....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
 चित्र-1  - मातृसत्ता-(हरप्पा )  - पुरुष (शिव-पशुपति) स्त्री सत्ता ( देवी या पार्वती )की अर्चना करते  हुए..व  सहायिका के रूप में सप्त मातृकाएं........
चित्र-1  - मातृसत्ता-(हरप्पा )  - पुरुष (शिव-पशुपति) स्त्री सत्ता ( देवी या पार्वती )की अर्चना करते  हुए..व  सहायिका के रूप में सप्त मातृकाएं........-------इस प्रकार स्त्री ने संतति हित व अपनी अन्य मूल प्रकृतिगत विशेषताओं के कारण घर पर रहना स्वीकार किया और सारी व्यवस्था-प्रबंधन व अन्तः सुरक्षा भार नारी पर व आर्थिक भरण-पोषण, वाह्य प्रबंधन , शत्रु से सुरक्षा व युद्ध आदि का मूल दायित्व पुरुष पर रहा , और स्त्री -प्रबंधन समाज की स्थापना हुई | यद्यपि आवश्यकता पड़ने पर व आवश्यक मसलों पर शत्रु से युद्ध, युद्ध प्रवंधन, सुरक्षा व परामर्श व भरण-पोषण के लिए
 आवश्यक कार्यों में स्त्री , पुरुषों का साथ  देती थी | वस्तुतः यह समन्वयात्मक -प्रवंधन समाज व्यवस्था थी व सह जीवन ही था | यही व्यवस्था आगे चलकर  बनी मातृसत्तात्मक परिवार व पितृ सत्तात्मक परिवार  का प्रतीक थी  |
 आवश्यक कार्यों में स्त्री , पुरुषों का साथ  देती थी | वस्तुतः यह समन्वयात्मक -प्रवंधन समाज व्यवस्था थी व सह जीवन ही था | यही व्यवस्था आगे चलकर  बनी मातृसत्तात्मक परिवार व पितृ सत्तात्मक परिवार  का प्रतीक थी  |चित्र-२........महाकाली रूप
-------ज्ञान - विज्ञान की उन्नति हुई, स्त्री-पुरुष द्वंद्व बढे, जनसंख्या के दबाव , बल व  मस्तिष्क  के उपयोग , युद्धों ,आर्थिक व सामाजिक दबाव व द्वंद्व  व युगों की  संतति-मोह, प्रेम व गर्भावस्था  में अक्रियता के कारण पुरुष नारी का  सुरक्षा-भाव बनने लगा | मानव स्थिर होने लगा, कबीले, वर्ग, कुटुंब, बनने लगे  | युगों के जीवन प्रभाव वश नारी में मूलतः ..सौम्यता,प्रेम, त्याग, लज्जा, कला, संस्कृति के उपयोग व रक्षण के भाव मूल भाव उत्पन्न  होने लगे व पु
मस्तिष्क  के उपयोग , युद्धों ,आर्थिक व सामाजिक दबाव व द्वंद्व  व युगों की  संतति-मोह, प्रेम व गर्भावस्था  में अक्रियता के कारण पुरुष नारी का  सुरक्षा-भाव बनने लगा | मानव स्थिर होने लगा, कबीले, वर्ग, कुटुंब, बनने लगे  | युगों के जीवन प्रभाव वश नारी में मूलतः ..सौम्यता,प्रेम, त्याग, लज्जा, कला, संस्कृति के उपयोग व रक्षण के भाव मूल भाव उत्पन्न  होने लगे व पु रुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि
रुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने  लगा |
 के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने  लगा |
--- चित्र-३- लिंग -योनि पूजा ( हरप्पा)--- व आदि शिव ...पशुपति समाधिस्थ......
इस कारण जहां परिवाद बाद की स्थापना व बाद में काल-क्रमानुसार -विवाह संस्था के साथ देव-देवी युग्म व उनकी पूजा -अर्चना का आविर्भाव हुआ वहीं नेतृत्त्व - क्षमता के कारण -पुरुष में प्रधान ,मुखिया ..राजा , देवता व किसी सर्व-शक्तिमान सत्ता की कल्पना का आविर्भाव हुआ और आदि-मातृका के स्थान पर पुरुष- ईश्वर, ब्रह्म की कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया, प्रकृति आदि- नारी भाव  ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | क
 कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया, प्रकृति आदि- नारी भाव  ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | क बीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव व ..लिंग-योनि पूजा ,  अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव  एवं पशुपति  , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि  विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न  उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में  | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना  से मिलता है  |
बीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव व ..लिंग-योनि पूजा ,  अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव  एवं पशुपति  , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि  विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न  उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में  | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना  से मिलता है  |
 रुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि
रुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने  लगा |
 के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने  लगा |--- चित्र-३- लिंग -योनि पूजा ( हरप्पा)--- व आदि शिव ...पशुपति समाधिस्थ......
इस कारण जहां परिवाद बाद की स्थापना व बाद में काल-क्रमानुसार -विवाह संस्था के साथ देव-देवी युग्म व उनकी पूजा -अर्चना का आविर्भाव हुआ वहीं नेतृत्त्व - क्षमता के कारण -पुरुष में प्रधान ,मुखिया ..राजा , देवता व किसी सर्व-शक्तिमान सत्ता की कल्पना का आविर्भाव हुआ और आदि-मातृका के स्थान पर पुरुष- ईश्वर, ब्रह्म की
 कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया, प्रकृति आदि- नारी भाव  ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | क
 कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया, प्रकृति आदि- नारी भाव  ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | क बीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव व ..लिंग-योनि पूजा ,  अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव  एवं पशुपति  , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि  विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न  उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में  | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना  से मिलता है  |
बीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव व ..लिंग-योनि पूजा ,  अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव  एवं पशुपति  , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि  विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न  उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में  | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना  से मिलता है  |-------नारी इस व्यवस्था  में भी  आधीन नहीं थी, आदरणीय व  सलाहकार के रूप में पूज्य थी  , स्त्री के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकती थी | कोई भी  अनुष्ठान...धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक ---स्त्री परामर्श व उपस्थिति के  बिना नहीं हो सकता था.... शायद मानव इतिहास के इसी  काल-क्रम  में विभिन्न  ज्ञान, विज्ञान, धर्म,  दर्शन, व कला , अभियांत्रिकी, मानवता,व्यवहार,  स्त्री-शिक्षा  आदि की  सर्वाधिक उन्नति हुई  व मानव उन्नति के नए नए द्वार  खुले   " यस्तु नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता "   के मूल मन्त्रों की स्थापना इसी समय होने लगी थी |  ऋग्वेद १०/१५/१०४२०/२ में ऋषिका शची पोलोमी  का कथन है ..."अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचानी | ममेदनु क्रत  पति: सेहनाया उपाचरेत ||.......अर्थात  मैं ध्वज स्वरुप ( परिवार की गृह स्वामिनी ) तीब्र बुद्धिवाली व प्रत्येक  विवेचना  में समर्थ हूँ |  मेरे पतिदेव सदैव मेरे कार्यों का अनुमोदन  करते  हैं  | तथा  "अहं बदामि नेत त्वं, सभामानह  त्वं वद:| मेयेदस्तम्ब केवलो नान्यासि  कीर्तियाश्चन ||"  अर्थात ..हे स्वामी ! सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी | उसे सुनकर आप अनुमोदन करें |.....  विवाह संस्था कोई कठोर व बंधन नहीं थी, स्त्रियाँ अपने क्रिया-कलापों में  स्वतंत्र थी एवं इच्छा से किसी भी पुरुष अथवा  जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र  थीं |
-----------वास्तव में ये दोनों ही व्यवस्थाएं स्थान, काल, देश के अनुसार युगों युगों तक  साथ साथ ही चलती रहीं | आदि-  मानव के उन्नत होकर मानव बनने , घुमंतू से स्थिर होने, कबीले, वर्ग,  ग्राम व्यवस्था  व श्रम विभाजन की विभिन्न कोटियों के उत्पन्न होने तक,  जिनके मूल प्रभाव का पता अभी तक उपस्थित मातृसत्तात्मक -परिवार (यथा द.भारत  ) व पितृसत्तात्मक परिवारों (यथा उत्तर  भारत )  की उपस्थिति से  चलता  है |   मूलतः पृथ्वी के भूखंडों के बनते -बिगड़ते रहने से, नए-नए देशों व  आश्रय -स्थलों के परिवर्तन होते रहने से, जन संख्या के निरंतर दवाब के  कारण मानव कुल, समूह, वर्ग लगातार अन्य स्थलों को पलायन करते रहे |  उत्तर  भारतीय भूखंड, जीवन के लिए   सर्वाधिक  उपयुक्त होने से यहाँ मानव की उत्पत्ति हुई एवं यहाँ से विश्व के  अन्य उत्तरी, पश्चिमी, पूर्वी  भागों की ओर पलायन के साथ अपने समयानुकूल  समाज-व्यवस्था को भी साथ लेजाते रहे | मूल स्थान उत्तर भारत में जन संख्या व  ज्ञान के प्रसार के साथ नयी व्यवस्थाएं आती रहीं |  इसी प्रकार दक्षिण  भारतीय भूखंडों के सम्मिलित होने पर हिमालय आदि  श्रृंखलाएं बनी व मानव ने  विन्ध्य श्रृंखला पार करके दक्षिण  की ओर पलायन किया अपने तत्कालीन सामाजिक  व्यवस्था के साथ |  इसीलिये हम देखते हैं कि उत्तर-भारत, अरब देशों, अफ्रीकी देशों आदि में पुरुष प्रधान व्यवस्था उत्पन्न होती गयी   जबकि दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, योरोप, चीन, अमेरिका , लेटिन अमेरिका आदि  देशों में स्त्री सत्ता अधिक प्रभावी रही व आज भी परिलक्षित  है |  यद्यपि  धीरे धीरे यह  पुरुष प्रवंधित समाज में बदलती गयी |
----सभी चित्र ..साभार ...
----सभी चित्र ..साभार ...
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
