....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
प्रेम -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है |
--शिशिर में मन का एक विहंगम भाव-----
शिशिर
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ |
खत रूपी इक शुष्क पात ही, आशा, क्षमा रूप मिल जाए |
पाती पढ़ बेचैन होगये,झर झर झर निर्झर नैन होगये |
अहं भाव तो मुझ में ही था,शायद समय चक्र यह ही था |
तेरी याद पुरानी हे प्रिय! मन में अभी सहेज रहा हूँ ||
शुष्क पात जब एक टूटकर, गिरा सामने, यह सच पाया |
देखी अपनी जीवन छाया, मैं समझा तब पतझड़ आया ||
तेरे बासंती तन मन से, मैं क्यों इतना दूर होगया |
समझ न पाया क्यों तेरा मन, अहंकार में चूर होगया ||
तेरी नेक वफाओं को मैं, अब तक कहाँ भुला पाया हूँ |
तेरे पावन मन की बातें, मन से कहाँ मिटा पाया हूँ ||
तेरी बातें सच का सपना, मैं भूलों की भंवर पड़ा था |
अपनेपन में मस्त रहा मैं,पुरुष अहं में जकड खडा था ||
सूखे हुए गुलाब रखे जो , पन्नों बीच, सहेज रहा हूँ |
मैंने ही भूलें की होंगी , स्वीकृति पाती भेज रहा हूँ ||
तुमने भी यदि रखे सहेजे, कुछ सूखे गुलाव पुस्तक में |
तुमको जो कुछ सत्य सा लगे,मेरी इस स्वीकृति दस्तक में|
खत रूपी इक शुष्क पात ही, आशा, क्षमा रूप मिल जाए |
अपने जीवन के पतझड़ में , शायद फिर बसंत मुस्काए ||
पाती पढ़ बेचैन होगये,झर झर झर निर्झर नैन होगये |
मैंने क्यों न पुकारा तुमको,क्यों मेरे सुख चैन खोगये ||
अहं भाव तो मुझ में ही था,शायद समय चक्र यह ही था |
सोचा ही क्यों ऐसा हमने , कौन गलत था कौन सही था !
सही गलत अनुबंध शर्त सब, भला प्यार में कब होती हैं |
मेरे गीत नहीं अब बनते, आँखें झर झर झर रोती हैं ||
क्षमा मुझे अब तुम ही करदो, स्वीकृति पाती भेज रही हूँ |
आशा रूपी नूतन किसलय, पत्र सजाकर भेज रही हूँ ||