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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

होली पर एक पद---डा श्याम गुप्त

पद

सखी री मोहे रन्गि दीन्हो गोपाल ।
भरि पिचकारी प्रीति भरे रन्ग, नीलो पीलो लाल
तकि तकि अंग अंग रंग रस डारौ, सकुचि हिये भई लाल।
बरवस बरज़ूं लोक लाज़ बस, नहिं मान्यो नंदलाल
भीजी अंगिया भीजी सारी, सकुचि हिये भई लाल ।
अंग अंग रंग टपकै झर झर, लखि मुसुकावें ग्वाल ।
श्याम, श्याम एसी रन्गि दीन्ही, तन मन भयो गुलाल॥

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

होली पर श्याम मधुशाला ----

श्याम मधुशाला

शराव पीने से बड़ी मस्ती सी छाती है ,
सारी दुनिया रंगीन नज़र आती है
बड़े फख्र से कहते हैं वो ,जो पीता ही नहीं ,
जीना क्या जाने ,जिंदगी वो जीता ही नहीं ।।

पर जब घूँट से पेट में जाकर ,
सुरा रक्त में लहराती
तन के रोम-रोम पर जब ,
भरपूर असर है दिखलाती

होजाता है मस्त स्वयं में ,
तब मदिरा पीने वाला
चढ़ता है उस पर खुमार ,
जब गले में ढलती है हाला।

हमने ऐसे लोग भी देखे ,
कभी देखी मधुशाला।
सुख से स्वस्थ जिंदगी जीते ,
कहाँ जिए पीने वाला।

क्या जीना पीने वाले का,
जग का है देखा भाला।
जीते जाएँ मर मर कर,
पीते जाएँ भर भर हाला।

घूँट में कडुवाहट भरती है,
सीने में उठती ज्वाला ।
पीने वाला क्यों पीता है,
समझ न सकी स्वयं हाला ।

पहली बार जो पीता है ,तो,
लगती है कडुवी हाला ।
संगी साथी जो हें शराबी ,
कहते स्वाद है मतवाला ।

देशी, ठर्रा और विदेशी ,
रम,व्हिस्कीजिन का प्याला।
सुंदर -सुंदर सजी बोतलें ,
ललचाये पीने वाला।

स्वाद की क्षमता घट जाती है ,
मुख में स्वाद नहीं रहता ।
कडुवा हो या तेज कसैला ,
पता नहीं चलने वाला।

बस आदत सी पड़ जाती है ,
नहीं मिले उलझन होती।
बार बार ,फ़िर फ़िर पीने को ,
मचले फ़िर पीने वाला।

पीते पीते पेट में अल्सर ,
फेल जिगर को कर डाला।
अंग अंग में रच बस जाए,
बदन खोखला कर डाला।

निर्णय क्षमता खो जाती है,
हाथ पाँव कम्पन करते।
भला ड्राइविंग कैसे होगी,
नस नस में बहती हाला।

दुर्घटना कर बेठे पीकर,
कैसे घर जाए पाला।
पत्नी सदा रही चिल्लाती ,
क्यों घर ले आए हाला।

बच्चे भी जो पीना सीखें ,
सोचो क्या होनेवाला, ।
गली गली में सब पहचानें ,
ये जाता पीने वाला।

जाम पे जाम शराबी पीता ,
साकी डालता जा हाला।
घर के कपड़े बर्तन गिरवी ,
रख आया हिम्मत वाला।

नौकर सेवक मालिक मुंशी ,
नर-नारी हों हम प्याला,
रिश्ते नाते टूट जायं सब,
मर्यादा को धो डाला।

पार्टी में तो बड़ी शान से ,
नांचें पी पी कर हाला ।
पति-पत्नी घर आकर लड़ते,
झगडा करवाती हाला।

झूम झूम कर चला शरावी ,
भरी गले तक है हाला ।
डगमग डगमग चला सड़क पर ,
दिखे न गड्डा या नाला ।

गिरा लड़खडाकर नाली में ,
कीचड ने मुंह भर डाला।
मेरा घर है कहाँ ,पूछता,
बोल न पाये मतवाला।

जेब में पैसे भरे टनाटन ,
तब देता साकी प्याला ।
पास नहीं अब फूटी कौडी ,
कैसे अब पाये हाला।

संगी साथी नहीं पूछते ,
क़र्ज़ नहीं देता लाला।
हाथ पाँव भी साथ न देते ,
हाला ने क्या कर डाला।

लस्सी दूध का सेवन करते ,
खास केसर खुशबू वाला।
भज़न कीर्तन में जो रमते ,
राम नाम की जपते माला।

पुरखे कहते कभी न करना ,
कोई नशा न चखना हाला।
बन मतवाला प्रभु चरणों का,
राम नाम का पीलो प्याला।

मन्दिर-मस्जिद सच्चाई पर,
चलने की हैं राह बताते।
और लड़ खडा कर नाली की ,
राह दिखाती मधुशाला।

मन ही मन हैं सोच रहे अब,
श्याम क्या हमने कर डाला।
क्यों हमने चखलीयह हाला ,
क्यों जा बैठे मधुशाला॥





शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

गाय का दूध-- आस्था व विग्यान ---

---अभी हाल में ही किसी शोध ( शायद विदेशी ) में पढ़ा था कि भेंस का दूध अधिक लाभकारी होता हि बजाय गाय के |
---देखिये भारतीय खोज , एन बी आर आई की खोज, जो चरक संहिता व रिग्वेद का समर्थन करती है आस्था व विग्यान के समन्वय का --
<---- पढ्ने के लिये क्लिक करें ।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

देखिये -शास्त्रों का अर्थ-अनर्थ, गुड-गोवर कैसे होता है---


<----देखिये अर्थ का अनर्थ , जो सारे किये कराये पर पानी फेर सकता है एवं बच्चों को गलत उदाहरण पेश कर सकता है । आरुणी गुरु धौम्य की सुप्रसिद्ध गुरु- भक्ति कथा | इसके अंत में दिया गया निष्कर्ष , लेखक का स्वयं का निष्कर्ष है, जो अच्छी खासी गुरु भक्ति की सीख को ---गुरु को ही मिली सीख में बदल देता है।
घटना आरुणी की, शिष्य की, गुरु भक्ति के लिए है, परन्तु लेखक का कथन है -"पर इस शिष्यने गुरु को ही बहुत कुछ सिखा दिया " यह वाक्य इस कथा में नहीं है परन्तु अंग्रेज़ी ज्ञान , पाश्चात्य ज्ञान से तरंगितलोग ( या अनजाने में या अज्ञान वश ) हमारे बच्चों से अभिभावक व शिष्यों से गुरु , बहुत कुछ सीख सकते हैं , की निरर्थक भावना पर - अर्थात गुरुओं को ही शिष्य से सीखना चाहिए , पर चलते ही दिखते हैं|---इसे कहते हैं गुड-गोबर करना | जो अँगरेज़ , अमेरिकन व यूरोपीय विद्वान् बहुत पहले से योज़ना बद्ध तरीके से करते आरहे हैं|--पूरी कथा यह है---
महर्षि आयोदधौम्यके तीन शिष्य बहुत प्रसिद्ध हैं—आरुणि, उपमन्यु और वेद। इनमेंसे आरुणि अपने गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्य थे और सबसे पहले सब विद्या पाकर यही गुरुके आश्रमके समान दूसरा आश्रम बनाने में सफल हुए थे। आरुणि को गुरुकी कृपा से सब वेद, शास्त्र, पुराण आदि बिना पढ़े ही आ गये थे। सच्ची बात यही है कि जो विद्या गुरुदेव की सेवा और कृपा से आती है; वही विद्या सफल होती है। उसी विद्या से जीवन का सुधार और दूसरों का भी भला होता है। जो विद्या गुरुदेवकी सेवाकी बिना पुस्तकों को पढ़कर आ जाती है, वह अहंकार को बढ़ा देती है। उस विद्याका ठीक-ठीक उपयोग नहीं हो पाता।

महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में बहुत-से शिष्य थे। वे सब अपने गुरुदेव की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक दिन शामके समय वर्षा होने लगी। वर्षाकी ऋतु बीत गयी थी। आगे भी वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोरसे हो रही थी। महर्षिने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट जायगी तो खेतमें से सब पानी बह जायगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख ही जायँगे। उन्होंने आरुणि से कहा—‘बेटा आरुणि ! तुम खेतपर जाओ और देखो, कही मेड़ टूटनेसे खेत का पानी निकल न जाय।’
अपने गुरुदेव की आज्ञासे आरुणि उस समय वर्षा में भीगते हुए खेतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्हेंने देखा कि धानके खेतकी मेड़ पर एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोरसे पानी बाहर जा रहा है। आरुणिने वहाँ मिट्टी रखकर मेड़ बाँधना चाहा। पानी वेगसे निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी गीली हो गयी थी, इसलिये आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधनेको रखते थे, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सका तो वे उस टूटी मेड़के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीरसे पानीका बहाव रुक गया।

रातभर आरुणि पानीभरे खेतमें मेड़से सटे पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेतका पानी बहने न पावे, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। शरीरमें भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे।

सबेरा होने पर संध्या और हवन करके सब विद्यार्थी गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्यने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। महर्षिने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा—‘आरुणि कहाँ है ?’
विद्यार्थियों ने कहा—‘कल शामको आपने आरुणि को खेतकी मेड़ बाँधनेको भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।’
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यर्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्होंने खेत पर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जाता था। उन्होंने किसी प्रकार अपने गुरुदेवकी पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँचकर उस आज्ञाकारी शिष्यको उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया—‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विद्याएँ अपने-आप ही आ जायँ।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि बड़े भारी विद्वान हो गए।



मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

बी टी बेंगन-- विविध तर्क व व्याख्याएं ---

एक तरफ हरित क्रान्ति के जनक जैव विशेषग्य बी टी बैंगन को हानिकारक कह रहे हैं तो दूसरी ओर किरण मजूमदार जैसे बिज़नेस बाले लोग ' भावनात्मक नहीं तर्क पूर्ण विवेचना हो' के माध्यम से बायोटेक को झटका, रिसर्च प्रभावित होना, अवैज्ञानिक तौर तरीके के बहाने सकी पक्षदारी कर रहे हैं।
वस्तुतः बिजेनेस वाले एसे लोग न तो विज्ञान को समझते हैं न सामाजिकता को ,भावना को, वे सिर्फ धंधे को समझते हैं, येन केन प्रकारेण--व्यवसाय बस।परम्परागत या भारतीय विज्ञान को ये लोग अवैज्ञानिक मानते है --अंग्रेज़ी व विदेशी एवं कमाई के चश्मे के कारण |वस्तुतः विज्ञान सिर्फ तर्क पर चलता है, व धंधा बाज़ार पर। पर जहां मानव व जीव की बात आती है वहां भावना आधारित तर्क पर विवेचना होनी चाहिए । सिर्फ तर्क केवल कुतर्क होता है । विज्ञान या तर्क -मानव के लिए हैं नाकि मानव -विज्ञान या तर्क के लिए । अतः ''भावनात्मक तर्क पूर्ण विवेचना" होनी चाहिए प्रत्येक बिंदु की । जैव विशेषग्य व कृषि विशेषज्ञों के अनुसार यह प्रतीत होता है कि --
---१.महंगे विदेशी बीज के लिए किसानों को अपना बहुत सा धन खर्च करना होगा , अपना देशी बीज व्यर्थ होजाएंगे। देशी प्रजातियाँ भी कालान्तर में नष्ट होकर हम पूर्णतः विदेशों पर आश्रित होंगे। जो वही स्थिति है जब ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिश -बुनाई की मशीनों के कारण भारतीय जुलाहों घरेलू उद्योग की हुई थी
---२। धन के लालच में एक ही फसल के बहु उत्पादन से अन्य फसलें चौपट होंगी , कीट-पक्षी-पशु जगत , वनस्पति जगत पर दुष्प्रभाव से ईकोलोजी प्रभावित होगी |
---३। और संवर्धन के लिए विदेशी तकनीक, विदेशी यंत्र, विदेशी मुद्रा के लिए देशी धन का उपयोग -->महंगाई??
---हमें होशियार रहना होगा

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

शाश्वत प्रेम ,तप व साधना, कर्तव्य,प्रेम व भोग

----तथाकथित प्रेम दिवस , वेलेन्टाइन डे, पर विभिन्न विचार, आलेख , समाधान सामने आरहे हैं , प्रायः पाश्चात्य शिक्षा में रंगे व उन्ही विचारों से ओत प्रोत व समर्थक कहते पाए जाते हैं कि --खजुराहो , सूर्य मंदिर , कोणार्क आदि आदि हिन्दू सभ्यता के ही हैं तो क्यों धर्म के पुजारी , हिन्दू वादी , संसकृति के ठेकेदार यह सब आलोचना करते हैं |
हाँ , काम शास्त्र , कोकशास्त्र, खजुराहो, आदि भारतीय व्यवस्थाएं हैंप्रेम के ऊपर तो उंगली उठाई ही नहीं जासकती | प्रेम के ही चारों और तो यह विश्व घूमता हैआदि सृष्टि के समय ही स्वयं ब्रह्म प्रेम के बिना नहीं रह पाता--" एव एकाकी,नेव रेमे | तत द्वितीयामेच्छ्त |"- अकेला ब्रह्म रमण नहीं कर सका, उसने दूसरे की इच्छा की,एवम शक्ति प्रकट हुई ।सारे हिन्दू ग्रन्थ प्रेम व काम भावना के कथनों ,कथाओं से भरे हैं, सभी हिन्दू देवता सपत्नी हैं, भोग में संलग्न। तप व साधना, कर्तव्य,प्रेम व भोग भारतीय् सन्स्क्रिति व जीवन के आधार हैं( जीवन के भी )।
------वस्तुतः प्रेम है क्या, शाश्वत प्रेम क्या है ? शाश्वतता, तप, संयम , साधना में जो निपुण है वही प्रेम का अधिकारी है,वही शाश्वत प्रेम है। खजुराहो आदि के मन्दिर है, न कि बाज़ार में मूर्तियां खडी की गईं हैं, काम शास्त्र आदि बच्चों को पढने के लिये नहींकहा जाता, प्रेम बाज़ार में व प्रदर्शित करने वाली वस्तु भी नहीं है, प्रेम का कोई एक दिन भी निर्धारित नहीं होता। फ़िर भारत में पूरा माह ही वसन्त, होली का है तो किसी एक अन्य दिन की क्या आवश्यकता?
संयम, साधना, तप व प्रेम का अन्तर्संबन्ध के लिये भारतीय शास्त्रों की एक मूल कथा, जो विश्व में सर्व श्रेष्ठ श्रन्गार युक्त रचना है, ""कुमार सम्भव "" की कथादेखिये । कालिदास द्वारा रचित इस महाकाव्य में-- जब अथाह यौवन की धनी पार्वती जी शिवजी की पूजा करके पुष्प अर्पित कररही होती हैं तभी देवताओं के षडयन्त्र के तहत कामदेव अपना काम बाण छोडता है, शिव की तपस्या भन्ग होती है, वे मोहित नज़रों से सामने खडी पार्वती को देखते हैं, प्रसन्न होते हैं , परन्तु तुरन्त ही अपने क्षोभ का कारण ढूढते हैं। पल्लवों की ओट में छुपा कामदेव उनकी नज़र पडते ही भष्म होजाता है, शिव तुरन्त तपस्या के लिये चले जाते हैं, देवोंको अपनी असफ़लता सालती है। कि इतने रूप सौन्दर्य व काम वाण से भी शिव्जी को लुभा नही पाये। पार्वती जी पुनः घोर तप मेंलीन होतीं , अन्तत स्वयम शिव पार्वती से अपने छद्म रूप में शिव की बुराइयां करते हैंकि-- हे देवी एसा कौन मूर्ख है या सर्वशक्तिमान है जो आप जैसी सौन्दर्य की प्रतिमा के कठोर तप से भी अनजान है, पार्वती की सखि के शिव कहने पर वे कहते हैं-- शिव हैं, अघोरी, प्रथम मिलन की रात्रि को ही प्रथम स्पर्श ही सर्प से होगा, भन्ग धतूरा खाने वाले से क्या करना। पार्वती के क्रोधित होने पर वे , प्रकट होकर उनका वरण करते हैं।
अर्थ है कि शिव अर्थात कल्याण कारी्शाश्वत प्रेम्के लिये स्त्री को तप व साधना करनी होती है। काम शर से विंधे होकर भी शिव उनका पाणिग्रहण नही करते, अर्थत वे इतने सौन्दर्य की मालिक स्त्री , प्रेम व ग्रहस्थ जीवन के काबिल स्वयम अभी नहीं हैं अतः अभी और तप साधना की आवश्यकता है, यह पुरुष की तप व साधना है, प्रेम , व भोग से पहले। पार्वती पुनः कठिन तप करती हैं ,न कि नाराज़ होती हैं, कि अभी वे कल्याण कारी प्रेम व भोग के लिये समर्थ नहीं है और तप चाहिये।
-----आकर्षण व प्रेम में अन्तर है। प्रेम- तप, स्थिरता,साधना शाशवतता को कहाजाता है, नकि यूंही ’ आई लव यू’ कहने को, किसी को भी गुलाव देदेनेको। प्रेम मौन होता है, मुखर नही, आकर्षण मुखर होता है। साधना, तप( पढ लिख कर समर्थ बनना) के पश्चात ही प्रेम कल्याण कारी होता है। यूही असमय बाज़ार में प्रदर्शन से नहीं।
समस्त भारतीय, शास्त्रों, ग्रन्थॊं, धर्म, दर्शन का मूल भाव यही ’संयम,तप साधना युक्त प्रेम व भोग’ है --
”प्रेम न वाडी ऊपज़ै,प्रेम न हाट बिकाय"

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

नीति , अन्ध विश्वास , पुराने लोग, भ्रष्ट , परमात्मा और तुम---

ओशो और गुरु नानक--के विचार.................................................

महाशिव रात्रि ---दोहे --


महा शिव रात्रि

अन्धकार को चीर कर, ज्ञानालोक बहाय |
निर्गुण शिव जब सगुण हों,महारात्रि कहलाय|

चित का घड़ा बनाय के, देंय भक्ति रस डाल |
मन-वृत्ति के छिद्र से, जल की धारा ढाल ।

काम क्रोध से क्षत नहीं,मन अक्षत कहलाय ।
चरणों में शिव शंभु के, निज मन देय चढ़ाय ।

व्यसनों का अर्पण करें, भोले मुक्ति दिलायं ।
भंग धतूरे रूप में, शिव पर देयं चढ़ाय ।

अन्धकार अज्ञान को,मन से देय भगाय ।
महाकाल आराधना,तब सार्थक होपाय ॥

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

डा श्याम गुप्त की कविता --झगडालू

झगडालू (- अतुकांत कविता)
( डा श्याम गुप्ता )

लोग कहते हैं कि, हरदयाल-
तुम एक जिम्मेदार पद पर हो,
गुस्सा न किया करो;
काम को टैक्टफुली किया करो ।

अरे ! अफसर के पास तो , लोग-
काम कराने आयेंगे ही,
करा दिया करो |
आखिर झगड़े से लाभ ही क्या है?
क्या लोगों को सुधारने का
तुमने ठेका लिया है|

दयाल भी हर बार सोचता है,
मुझे गुस्सा नहीं करना है;
मुझे क्या-
यदि सरकार का, समाज का घाटा,
या देश की व क़ानून की हानि होती है-
तो मुझे क्या फर्क पड़ना है |
मैं तो अफसर हूँ,
मुझे अफसर ही रहना है |

पर हर बार वही होता है,
जब किसी अनाधिकार चेष्टा से ,
देश समाज धर्म या क़ानून की,
हानि होती है ;
तो हरदयाल को क्रोध आ जाता है ;
और,
स्वयं के ठगे जाने पर,
दोष लगाए जाने पर ,
धमकी या अपमान पर ,
सदा शांत व मुस्कुराने वाला, दयाल;
अचानक उबाल कहाजाता है,
और उसका फिर झगड़ा होजाता है।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ...

-- कर्म ही प्रधान है , कर्म ही मानव को अमीर ,गरीव,महान,तुच्छ बनाता है; वही शान्ति,सुख भी देता है ; अनुरूप कर्म ही -धर्म है । देखिये एक सद कथा --अखंड ज्योति, गायत्री परिवार से साभार। ---चित्र पर क्लिक करें ।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

जीवन लक्ष्य ----

इसे कहते हैं -जीवन ,जीवन लक्ष्य,परमात्मा , आनंद व मुक्ति....


जीवन क्या है, इसे कैसे जीना चाहिए, -प्रायः विद्वान् अपने अपने ढंग से कहते रहते हैं जो-
प्रायः एकांगी दृष्टि होतीहै; पूर्ण दृष्टि के लिए देखिये यह समाचार, इसमें आई आई टी के इंजीनियर, भाभा रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक, जी -विद्युत ऊर्जा पर शोधकर्ता श्री सुद्धानंद गिरी जी अब आत्मीय ऊर्जा की खोज में हैं | यह ठीक उसी तरह है जिसेपूर्ण जीवन की खोज प्राप्ति के विषय में --यजुर्वेद के अंतिम अध्याय --ईशोपनिषद के ११ वें श्लोक --सूत्र में कहागया है---
""विध्यांन्चाविध्या यस्तद वेदोभय सह |अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया s मृतंश्नुते || ""
अर्थात --अविद्या ( सांसारिक ज्ञान, विज्ञान, ) प्राप्त करके , विद्या ( आत्म ज्ञान, आत्मीय ऊर्जा, परमात्तत्व ) दोनोंको ही प्राप्त करना चाहिए | अविद्या से मृत्यु , अर्थात संसार सागर को पार करके , विद्या से अमृत अर्थात आत्मतत्व, ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए यही सम्पूर्ण जीवन है |

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

नव वर्ष चेतना समिति --सांस्कृतिक जागरण आह्वान



नव वर्ष चेतना समिति , उ प्र , भारत -द्वारा -हिन्दू जीवन दर्शन अपनाने का आह्वान , ताकि धरती व सभ्यता व मानवता का संरक्षण हो सके , विश्व संवाद केंद्र, जियामू, लखनऊ में , 'भारतीय काल गणना की वैज्ञानिकता एवं हिन्दू जीवन दृष्टि ' पर एक संगोष्ठी , १४ फरवरी २०१०, सायं ४ बजे.---देखें यह पोस्टर---

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

जिन खोजा सो पाइया गहरे पानी पैठ ....



जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ...वैदिक विज्ञान ..वैदिक गणित

सब कुछ भारतीय किताबों से सीखा ---कहना है आई आई एम् के क्षात्रों का , फ़टाफ़ट गणना करने वाले तरीकों के बारे में , पढ़िए ये समाचार ---ऊपर । बड़ा करने के लिए चित्र पर कहीं भी क्लिक करें ।
----सब कुछ मौजूद है , वैदिक साहित्य में , आवश्यकता है स्वयं को पहचानने की , जानने की , मानने की , श्रृद्धा की -उस पर खोज-विचार करने की ,विज्ञान -दर्शन- धर्म के समन्वित रूप को बिना पूर्वाग्रह के ग्रहण करने की ।
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