....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
-----सखीं संग राधाजी दर्शन पाए------..
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चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर,
तुलसी दास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर |
-------इस घटना को चाहे कुछ लोग कल्पित रचना मानते हों परन्तु रचना में अन्तर्निहित जो भगवद भक्ति, जो कल्पना व भावना के अंतर्संबंध का जो सत्य स्वरुप आनंद है, रसानंद है, ब्रह्मानंद है, वह अनिर्वचनीय है |
\\--उसी प्रकार ---
-------यदि आपको बिहारी जी के विग्रह के दर्शन रूपी रसानंद के साथ तुरंत ही राधाजी के सचल स्वरुप के दर्शन –सुख का आनंद प्राप्त होजाय तो वह अनिर्वचनीय परमानंद वर्णनातीत है, मोक्ष स्वरुप है |
--------- एसी ही एक सत्य घटना का काव्यमय वर्णन प्रस्तुत है | जिसके लिए
मैंने सवैया छंद के नवीन प्रारूप का सृजन किया और उसे ‘श्याम सवैया छंद’ का
नाम दिया |
( श्याम सवैया छंद –छः पंक्तियाँ, वर्णिक, २४ वर्ण, अंत यगण )
**** सखीं संग राधाजी दर्शन पाए..***** १.
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की वंसी जु मन मैं बजी सुख आनंद रीति सजी मन मांहीं|
राधा की मथुरा बुलावे लगी मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में बैठे मिलहिं कान्हा राधिका पाहीं |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखी जो मथुरा की दीन दशा मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||
२.
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं दोउ लोचन नीर कपोल पे आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि जन्मे जहं देवकी लाल सुहाए |
टूटी परीं सड़कें चहुँ और हैं लता औ पता भरि धूरि नहाए |
हैं गोप कहाँ कहँ श्याम सखा किट गोपी कुञ्ज कतहूँ नहिं पाए |
कित न्यारे से खेल कन्हैया के कहूँ गोपीन की पग राह न पाए |
हाय यही है मथुरा नगर जहं लीला धरन लीला धरि आये ||
३.
रिक्शा चलाय रहे ब्रज वाल किट ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ बहें कित गली राहन कीचड़ नीर बहाए |
कुंकुम केसरि की धूर कहाँ धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितें चहुँ ओर तो कूड़न ढेर सजाये |
सोची चले वृन्दावन धाम मिलें वृंदा वन बहु भाँति सुहाए |
दोलत ऊबड़-खाबड़ राह औ फाँकत धूल वृन्दावन आये ||
४.
कालिंदी कूल जो निरखें लगे मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे ,
कौन सो निरमल पावन नीर औ पाए कहूँ न कदम्ब के डारे |
नाथ के कालिया नाग प्रभो जो किये तुम पावन जमुना के धारे |
कारी सी माटी के रंग को जल हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
दुई सौ गज की चौड़ी नदिया कटि छीन तिया सी बहे बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथि कें पावन नीर को नाथ सुधारे ||
५.
गोवरधन गिरिराज वही जेहि श्याम धरे ब्रज वृन्द बचाए |
खोजी थके हरियाली छटा पग राह कहूं औ कतहूँ नहिं पाए |
सूखे से ठूंठ से ब्रक्ष कदम्ब कटे फटे गिरि पाहन बिखराये |
शीर्ण विदीर्ण किये अंग भंग गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
सब ताल तलैया हैं कीच भरे गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषन, खननासुर संहार करहि ब्रजधाम बचाए ||
६.
मंदिर देखि बिहारी लला मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव, मनों प्रभु मुसकाने |
बोले उदास से नैन किये अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहूँ मथुरा की दशा हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहिं करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
७.
भाव भरे कर जोरि कें दोऊ, भरे मन बाहर गलियन आये |
बांस फटे लिए हाथन में सखियन संग राधाजू भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा कीं रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा सरूप नै पायं हमारे जो दीन्हीं लकुटियां लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय हम कीन्हों प्रनाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम, सखीं संग राधाजी दर्शन पाए ||
सखीं संग राधाजी दर्शन पाए----‘श्याम सवैया छंद...श्याम गुप्त...
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चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर,
तुलसी दास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर |
-------इस घटना को चाहे कुछ लोग कल्पित रचना मानते हों परन्तु रचना में अन्तर्निहित जो भगवद भक्ति, जो कल्पना व भावना के अंतर्संबंध का जो सत्य स्वरुप आनंद है, रसानंद है, ब्रह्मानंद है, वह अनिर्वचनीय है |
\\--उसी प्रकार ---
-------यदि आपको बिहारी जी के विग्रह के दर्शन रूपी रसानंद के साथ तुरंत ही राधाजी के सचल स्वरुप के दर्शन –सुख का आनंद प्राप्त होजाय तो वह अनिर्वचनीय परमानंद वर्णनातीत है, मोक्ष स्वरुप है |
( श्याम सवैया छंद –छः पंक्तियाँ, वर्णिक, २४ वर्ण, अंत यगण )
**** सखीं संग राधाजी दर्शन पाए..***** १.
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की वंसी जु मन मैं बजी सुख आनंद रीति सजी मन मांहीं|
राधा की मथुरा बुलावे लगी मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में बैठे मिलहिं कान्हा राधिका पाहीं |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखी जो मथुरा की दीन दशा मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||
२.
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं दोउ लोचन नीर कपोल पे आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि जन्मे जहं देवकी लाल सुहाए |
टूटी परीं सड़कें चहुँ और हैं लता औ पता भरि धूरि नहाए |
हैं गोप कहाँ कहँ श्याम सखा किट गोपी कुञ्ज कतहूँ नहिं पाए |
कित न्यारे से खेल कन्हैया के कहूँ गोपीन की पग राह न पाए |
हाय यही है मथुरा नगर जहं लीला धरन लीला धरि आये ||
३.
रिक्शा चलाय रहे ब्रज वाल किट ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ बहें कित गली राहन कीचड़ नीर बहाए |
कुंकुम केसरि की धूर कहाँ धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितें चहुँ ओर तो कूड़न ढेर सजाये |
सोची चले वृन्दावन धाम मिलें वृंदा वन बहु भाँति सुहाए |
दोलत ऊबड़-खाबड़ राह औ फाँकत धूल वृन्दावन आये ||
४.
कालिंदी कूल जो निरखें लगे मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे ,
कौन सो निरमल पावन नीर औ पाए कहूँ न कदम्ब के डारे |
नाथ के कालिया नाग प्रभो जो किये तुम पावन जमुना के धारे |
कारी सी माटी के रंग को जल हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
दुई सौ गज की चौड़ी नदिया कटि छीन तिया सी बहे बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथि कें पावन नीर को नाथ सुधारे ||
५.
गोवरधन गिरिराज वही जेहि श्याम धरे ब्रज वृन्द बचाए |
खोजी थके हरियाली छटा पग राह कहूं औ कतहूँ नहिं पाए |
सूखे से ठूंठ से ब्रक्ष कदम्ब कटे फटे गिरि पाहन बिखराये |
शीर्ण विदीर्ण किये अंग भंग गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
सब ताल तलैया हैं कीच भरे गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषन, खननासुर संहार करहि ब्रजधाम बचाए ||
६.
मंदिर देखि बिहारी लला मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव, मनों प्रभु मुसकाने |
बोले उदास से नैन किये अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहूँ मथुरा की दशा हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहिं करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
७.
भाव भरे कर जोरि कें दोऊ, भरे मन बाहर गलियन आये |
बांस फटे लिए हाथन में सखियन संग राधाजू भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा कीं रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा सरूप नै पायं हमारे जो दीन्हीं लकुटियां लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय हम कीन्हों प्रनाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम, सखीं संग राधाजी दर्शन पाए ||