....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ह्रदय के खोल अवगुन्ठन,
ह्रदय के खोल अवगुन्ठन,
छोड़ अंतस के गठबंधन |
तोड़ कर मौन की कारा,
मोड़ने समय की धारा |
चलें फिर नवल राहों पर,
बसायें प्रीति के बंधन ||
आज हर और छाई है,
धुंध कुंठा हताशा की |
हर तरफ छागया है इक,
निराशा का कुहासा ही |
तमस आतंक का फैला,
छागये अनाचारी घन |
आस्थाएं हुईं धूमिल,
नहीं सुरभित रहा सावन |
अगर अब भी न जागे तो,
बने विष-बिंदु चन्दन वन ||
मीत तुम आज फिर कोई,
सुहाना गीत इक गाओ |
आस्थाओं के, आशा के,
नीति-संगीत स्वर गाओ |
राष्ट्र गौरव के वे सुमधुर,
सुहाने सुखद सुरभित स्वर
जगे सोई धरा संस्कृति ,
जगें सोये हुए तन मन |
अनय के नाग को नथने,
हो फण फण पर पुनः नर्तन ||