....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
(कल ब्लोगर आशुतोष नाथ तिवारी जी का ई-मेल मिला, जिसमें एक लिंक दिया था एवं उस पर वे मेरे विचार जानना चाहते थे| लिंक ( यूं-ट्यूब ) में इस्लाम के कोई विद्वान डा जाकिर नाइक पोलीगेमी -अर्थात बहुविवाह-प्रथा पर किसी महिला द्वारा कुरआन में चार शादियों की स्वीकृति पर उत्तर देरहे थे| डा नाइक सीधे-सीधे कृष्ण की १६१०८ रानियों , दशरथ की तीन रानियों के उदाहरण से कुरआन में चार शादियों की वैधता को समर्थित कर रहे थे | चूंकि उत्तर काफी लंबा व गहन विषय से जुड़ा हुआ है अतः मैंने एक पोस्ट द्वारा लिखना उचित समझा |)
बहुपत्नी-प्रथा विश्व की लगभग सभी प्राचीन व्यवस्थाओं में थी..चाहे वह योरोप हो या एशिया, अफ़्रीका ...... वास्तव में यह समाज व महिलाओं में असुरक्षा की भावना का प्रतिकार थी और तब प्रारम्भ हुई जब सभ्यता स्त्री-सत्तात्मक से पुरुष सत्तात्मकता में परिवर्तित हुई ।
वस्तुत: प्रागैतिहासिक काल में कहीं भी ईश्वर नहीं था अपितु स्त्री-शक्ति--मातृका, सप्त-मातृकाओं का वर्चस्व था उन्ही की पूजा होती थी, जैसा कि उस काल की प्राप्त मृण्मूर्तियों से पता चलता है। जब कालक्रमानुसार विकास-क्रम में मानव घुमन्तू से स्थिर हुआ और स्त्री ने स्वत: परिस्थिति व आवश्यकतानुसार घर पर रहना व घरेलू व्यवस्था को स्वीकार किया—पत्नी भाव स्वीकार किया तो धीरे-धीरे पुरुष का वर्चस्व स्थापित होने पर... ...मुखिया व राजा के रूप में एक सुरक्षा व पालन-पोषण तन्त्र का प्रतीक बना, फ़िर किसी सर्वशक्तिमान सत्ता...ईश्वर की सत्ता पुरुष रूप में स्थापित हुई जो मुखिया व राजा में भी आरोपित हुई.....और स्त्रियों द्वारा अपने व सन्तति के सुरक्षा व लालन-पालन हेतु शक्ति के केन्द्र की ओर आकर्षित होने से ..बहु-पत्नी प्रथा का आविर्भाव हुआ। तत्पश्चात राजनैतिक व अन्य कारणों से यह प्रथा सामान्य-व्यवहार भाव से समाज में अभिहित होती गयी।
परन्तु यह प्रथा समाज का एक व्यवहारिक रूप रहा , आदर्श रूप नहीं। मूल भारतीय त्रिदेव एक-पत्नी वाले हैं- (ब्रह्मा की गायत्री व सावित्री दो पत्नियां-भाव रूप ही हैं), मनु भी एक पत्नी शतरूपा है,( यद्यपि कामायनी में प्रसाद जी ने श्रृद्धा व इडा कहा है पर वह भी भाव रूप ही है ) जबकि प्रज़ा-उत्पत्ति के प्रतीक... दक्ष—की आकूति व प्रसूति दो पत्नियां थीं।...गणेश की दो पत्नियां-रिद्धि व सिद्धि हैं। चन्द्रमा की २७...यद्यपि ये सभी प्रतीकात्मक हैं..पर हैं तो...भाव रूप में ही सही.....।
राजा दशरथ की तीन रानियां थीं परन्तु राम ( जो आदर्श के प्रतीक हैं) तो दृढ़ता से एक पत्नी- व्रता हैं। श्री कृष्ण की कथित १६१०८ पत्नियां वस्तुत: वे निरीह, परित्यकता स्त्रियां थीं जो आतंक के प्रतीक जरासन्ध-समूह के यहां कैद, शोषिता-पीडिता नारियां थीं जिनको श्रीकृष्ण ने जरासंध को मारकर बन्धन से मुक्त किया पर उनके परिवार ने स्वीकारा नहीं तो उनके पालन-पोषण का दायित्व स्वयं लिया। उनकी ८ रानियां विभिन्न राजपरिवारों से सन्धि हेतु राजनैतिक कारणों से थीं.....हां थीं ।
राजा मानसिन्ह की ९ रानियां थीं । सामान्य जनता पर भी कोई एसा बन्धन नहीं था..” देवी के लिये गाये जाने वाले लान्गुरिया गीतों में एक गीत है---“दो दो जोगिनी के बीच अकैलो लान्गुरिया “यह जहां सामान्य जन में भी यह प्रथा की सामाजिक स्वीकृति को दर्शाती है वहीं सामान्यजन को सामाजिक रूप से चेताने के उपक्रम भी हैं, की भले ही कानूनन या सामाजिक बन्धन न हों परन्तु यह आदर्श एक स्थिति नहीं है।
कहने का तात्पर्य है कि .डा नाइक.......एक ज़हीन इन्सान हैं, ग्यानी हैं...अपने धर्म-प्रसार हेतु नेताओं की भांति तर्कयुक्त वक्तृता में भी माहिर हैं। यद्यपि हिन्दू धर्म के बारे में उनका ज्ञान तात्विक नहीं है परन्तु फिर भी वे अपने कथन में सही हैं कि यदि ईस्लाम में चार शादियां कबूल हैं तो चिल्लाहट क्यों...सच ही है....पर सिर्फ़ चार ही क्यों? यदि बहुविवाह स्वीकार है तो फ़िर चाहे जितनी हों, क्या फ़र्क पडता है...यहीं पर अन्तर है हिन्दुत्व के तार्किक व सर्वसुलभ व शास्त्रों के व्यवहारिक रूप से प्रयोग के सिद्धान्त में व इस्लाम के ..जो हम कहें वही करो, जो किताब में लिखा है वही पत्थर की लकीर है के कट्टरता के सिद्धान्त में । बहुत नया है इस्लाम धर्म हिन्दू धर्म की तुलना में अत: कुछ नवीन नियम--चार शादियाँ तक-- हो ही सकते हैं। हिन्दू धर्म जो सनातन है, इसमें यदि बहुपत्नी प्रथा है तो सन्यांस अर्थात बिना विवाह जीवन की भी प्रथा है| बहुत खुला हुआ, संतुलित व व्यवहारिक एवं समतामूलक समाज, धर्म व सभ्यता है यह।
जहां तक पश्चिम के एक पत्नी कानून की बात है वह सच ही कहा. डा नाइक....ने कि आचरण में तो वहां सभी स्त्रियां सभी की पत्नियां हैं...सब कुछ जायज़ है, उपलब्ध है व मान्य भी है। उस संस्कृति की तो कोई बात ही नही, वह तो कोई संस्कृति ही नहीं है । वह अभी जुम्मा-जुम्मा चार रोज़ की संस्कृति है....जन्गलों से सीधे महानगरों व बहुमन्जिला नगरों में पहुंचे हुए लोग....धन-सम्पत्ति की चकाचौन्ध से .आश्चर्यचकित...दिशाहीन....बौराये लोग। जहां तक स्त्री-पुरुष अनाचरण-दुराचरण-शोषण-अत्याचार की बात है वह कोई संस्कृति-धर्म की बात नही मानवीय आचरण-स्वभाव की बात है । जो अन्य संस्कृतियों ...हिन्दू—मुस्लिम भी...में चोरी-छुपे होता है वह पाश्चात्य में खुले आम, जो अधिक घातक है क्योंकि बुराई आकर्षक होती है व तेजी से फैलती है।
मुझे तो यह लगता है कि भारत सरकार को जिसने अन्ग्रेज़ों व अमेरिकी प्रभाववश एक पत्नी कानून पास किया.....उसे समाप्त कर देना चाहिये। जो जितनी पत्नियों का पालन कर सके उसकी इच्छा।