. ...कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
वो कृष्ना है.....
वो गाय चराता है, गोमृत दुहता है...दधि
खाता है...उसे माखन बहुत सुहाता है ...वह गोपाल है.....गोविन्द है.....वो कृष्ना
है .......
-------गौ अर्थात गाय, ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रियां, धरतीमाता
....अतः वह बुद्धि, ज्ञान , इन्द्रियों
का, समस्त धरती का (कृषक ) पालक है –गोपाल, वह गौ को प्रसन्नता देता है (विन्दते) गोविन्द है
..... दधि...अर्थात स्थिर बुद्धि, प्रज्ञा ...को
पहचानता है...उसके अनुरूप कार्य करता है वह दधि खाता है ...
------माखन उसको सबसे प्रिय है
.....माखन अर्थात गौदुग्ध को बिलो कर आलोड़ित करके प्राप्त उसका तत्व ज्ञान पर आचरण
करना व संसार को देना उसे सबसे प्रिय है ..
“सर्वोपनिषद गावो
दोग्धा नन्द नन्दनं “
...सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें नन्द नंदन श्री कृष्ण ने दुहा
....गीतामृत रूपी माखन स्वयं खाया, प्रयोग किया ....संसार को प्रदान करने हेतु.....
---- वह बाल लीलाएं करता हुआ कंस जैसे
महान अत्याचारी सम्राट का अंत करता है ...
-----वो प्रेम गीत गाता है वह
गोपिकाओं के साथ रमण करता है, नाचता है , प्रेम करता है , राधा का प्रेमी है,
कुब्जा का प्रेमी है ...मोहन है ...परन्तु
उसे किसी से भी प्रेम नहीं है...निर्मोही है ...वह किसी का नहीं .. वह सभी से
सामान रूप से प्रेम करता है ..वह सबका है और सब उसके ...
------वो आठ पटरानियों का एवं १६००
पत्नियों का पति है, पुत्र-पुत्रियों में, संसार में लिप्त है ...परन्तु योगीराज है, योगेश्वर है |
----वो कर्म के गीत गाता है एवं युद्ध
क्षेत्र में भी भक्ति व ज्ञान का मार्ग, धर्म की राह दिखाता है ,,,गीता रचता है ....
---- वो रणछोड़ है ...वो स्वयं युद्ध नहीं करता,
अस्त्र नहीं उठाता, परन्तु विश्व के सबसे भीषण युद्ध का प्रणेता, संचालक व कारक है
|
---अपने सम्मुख ही अपनी नारायणी सेना
का विनाश कराता है, कुलनाश कराता है...
---काल के महान विद्वान् उसके आगे शीश
झुकाते हैं ...
------------वो कृष्णा, कृष्ण है श्री कृष्ण है ...............
----वह कोइ विशेषज्ञ नहीं अपितु शेषज्ञ
है उसके आगे काल व ज्ञान स्वयं शेष होजाते हैं |
---------- वह कृष्ण है ..........
कर्म शब्द कृ धातु से निकला है कृ धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है।
कृ
से उत्पन्न कृष का अर्थ है विलेखण......आचार्यगण
कहते हैं..... ‘संसिद्धि: फल
संपत्ति:’ अर्थात
फल के रूप में परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं
हलोत्कीरणं ”
अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... | ----वो कृष्ण है
अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... | ----वो कृष्ण है
'संस्कृति' शब्द भी
….'कृष्टि' शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत
की 'कृष' धातु
से मानी जाती है,
जिसका अर्थ है- 'खेती
करना', संवर्धन
करना, बोना
आदि होता है। सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन
की मिट्टी को जोतना
और बोना। …..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय "कल्चर" शब्द ( ( कृष्टि -àकल्ट
à
कल्चर )
भी वही अर्थ
देता है। कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है,
उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार
की अपेक्षा
होती है।
अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज
के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है... | 'कृष' धातु में 'ण' प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण' बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है/
---वो कृष्ना है...कृष्ण है .....
शिव–नारद संवाद में शिव का कथन
---‘कृष्ण
शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और 'न' का
अर्थ मैं...आत्मा है .इसीलिये
वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं|
कृष का अर्थ आड़े’..
और न..
का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष
हैं |"..
-----..अर्थात
कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न
(न:=मैं, हम...नाम
) का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके आदि पुरुष हैं...कृष्ण हैं|
क्रिष्ट..क्लिष्ट ...टेड़े..त्रिभंगी...कृष्ण
की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है...
कृष्ण = क्र या कृ = करना, कार्य=कर्म
…..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता
, साधना....राधा....
गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव:
नहि
त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |...ऋग्वेद
---ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता
उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से
हुई ....साधना के बिना कर्म सफल कब होता है ... वो राधा है
राध धातु से राधा और कृष धातु से कृष्ण
नाम व्युत्पन्न हुये| राध
धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा =
धारक )...
----ऋग्वेद-५/५२/४०९४-- में राधो
व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त
किये गए हैं...यथा..
“ यमुनामयादि
श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”....अर्थात
यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
नारद पंचरात्र में राधा का एक नाम
हरा या हारा भी वर्णित है...वर्णित है | जो गौडीय वैष्णव
सम्प्रदाय में प्रचलित है| अतः महामंत्र की उत्पत्ति....
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे
हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// ----
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// ----
सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन
है...
”स्यामक केवलं प्रपध्यये, स्वालक च्यमं
प्रपध्यये स्यामक”....
----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |
----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |
नास्ति कृष्णार्चंनम राधार्चनं बिना
......
जय कन्हैयालाल की ...जय राधा गोविन्द
की .