बह रही है नदिया, अब-
धीरे धीरे धीरे,
सहमी-सहमी, सूखी-सूखी सी-
रूठी-रूठी सी;
किसी सपोले की भांति रेंगती हुई,
नाले की तरह ।
कहां गई वो अजस्र-प्रवाह नीर-धारा,
सहस्फ़ण की भांति फ़ुफ़कारती हुई,
अज़गर की भांति विशाल;
बाढ के द्रश्य और जल प्लावन;
होते थे तैराकी के मेले ॥
२.
कम सन्साधन,
अधिक दोहन;
न नदिया में जल,
न बाग-बगीचों के नगर।
न कोकिल की कूक,न मयूर की नृत्य -सुषमा;
कहीं अना बृष्टि , कहीं अति बृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति -सुन्दरी का यौवन॥