....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पुस्तक-समीक्षा------
समीक्ष्य कृति—-जिज्ञासा काव्य-संग्रह --- रचनाकार –श्री प्रेमशंकर शास्त्री ‘बेताव’ ..प्रकाशक—अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ ..प्रकाशन वर्ष—२०१७ ई....मूल्य -१५०/- समीक्षक---डा श्यामगुप्त
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श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी द्वारा रचित काव्य संग्रह ‘जिज्ञासा’ का अवगाहन करने का अवसर प्राप्त हुआ | हिन्दी के प्रवक्ता पद पर कार्यरत बेताब जी की हिन्दी साहित्य व काव्य में रूचि स्वाभाविक है | एक शिक्षक होने के नाते सामाजिक सरोकार, मानवीय आचरण एवं उपदेशात्मक भाव कृति में सर्वत्र समाहित हैं|
------आपके पिता व माताजी को समर्पित इस काव्यकृति में छप्पन विविध विषयक एवं विविध प्रकार के छंद युक्त रचनाओं से युक्त इस कृति में कलम, ग्राम-सुधार, मानव आचरण, भाग्य व ईश्वर, हिन्दी की प्रशस्ति, शिक्षक गरिमा, पर्यावरण, स्वच्छता जैसे सांसारिक व दार्शनिक विषयों के साथ साथ सामयिक सन्देश भी सौन्दर्यमयता से वर्णित हैं|
------अपनी बात में वे अपने कविकर्म का उद्देश्य व स्वदृष्टि प्रकट करते हैं ,”क्योंकि जो समाज में होरहा है, या होता है, उससे रचनाकार अछूता नहीं रह सकता |’...”इसप्रकार रचनाकार समाज का सजग प्रहरी है “
-------कविता का भाव अर्थ व मानव जीवन पर वृहद् प्रभाव पर अपनी दृष्टि बेताब जी प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं, ---
-’हमेशा दो दिलों को जोड़कर कविता दिखा देती ..”
----इतिहास साक्षी है की काव्य ने समय समय पर समाज व साम्राज्यों की संरचनाओं को प्रभावित किया है |
सरस्वती वन्दना में कवि माँ से मानवता के लिए प्रार्थना करता है-
‘ हम चलें नेक राहों पर, मन शुभ भावों से भरा रहे |’
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माँ की विविध नामों से एवं विविध देवों की वन्दना वही नवीन प्रयोग है जो मैंने अपने महाकाव्यों सृष्टि एवं प्रेमकाव्य में दस दस वन्दनाएँ प्रस्तुत करके किया था |
----साहित्यकार बोधक एवं लिखने हेतु विभिन्न विषयों का सांगोपांग समुचित वर्णन रचना ‘कलम की आवाज’ में दिया गया है भाग्य-चक्र में, ‘भाग्य से ही प्रभु वन पथ पर चले “ द्वारा भाग्य को कोसने की अपेक्षा कर्म पर विश्वास जताया गया है | नीति के दोहों में वैज्ञानिकता युक्त शास्त्र सम्मत विविध कर्मों व कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है |
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नारी की अस्मिता किसी भी राष्ट्र का ही पर्याय है | रचना ‘--
नारी का सम्मान करो,
मत भारत को बदनाम करो ‘ -----में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...’ का भाव ही ध्वनित है |
-----भारतीय सम्यक दृष्टि का वैश्विक भाव वर्णन वे इस प्रकार करते हैं--
‘वैसे तो हम समदृष्टा हैं
धर्म आदि का भेद भुलाकर रखते हैं| ‘------यह निश्चय ही ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र ---
..’समानी अकूती समानी हृदयानि वा,
समामस्तु वो यथा सुसहमति “ ----से तादाम्य करती है | शिक्षक गरिमा की बात शिक्षक लेखक कैसे भूल सकता है, कवि का कहना है कि,’ है गुरुतर भार यही हम पर, ज्ञान की ज्योति जलाने का ..’|
.-----बस मज़ा ही कुछ और है..’ शीर्षक विशेष है जिसमें प्रतिदिन के क्रियाकलापों का सुन्दर वर्णन है ..
”लम्बी लम्बी हांकने का, भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है ‘.....
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प्रकृति की आवाज़ ही कवि को रचना हेतु प्रेरणा देती है—‘
जबसे अलि को सुना गुनगुनाते हुए,
तबसे गाने की मुझसे लगन लग गयी ..’ |
------अपने इतिहास व अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटकर कोई भी राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता | देववाणी संस्कृति हमारी भाषा, संस्कृति व सामाजिक सभ्यता के प्रवाह की मूल सलिला है | कविवर बेताब आव्हान करते हैं—‘संस्कार की जननी है देववाणी,
इसका गौरव भी सबको बता दीजिये |’
-----------कृति की शीर्षक रचना ‘जिज्ञासा’ में कृति को माँ सरस्वती की अनुकम्पा घोषित करते हुए कविवर प्रेमशंकर बेताब जी अपने कृतित्व से संतुष्ट हैं, वे कहते हैं—“मुराद रही जो मन में मन भर, अब तो पूरी हुई सही |’..यह कवि का आशावाद है, स्वयं पर आत्मविश्वास |
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कृति की भाषा मूलतः सरल सामान्य बोलचाल की खड़ीबोली हिन्दी है, जो स्पष्ट भावसम्प्रेषण में समर्थ है | यथानुसार देशज, उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत के शब्द भी प्रयुक्त हैं| रचना ‘चक्कर स्वारथ का देखौ’...में अवधी का प्रयोग हुआ है | शैली सहज सरल प्रवाहयुक्त व अभिधात्मक है कथ्यशैली मूलतः उपदेशात्मक है, यथा विषयानुसार दार्शनिक व वर्णानात्मक भी है | रस, अलंकार भी आवश्यकतानुसार प्रयोग हुए हैं| सदाचार की अगम नदी में –रूपक, मोती सा चमकाती हूँ में उपमा एवं गेहूं घुन जस खाय, में उत्प्रेक्षा अलंकार की सुन्दरता है | अगर जरूरत पडी देश को, अपना लहू बहा देंगे में बीररस एवं भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है में मर्यादित श्रृंगार है |
--------सभी प्रकार के प्रचलित गीत बन्दों एवं दोहा, कुण्डली, घनाक्षरी, सोरठा, पद आदि छंदों का प्रयोग किया गया है –एक सुन्दर कला व भाव युक्त मनहरण कवित्त देखें—
भाव की, भाषा छंद की, प्रगाढ़ गाढ़ ज्ञान की ,
मधु मंद रव की पुकार भर दीजिये
रचना डाकिया में अतुकांत छंद का भी प्रयोग किया गया है ..’औरों की चिंता में डूबा,/ प्राणों से ज्यादा चिट्ठियों का ख्याल,/ यही है उसका हाल,/ आखिर वह कौन / डाकिया, डाकिया |
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इस प्रकार विषय, भाव व कलापक्ष के यथारूप सौन्दर्य से निमज्जित यह कलाकृति जिज्ञासा सुन्दर व सफल कृति है जिसके लिए श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी बधाई के पात्र हैं|
दिनांक-१९ जनवरी, २०१८ ई. डा श्यामगुप्त
सुश्यानिदी, के ३४८, आशियाना, एमबीबीएस, एमएस ( सर्जन )
लखनऊ-२२६०१२. हिन्दी साहित्यविभूषण, साहित्याचार्य...
मो. ९४१५१५६४६४
पुस्तक-समीक्षा------
समीक्ष्य कृति—-जिज्ञासा काव्य-संग्रह --- रचनाकार –श्री प्रेमशंकर शास्त्री ‘बेताव’ ..प्रकाशक—अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ ..प्रकाशन वर्ष—२०१७ ई....मूल्य -१५०/- समीक्षक---डा श्यामगुप्त
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श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी द्वारा रचित काव्य संग्रह ‘जिज्ञासा’ का अवगाहन करने का अवसर प्राप्त हुआ | हिन्दी के प्रवक्ता पद पर कार्यरत बेताब जी की हिन्दी साहित्य व काव्य में रूचि स्वाभाविक है | एक शिक्षक होने के नाते सामाजिक सरोकार, मानवीय आचरण एवं उपदेशात्मक भाव कृति में सर्वत्र समाहित हैं|
------आपके पिता व माताजी को समर्पित इस काव्यकृति में छप्पन विविध विषयक एवं विविध प्रकार के छंद युक्त रचनाओं से युक्त इस कृति में कलम, ग्राम-सुधार, मानव आचरण, भाग्य व ईश्वर, हिन्दी की प्रशस्ति, शिक्षक गरिमा, पर्यावरण, स्वच्छता जैसे सांसारिक व दार्शनिक विषयों के साथ साथ सामयिक सन्देश भी सौन्दर्यमयता से वर्णित हैं|
------अपनी बात में वे अपने कविकर्म का उद्देश्य व स्वदृष्टि प्रकट करते हैं ,”क्योंकि जो समाज में होरहा है, या होता है, उससे रचनाकार अछूता नहीं रह सकता |’...”इसप्रकार रचनाकार समाज का सजग प्रहरी है “
-------कविता का भाव अर्थ व मानव जीवन पर वृहद् प्रभाव पर अपनी दृष्टि बेताब जी प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं, ---
-’हमेशा दो दिलों को जोड़कर कविता दिखा देती ..”
----इतिहास साक्षी है की काव्य ने समय समय पर समाज व साम्राज्यों की संरचनाओं को प्रभावित किया है |
सरस्वती वन्दना में कवि माँ से मानवता के लिए प्रार्थना करता है-
‘ हम चलें नेक राहों पर, मन शुभ भावों से भरा रहे |’
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माँ की विविध नामों से एवं विविध देवों की वन्दना वही नवीन प्रयोग है जो मैंने अपने महाकाव्यों सृष्टि एवं प्रेमकाव्य में दस दस वन्दनाएँ प्रस्तुत करके किया था |
----साहित्यकार बोधक एवं लिखने हेतु विभिन्न विषयों का सांगोपांग समुचित वर्णन रचना ‘कलम की आवाज’ में दिया गया है भाग्य-चक्र में, ‘भाग्य से ही प्रभु वन पथ पर चले “ द्वारा भाग्य को कोसने की अपेक्षा कर्म पर विश्वास जताया गया है | नीति के दोहों में वैज्ञानिकता युक्त शास्त्र सम्मत विविध कर्मों व कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है |
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नारी की अस्मिता किसी भी राष्ट्र का ही पर्याय है | रचना ‘--
नारी का सम्मान करो,
मत भारत को बदनाम करो ‘ -----में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...’ का भाव ही ध्वनित है |
-----भारतीय सम्यक दृष्टि का वैश्विक भाव वर्णन वे इस प्रकार करते हैं--
‘वैसे तो हम समदृष्टा हैं
धर्म आदि का भेद भुलाकर रखते हैं| ‘------यह निश्चय ही ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र ---
..’समानी अकूती समानी हृदयानि वा,
समामस्तु वो यथा सुसहमति “ ----से तादाम्य करती है | शिक्षक गरिमा की बात शिक्षक लेखक कैसे भूल सकता है, कवि का कहना है कि,’ है गुरुतर भार यही हम पर, ज्ञान की ज्योति जलाने का ..’|
.-----बस मज़ा ही कुछ और है..’ शीर्षक विशेष है जिसमें प्रतिदिन के क्रियाकलापों का सुन्दर वर्णन है ..
”लम्बी लम्बी हांकने का, भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है ‘.....
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प्रकृति की आवाज़ ही कवि को रचना हेतु प्रेरणा देती है—‘
जबसे अलि को सुना गुनगुनाते हुए,
तबसे गाने की मुझसे लगन लग गयी ..’ |
------अपने इतिहास व अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटकर कोई भी राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता | देववाणी संस्कृति हमारी भाषा, संस्कृति व सामाजिक सभ्यता के प्रवाह की मूल सलिला है | कविवर बेताब आव्हान करते हैं—‘संस्कार की जननी है देववाणी,
इसका गौरव भी सबको बता दीजिये |’
-----------कृति की शीर्षक रचना ‘जिज्ञासा’ में कृति को माँ सरस्वती की अनुकम्पा घोषित करते हुए कविवर प्रेमशंकर बेताब जी अपने कृतित्व से संतुष्ट हैं, वे कहते हैं—“मुराद रही जो मन में मन भर, अब तो पूरी हुई सही |’..यह कवि का आशावाद है, स्वयं पर आत्मविश्वास |
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कृति की भाषा मूलतः सरल सामान्य बोलचाल की खड़ीबोली हिन्दी है, जो स्पष्ट भावसम्प्रेषण में समर्थ है | यथानुसार देशज, उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत के शब्द भी प्रयुक्त हैं| रचना ‘चक्कर स्वारथ का देखौ’...में अवधी का प्रयोग हुआ है | शैली सहज सरल प्रवाहयुक्त व अभिधात्मक है कथ्यशैली मूलतः उपदेशात्मक है, यथा विषयानुसार दार्शनिक व वर्णानात्मक भी है | रस, अलंकार भी आवश्यकतानुसार प्रयोग हुए हैं| सदाचार की अगम नदी में –रूपक, मोती सा चमकाती हूँ में उपमा एवं गेहूं घुन जस खाय, में उत्प्रेक्षा अलंकार की सुन्दरता है | अगर जरूरत पडी देश को, अपना लहू बहा देंगे में बीररस एवं भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है में मर्यादित श्रृंगार है |
--------सभी प्रकार के प्रचलित गीत बन्दों एवं दोहा, कुण्डली, घनाक्षरी, सोरठा, पद आदि छंदों का प्रयोग किया गया है –एक सुन्दर कला व भाव युक्त मनहरण कवित्त देखें—
भाव की, भाषा छंद की, प्रगाढ़ गाढ़ ज्ञान की ,
मधु मंद रव की पुकार भर दीजिये
रचना डाकिया में अतुकांत छंद का भी प्रयोग किया गया है ..’औरों की चिंता में डूबा,/ प्राणों से ज्यादा चिट्ठियों का ख्याल,/ यही है उसका हाल,/ आखिर वह कौन / डाकिया, डाकिया |
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इस प्रकार विषय, भाव व कलापक्ष के यथारूप सौन्दर्य से निमज्जित यह कलाकृति जिज्ञासा सुन्दर व सफल कृति है जिसके लिए श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी बधाई के पात्र हैं|
दिनांक-१९ जनवरी, २०१८ ई. डा श्यामगुप्त
सुश्यानिदी, के ३४८, आशियाना, एमबीबीएस, एमएस ( सर्जन )
लखनऊ-२२६०१२. हिन्दी साहित्यविभूषण, साहित्याचार्य...
मो. ९४१५१५६४६४