....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
उस रात जब लाइब्रेरी के पास,
मैने कहा था -
उस रात जब लाइब्रेरी के पास,
मैने कहा था -
"क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
क्या तुम्हें होस्टल छोड़ दूं ?"-
'डर की क्या बात है, हाँ -
यदि तुम बार बार यही कहते रहे ,
तो मुझे डर है कि-
कहीं मैं डरने न लगूँ '-
तुमने कहा था |
मैं चाहता ही रहा कि-
शायद तुम कभी डरने लगो,
रात की गहराई से , या-
रास्ते की तनहाई से |
पर, तुम तो निडर ही रहीं,
निष्ठुरता की तह तक निर्भीक,
कि मैं स्वयं ही डर गया था ,
तुम्हारी इस निडरता से |
और, अभी तक डरता हूँ मैं कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी या नहीं ;
और होगी तो-
मैं क्या कहूंगा, क्या पूछूंगा ?
शायद यही कि-
क्या तुम अभी तक वैसी ही हो;
निडर और निर्भीक !
और इसी बात से डरता हूँ मैं ,
अभी तक ||