनुरोध किया गया किइस क्षेत्र
में जनसंख्या की वृद्धि
के कारण दक्षिण के क्षेत्र को बसाने की व उन्नत करने की आवश्यकता है अतः आप
इस
दुर्गम श्रृंखला में सुगम मार्ग खोजें एवं पर्वत श्रंखला तथा उस पार के
क्षेत्र को प्रगति व उन्नति की मुख्य धारा में सम्मिलित करने का उपक्रम
करें | ऋषिवर ने यह कर दिखाया और वह स्वयं दक्षिण
में ही जाकर बस गए | आवागमन सुलभ होजाने के कारण विंध्यगिरी को अचल, रुका
हुआ व
झुका हुआ तथा 'विंध्याचल' कहा जाने लगा।