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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 6 मई 2010

साहित्य में आलोचना की अनुपस्थिति ----आलोचना/समालोचना/ त्रुटियाँ .....

एक समय था जब बड़े बड़े साहित्यकार व कवि एक साथ बैठकर एक दूसरे की कविता/रचना सुनते थे एवं समालोचनात्मक विचार विनियम , बहस करते थे |एक दूसरे की कविता में मौजूद कलापक्ष की, भाव पक्ष की, अर्थ -भाव , कथ्य व तथ्यात्मक त्रुटियों को इंगित करते थे, इससे साहित्य , कविता व कवि के ज्ञान, काव्य कला व स्वयं की त्रुटियों का ज्ञान होता था । आजकल कवि व साहित्यकार अपनी आलोचना ज़रा भी नहीं सुनना चाहते अपितु त्रुटि बताने वाले से अनुचित व्यवहार तक पर उतर आते हैं, मूलतः अधिकांस कवि तो कौन बुरा बने के अनुसार वाह वाह व ताली पीट कर्म व एक दूसरे की पीठ थपथपाने में रहते हैं , वे और उनकी त्रुटि व कविता जाय भाड़ में हमें क्या लेना-देना | अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की हवा में , एवं कवि सबकुछ लिख सकता है की गलत फहमी में वे अन्यान्य तथ्यात्मक त्रुटि किये जाते हैं , एवं तमाम व्यर्थ की त्रुटियों से पूर्ण रचनाएँ व कृतियाँ प्रकाशित होरही हैं। | यही कारण है कि आज कविता, न तो श्रेष्ठ ऊंचाई पर जा पा रही है न श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो पा रही है, न जन-जन तक नहीं पहुँच पा रही है। ये कवि प्राय: अधिकार व लाभ की स्थिति पर, सोर्स वाले होने से स्वयं को श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं एवं सुधार नहीं करना चाहते। उदाहरण के लिए एक कवि महोदय गरीबी का भावुक वर्णन करते हुए लिखते हैं---" पेट पीठ मिल एक होगये किन्तु हँसपाए "-- अब बताइये क्या भूख से बेहाल ,कंकाल होजाने पर हंसना चाहिए , जो वे न हँस पाए। पर वे नहीं मानेंगे क्योंकि तुक नहीं बैठेगी और सारी कविता ही बदलनी पड़ेगी क्योंकि यह कविता का मुखड़ा है।

चांद को दर्पण !!


एक कोई स्वयम्भू तथाकथित साहित्यकार है -राजेन्द्र यादव, जिनका कहना है( देखिये संलग्न चित्र-कथन)- कि कोई रासो, मतिराम , बिहारी को क्यों पढे--गालिव व मीर को ही साहित्य में पढाना चाहिये| डेढ सौ साल से पुराना साहित्य ताले में बन्द करदेना चाहिये। और तुलसी को अल्मारी में । ये लोग वास्तव में अपने मस्तिष्क को अल्मारी में बन्द रखकर आते हैं । क्या इन्हें पता नहीं कि गालिव की अधिकतर गज़लें कठिन फ़ारसी मिश्रित भाषा में हैं जिसे समझना टेडी खीर है, अधिकतर साहित्यकार उनके हिन्दी अनुवाद ही पढकर खुश हो लेते हैं।---वास्तव में तो एसे लोगों को डर है कि जब तक सूर-तुलसी जगमगाते रहेंगे इन जुगुनुओं ( साहित्य में सूर, तुलसी, केशव पहले ही सब स्थान घेरे हुए हैं), तिनकों , पत्तों को कौन पूछेगा।---पुरानी कविता है---: " सूर सूर तुलसी शशी, उडुगन केशव दास, अब के कवि खद्योत सम जहं तहं करहिं प्रकाश "---अबसोचिये वे कहां हैं आजकल इतने जुगनुओं में , इसी का डर है, तुलसी से। अब मेरी नई कविता सुनिये, आज ही बनी है-----
"एक ज़र्रा चलपडा है, चांद को दर्पण दिखाने,
कोई
जुगनूं चाहता है, सूर्य को ही चौंधियाने।
सूर
-तुलसी की वे तुलना, गालिवों से कर रहे,
मसखरे
वे कौतुकों को काव्य-कविता कहरहे॥"