....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त-----
\\
ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र .. ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |
एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||'
के प्रथम भाग ... ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |.... का काव्य-भावानुवाद ....
\
कुंजिका – कुर्वन्नेव =करता हुआ...इह = यहाँ ...कर्माणि =कर्मों को... जिजीविषेत=जीने की इच्छा करे....शतं समा:= सौ वर्षों तक |
\
मूलार्थ- यहाँ ( ईश्वर से प्रकाशित, अनुशंसित, आच्छादित जगत में ) कर्मों को करता हुआ ( मनुष्य) सौ वर्षों तक जीने की ( दीर्घायु होने की ) इच्छा करे| ताकि वह दीर्घ काल तक सत्कर्म करने का सुअवसर प्राप्त कर सके |
\
ईश्वर भाव व त्याग भाव से,
लालच लोभ रिक्त हो हे मन |
कर्म करे परमार्थ भाव से,
उसको ही कहते हैं जीवन |
\\
ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र .. ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |
एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||'
के प्रथम भाग ... ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |.... का काव्य-भावानुवाद ....
\
कुंजिका – कुर्वन्नेव =करता हुआ...इह = यहाँ ...कर्माणि =कर्मों को... जिजीविषेत=जीने की इच्छा करे....शतं समा:= सौ वर्षों तक |
\
मूलार्थ- यहाँ ( ईश्वर से प्रकाशित, अनुशंसित, आच्छादित जगत में ) कर्मों को करता हुआ ( मनुष्य) सौ वर्षों तक जीने की ( दीर्घायु होने की ) इच्छा करे| ताकि वह दीर्घ काल तक सत्कर्म करने का सुअवसर प्राप्त कर सके |
\
ईश्वर भाव व त्याग भाव से,
लालच लोभ रिक्त हो हे मन |
कर्म करे परमार्थ भाव से,
उसको ही कहते हैं जीवन |
क्या जीने की हक़ है उसको ,
जो न कर्म रत रहता प्राणी |
क्या नर जीवन देह धरे क्या ,
अपने हेतु जिए जो प्राणी |
सौ वर्षों तक जीने की तू,
इच्छा कर, पर कर्म किये जा |
कर्म बिना इक पल भी जीना ,
क्या जीना मत व्यर्थ जिए जा |
श्रम कर, आलस व्यसन त्यागकर ,
देह वासना मोह त्याग कर |
मनसा वाचा कर्म करे नर,
मानुष जन्म न व्यर्थ करे नर |
कर्मों से ही सदा भाग्य की,
रेखा बिगड़े या बन जाये |
शुभ कर्मों का लेखा हो तो,
रेखा स्वयं ही बनती जाए |
तेरे सदकर्मों की इच्छा,
ही है शत वर्षों का जीवन |
मानव सेवा युत इक पल भी,]
है शत शत वर्षों का जीवन ||
\\
---क्रमश--- द्वितीय मन्त्र के द्वितीय भाग का काव्य-भावानुवाद ....
जो न कर्म रत रहता प्राणी |
क्या नर जीवन देह धरे क्या ,
अपने हेतु जिए जो प्राणी |
सौ वर्षों तक जीने की तू,
इच्छा कर, पर कर्म किये जा |
कर्म बिना इक पल भी जीना ,
क्या जीना मत व्यर्थ जिए जा |
श्रम कर, आलस व्यसन त्यागकर ,
देह वासना मोह त्याग कर |
मनसा वाचा कर्म करे नर,
मानुष जन्म न व्यर्थ करे नर |
कर्मों से ही सदा भाग्य की,
रेखा बिगड़े या बन जाये |
शुभ कर्मों का लेखा हो तो,
रेखा स्वयं ही बनती जाए |
तेरे सदकर्मों की इच्छा,
ही है शत वर्षों का जीवन |
मानव सेवा युत इक पल भी,]
है शत शत वर्षों का जीवन ||
\\
---क्रमश--- द्वितीय मन्त्र के द्वितीय भाग का काव्य-भावानुवाद ....