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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 31 मार्च 2012

कालजयी रचना और तुकांत व अतुकांत छंद ....डा श्याम गुप्त....

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


"कालजयी रचना कहाँ?" पर ---

          वस्तुतः शास्त्रीय, भाषिक व साहित्यिक ज्ञान  की कमी होने से एवं छंद का वास्तविक अर्थ न जानने वाले   सिर्फ तुकांत कविता के  बंद को ही छंद समझते हैं अपितु उनसे भी आगे जाकर कुछ कविगण दोहा, सवैया आदि शास्त्रीय छंदों को ही छंद मानते हैं .....वास्तव में लयात्मक स्वर में  गति व लय युक्त रचना छंद कहलाती है चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत.....क्या निराला के कालजयी अतुकांत गीत  ...वह तोड़ती पत्थर ...या अबे सुन बे गुलाब ....लय, यति गति व गेयता युक्त नहीं हैं। अतः इस प्रकार की बात कहने वाले नादान हैं साहित्य से अनजान...साहित्य की गरिमा व प्रोटोकोल भी वे नहीं जानते ....क्या कभी काव्य का सूरज भी अस्त होसकता है ....एसी रचनाएँ असाहित्यिक कोटि में आती हैं...यूं हांजी हांजी कहने वाले तो हर जगह होते हैं....... उनके लिए ये दोहे प्रस्तुत हैं ..... क्योंकि  सत्य को दिखाती हुई टिप्पणियाँ उनके ब्लॉग पर नहीं प्रकाशित की जातीं ...

 

             दोहे

कैसे  कैसे  मूर्ख  हैं, बन बैठे कवि आज।
कहें लुप्त है काव्य का नभ में सूरज आज।

काव्य रूप मां शारदे, क्या हो सकती लुप्त।
तत्व-ज्ञान से हीन कवि,मां को करते छुब्ध।

बिना छन्द कविता कहीं होती है महाराज।
मुक्तछन्द तुक हीन जो, वेद-मन्त्र रसराज।

जिसमें हो कुछ गेयता, काव्य उसी का नाम।
लय,गति,यति हो,तुक नहो,मुक्तछन्द का नाम।

गन्गा तो गन्गा सदा,कीचड मिले या पंक।
वह भी गंगा रूप धर,हो जाती शुचि कन्ज।

बिना छंद रचते यथा,ज्यादातर कविराज
मां शारदे कृपा यह,नई रह-गुजर आज।

अज्ञानी  पिछडे रहें, प्रगति आये रास
छन्द तो सदा ही रहे,कविता का सरताज।

मुक्त-छन्द तुक रहित हो, या तुकान्त हो छंद।
गति यति हो, रस-भाव हो,  मिलता काव्यानंद  

पढ कर सब देखें जरा, वे अगीत के  छंद
ब्लोग ’अगीतायन ’पढें, मिले अमित आनंद




----------- पढ़ें अतुकांत कविता व अगीत कविता के बारे में....अगीतायन ब्लॉग (http://ageetayan.blogspot.com)









इन्द्रधनुष... अंक आठ -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....

                                 
     
                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
 (शीघ्र प्रकाश्य....)....पिछले अंक सात  से क्रमश:......
    
                                               अंक आठ  

                                 लाइब्रेरी के मैगजीन सेक्शन में, मैं और एके जैन यूंही बैठे पन्ने उलट रहे थे कि अचानक हवा में तैरती हुई आवाज़ आयी --
                                                   '  जब जब बहार आये , 
                                                     और फूल मुस्कुराए, 
                                                     हमें तुम याद आये,
                                                     हमें तुम याद आये ।। "
                मैंने सिर उठाकर देखा  तो सुमित्रा अपनी मित्र साधना वर्मा के साध गुनगुनाती हुई सीढियां उतर रही थी ।   जैन के अचानक हंस पड़ने से दोनों चौंकी और चुप होकर जाने लगीं ।
                मैंने पूछा , ' सुमि, क्या दिल्ली की याद आरही है ?' 
                हाँ, वह बोली, पर मैं तो वहां होती हूँ तब भी यही गीत गुनुगुनाती हूँ ।  जैन व साधना एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।  दोनों के चले जाने पर जैन ने पूछा , ' इसका क्या अर्थ हुआ ?'
                पता नहीं, सुमि  अच्छा गाती है ।  
                ' ये तो सभी जानते हैं ।'
                चलो क्लास में चलते हैं, मैंने उठते हुए कहा ।   
                               **                              **                                  **
                                          "ग्रामीण व सामुदायिक  चिकित्सा"  कार्यक्रम के अंतर्गत हम लोग एक सुदूर ग्राम में घर घर जाकर सामुदायिक स्वास्थ्य, स्त्री व वाल स्वाथ्य पर परामर्श व विभिन्न आंकडे एकत्रित करने के क्रम में टोली बनाकर भ्रमण कर रहे थे ।
                           सुनील कपूर ने चलते चलते कहा,  ' क्या बात है, आठ प्रिगनेंसी, छ: डिलीवरी,  दो जराउली     ( टेटनस )  में मर गए,  दो पीलिया से।  बचे दो- एक को सूखा रोग है और एक अभी गोद में है । क्या आंकड़े हैं ।' 
                 ' अधिकतर घरों में यही हाल है ।' सुमित्रा कहने लगी . ' अशिक्षा , गरीबी, भूख, पिछडापन फिर फिर अशिक्षा ...गरीबी ...ये दुश्चक्र कब ख़त्म होगा !'
               ' हम सब लोग कहाँ तक समझायेंगे इन सब को। क्या कुछ लोगों को बताकर सब कुछ ठीक हो जाएगा ?'  कुसुम ने कहा ।
              ' कितनी गन्दगी, कीचड  व बदबूदार नालियां हैं  यहाँ ? रंजन ने नाक-मुंह सिकोड़कर, रुमाल नाक पर रखते हुए कहा , ' कौन दोबारा आना चाहेगा यहाँ । क्या फ़ायदा व्यर्थ घूमने का । ये तो सुधरने वाले हैं नहीं ।'
               ' इसी सब के डाटाकरण व उपायीकरण के लिए हम सब घूम रहे हैं यहाँ । यदि बुद्धिवादी, प्रोफेशनल, पढ़े-लिखे लोग , शासन- पदस्थ लोगों को यह पता ही नहीं होगा तो ये सब कमियाँ, बुराइयां दूर कैसे होंगी ? इसके उपाय कैसे सूझेंगे । मैं तो चाहता हूँ कि प्रत्येक मेडीकल व अन्य कालेजों के व संस्थानों के छात्रों को अनिवार्यतः बारी बारी से गांवों में जाना चाहिए । यदि हम ही पहल नहीं करेंगे तो कैसे सुधरेगी यह हालत ?' मैंने कहा ।
               'कौन दोबारा आयेगा यहाँ ? तुम्हीं आना कीचड व गन्दगी में घूमने यहाँ । सतीश रंजन ने नाक सिकोड़ते हुए कहा ।
               हाँ.. हाँ भैया, हम तो पैदा यहाँ हुए हैं तो निभायेंगे ही । अपना तो उद्देश्य भी यही है । ' जीना यहाँ मरना यहाँ,  इसके सिवा और जाना कहाँ ?"  मैंने सुमित्रा की और देखते हुए मुस्कुराकर कहा ।
              ' मैं तुम्हारा इशारा समझ रही हूँ, अच्छी तरह ।' सुमित्रा बोली ।
              ' क्या समझी ?'
              'क्या समझते हो, गूढ़ बातें सिर्फ तुम ही कह-समझ सकते हो ? कोई और नहीं । '
             ' तुम्हारे बारे में तो न कभी मैंने एसा सोचा न कहा ।'
              ' ठीक है समय आने पर बताएँगे, हम क्या समझे ।'
             ' मैं कुछ समझा नहीं ।' रंजन ने आश्चर्य से कहा, ' एसी क्या बात है ?' 
             'कहाँ  व किन  बहसबाजों के चक्कर में फंस रहे हैं , डा रंजन ।'  साधना  वर्मा बोली,'  आपको तो वैसे भी दोबारा नहीं आना है यहाँ । चलिए आगे बढिए ।'

                             **                              **                                       **

                                          स्त्री रोग चिकित्सा विभाग  में ड्यूटी के दौरान अधिकतर पुरुष -छात्र वार्ड में अधिक रुकने में रूचि नहीं लेते । अतः कोई भी छोटे मोटे  काम के बहाने अन्य विभाग या लाइब्रेरी में पढ़ते रहते हैं । इसी तरह गायब होने के पश्चात जब मैं विभाग में पहुंचा तो हाउस इंचार्ज डा. रेनू ने पूछा, ' डाक्टर साहब , इतने समय से कहाँ थे ?'
                 ' मैं यूरिया वाइल ( रक्त एकत्र करने के लिए सेम्पल शीशी ) लेने गया था ।'
                 ' कहाँ हैं ?'
                 ' नहीं मिले, तैयार हो रहे हैं ।'
                 ' मेरे पास हैं, सुमित्रा ने दो वायल दिखाते हुए कहा ,' ज़नाब, रोमियो-जूलियट पढ़ रहे थे लाइब्रेरी में ।'
                 ' हूँ, तुमने कब देखा ?'
                 ' जब तुम पूरी तरह से डूबे हुए थे, मैं उठा लाई ये तुम्हारी टेबल से । वैसे भी पुस्तकों में डूबकर तुम सब भूल जाते हो ।'
                 ' पुस्तकें सदा साथ निभाती हैं ।'
                 ' उलाहना दे रहे हो ?'
                 ' नहीं, कहावत की बात है ।'
                 ' तुम इसी तरह सब भूल जाओगे, पुरानी आदत है ।'    
                 ' ये क्या बहस है?'  डा रेनू ने आश्चर्य से पूछा, ' तुम दोनों में कुछ हुआ है क्या ?'
                 'कभी कुछ हुआ ही तो नहीं ।' मैंने कहा ।
                 'सुमि मुस्कुराकर, घूरती हुई तेजी से वार्ड में चली गयी ।

                              **                         **                          **

                                       ' ओह ! आई गौट इट'   अब मालुम हुआ आजकल क्यों दिखाई नहीं देते, गुप्त रहते हो ।' लाइब्रेरी में क्या क्या गुल खिलाये जा रहे हैं, चुप चुप । बहुत चालू हो..... गोपाल । रोमियो-जूलियट ...हाऊ रोमांटिक ...। तभी आजकल स्मार्ट होते जारहे हो दिन ब दिन । जी चाहता है तुम से शादी करलूं । पर सोचती हूँ लोग क्या कहेंगे?' वार्ड से बाहर आते हुए लम्बी-चौड़ी मोटी नसरीन मुझे घूरते हुए चहकी ।
               ' क्या कहेंगे . यही कि वह ! क्या मस्त हथिनी और हथिनी शावक की सुन्दर जोड़ी है । लोग कमरा ले ले कर पीछे दौड़ेंगे , हो सकता है टाइम पत्रिका के फ्रंट पर आजाय, " मेड फार ईच अदर " के शीर्षक के साथ ।' मैंने सहज भाव से कहा ।
                'बदमाश ! तुम तो बहुत ही ...ह ......।'
                'शट अप, नसरीन मोटी, क्या बके जारही है ? कुछ तो शर्म करो ।' सुमी हंसते हंसते चिल्लाई ।
                'अरे वाह ! तुम कौन हो भई, ओब्जेक्शन करने वाली ? क्या तुम्हें कोइ एतराज  है मेरे प्रस्ताव पर ?' नसरीन कमर पर दोनों हाथ रखकर पूछने लगी ।
                 ' गो टु हैल'  मैं तो चलती हूँ ।' सुमि जाने लगी ।
                 ' ल्लो  ....ओ ....।' तुम्हारा सिक्योरिटी गार्ड तो वाक् आउट कर गया ।' नसरीन ने थुल थुल देह से हंसते हुए सुमित्रा की पीठ पर कमेन्ट दे मारा ।

                            **                             **                            **

                                           इसी तरह चलती रही हमारी मित्रता । साहित्य, कला, राजनीति, स्त्री -पुरुष सम्बन्ध,पति-पत्नी रिश्ते, मेरी अपनी शादी, नारी-विमर्श, फ़िल्में , सामयिक घटनाएँ , कालिज की  राजनीति , चिकित्सा विषय , चरक, सुश्रुत, कश्यप, हिप्पोक्रेट , धर्म, दर्शन , अद्यात्म , विज्ञान ...लगभग प्रत्येक विषय पर चर्चाएँ होती थीं । प्रत्येक विषय पर उसकी स्वतंत्र  राय व टिप्पणी होती थी । दर्शन, धर्म, इतिहास पर गहन अध्ययन न होने पर भी सामान्य ज्ञान व तीब्र विवेक-बुद्धि के आधार पर उसकी टिप्पणियाँ सटीक होती थीं । गायन, वादन, नृत्य में तो वह कुशल थी ही ।
                                            छुट्टियों में जब वह दिल्ली जाती तो लौटकर विस्तार से बताती । रमेश के साथ कहाँ कहाँ घूमे , क्या क्या किया , क्या खाया ......। फिर अचानक चुप होकर कहती . अरे, मैं तुम्हें क्यों बोर कर रही हूँ । चलो भूल जाओ, काफी पीते हैं । मेरे पीछे पढाई ठीक से की या नहीं , नोट्स कहाँ हैं, क्या क्या लिखा सुनाओ । सारी कैफियत लेती .....और हाँ.. किसी को सिलेक्ट लिया या नहीं ।'
                  ' कभी रमेश से मिलवाओ तो ', मैंने कहा ' वो क्या कभी तुमसे मिलने यहाँ नहीं  आता ?'
                   ' मैं ही हर छुट्टी में दिल्ली जाती हूँ ,हर बार मिलना होता ही है । रमेश डे-स्कालर है, और च्हुत्तियोन मेन पिता के नर्सिन्ग होम मेन काम,सीखना होता है । यहां आकर समय खराब करने का क्या फ़ायदा ।’ वह बोली, ’ तुम टालो मत, बताओ तो ।’
                                                एक दिन काफ़ी हाउस में सुमि पूछ बैठी , ’ केजी ! कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि क्या दो व्यक्ति इतने समान विचारों वाले हो सकते हैं । ’
                ' हाँ, यदि वे पिछले जन्म के भाई-भाई, भाई-बहन हों, या प्रेमी-प्रेमिका...या फिर "आइड़ेंटीकल ट्विन्स " ( जुड़वां बच्चे ) ।'          
                वह आश्चर्य से बोली...'हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास ..और तुरंत !'
                 ' या फिर इस जन्म में अमर प्रेम के ध्वज वाहक ,' मैंने कहा ।
                             वह सोचते हुए होस्टल की और बढ़ने लगी , फिर मुडकर कहने लगी,' अच्छा कोई लड़की पसंद की या नहीं ? और वह साईक्लिस्ट अनु ?'
                 मैंने कहा, सुनो ,..
                                             " ऊधो ! मन नाहीं दस बीस । 
                                              एक था सो गयो संग राधिका , कौन फंसाए शीश ।"   
              '  हूँ, तो एसा करती हूँ ......अच्छा चलती हूँ ।'
                                 दो दिन तक सुमित्रा से बात ही नहीं हुई । वह अन्य छात्राओं से घिरी सीधी क्लास रूम में आती और उसी तरह सीधी हास्टल चली जाती । तीसरे दिन मैंने स्वयं ही रोक कर कहा, ' सुमि, तुमसे बात करनी है, चलो केन्टीन चलते हैं ।'  वह चुपचाप बिना बात किये साथ चलने लगी ।
                 ' क्या बात है, तबियत तो ठीक  है, इतनी चुप चुप क्यों हो ? ये क्या  है दो दिन से बात ही नहीं हुई ? क्या हुआ है ?'
                 ' एक साथ इतने सारे सवाल ? बस यूंही मैंने सोचा मैं ही तुमसे मिलना -जुलना बंद कर देती हूँ, यही ठीक रहेगा, प्रेक्टिस भी होजायेगी ।' वह सीरियस बन कर बोली और चलने लगी ।
                 ' अच्छा, उस बात पर नाराज़ हो अभी तक ।'
                 हूँ, वह मुस्कुराते हुए बोली और जाने लगी ।
                 ' अरे, एसा मत करना , मैंने कहा, ' आखिर ऐसी भी क्या जल्दी है,  इतनी लड़कियां हैं, जब चाहें किसी को भी पटा लेंगें । कई को तो तुम  जानती ही हो ।'
                 ' अच्छा, एसा, सचमुच ?'  वह पलटकर हंसने लगी ।
                  'क्या विश्वास नहीं है मुझ पर ?'
                 ' येस ।' वह जाते जाते बोली ।
         
                                         .क्रमश: .......... अंक आठ का शेष ...अगली पोस्ट में .....।

                  
           
     

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

लो आज छेड़ ही देते हैं...डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल...

                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

लो  आज छेड़ ही देते हैं,  उस  फ़साने को,   
तेरी चाहत में थे हाज़िर, ये दिल लुटाने को।          

आज फिर जाने क्यूं, जाने क्यूं न जाने क्यूं,
याद करता है  दिले -नादाँ उस ज़माने को ।

जाने क्यूं आज फिर से, ये दिल की धड़कन,
तेरी चाहत की वो धुन, चाहे गुनगुनाने को ।

तेरी गलियों में, न जाने क्यूं न जाने क्यूं,
फेरे लगते थे, तेरी एक झलक पाने को ।

जाने क्यूं रूह जिगर जिस्म और जानो-अदा,
रहते हाज़िर, तेरी चाहत में सर झुकाने को ।

अब तो चाहों ने भी मुख फेर लिया है हमसे,
दोष दें, खुद को या तुझको कि इस ज़माने को ।

तुमको हम याद करें भी, तो भला कैसे करें ,
हम तो भूले ही नहीं , आपके फ़साने को ।

चाहतों की भी कोई, श्याम' उम्र होती है, 
उम्र की बात भी होती है, क्या सुनाने को ।।
 


 

गुरुवार, 29 मार्च 2012

क्या हम आज भी वहीं हैं ....


                                क्या हम आज भी वहीं हैं ....


कामन मैन...और लोकतंत्र ....डा श्याम गुप्त ...

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                 इस लोकतंत्र में कामन मैन की तो कोई कीमत ही नहीं  है, वह कामन जो है ...विशिष्ट  नहीं ...सेलीब्रिटी भी नहीं .... उसे कोई विशेषाधिकार  भी नहीं ...सिवाय पांच साल में एक बार ..."ज्यों गाडर की ठाट" ..की भाँति  लाइन लगा कर अपना अमूल्य 'वोट' देने के ।
                श्री सोमनाथ चटर्जी का,....जो कम्युनिस्ट पार्टी के विचारक हैं जिसे जनता की, जनता के लिए पार्टी कहा जाता है ...  कहना है कि संसद सर्वोपरि है ।  सिविल सोसायटी के सदस्यों पर सांसद  ( संसद नहीं क्योंकि संसद तो जन है या फिर सिर्फ भवन की दीवारें  और बोलने-कहने  में अक्षम ) एक जुट थे इससे साफ़ हुआ कि लोकतंत्र मजबूत है । विचारा लोकतंत्र तो है ही मजबूत, तंत्र जो है ...सिर्फ लोक ही नहीं है ----अपने मसले पर तो सभी ...मौसेरे भाई हो जाते हैं । उनका यह भी कथन है कि  मैदान में भीड़ जुटा लेने से कोई जन-प्रतिनिधि नहीं बन जाता ...यह भीड़तंत्र है लोकतंत्र नहीं .......इसके लिए उन्हें पहले चुनाव लड़कर ...विशिष्ट बनना पडेगा ....विशेषाधिकार प्राप्त करना पडेगा ।  क्या २०% वोट लेकर चुनाव जीतकर  आने वाले लोकतंत्र के नुमायंदे हैं???? 
                   इधर सचिन तेंदुलकर का  व सहवाग का कथन है कि वे अभी जवान हैं...मैंने रिटायरमेंट की बात करनेवाले कामन मैन से तो क्रिकेट सीखा नहीं, उन्होंने तो एक भी शतक नहीं बनाया तो उन्हें रिटायरमेंट की सलाह देने का क्या अधिकार ? पता नहीं मुझे लगता है जो जनता क्रिकेट के बारे में जानती ही नहीं उसे क्रिकेट देखने का अधिकार भी होना चाहिए या नहीं ....दूरदर्शन पर .प्रसारण भी नहीं होना चाहिए ..कितने   पैसे  व समय  की बचत  होगी ..।
                  इधर जनरल साहब ने सोचा कि यूंही कामनमैन बनकर रिटायर होकर क्या लाभ, इतनी बड़ी पोस्ट पर भी कोई नहीं पूछ रहा, कोई नहीं पूछेगा बाद में, अतः क्यों न कुछ नाम कमाकर ही जाया जाए ...हो सकता है आगे राजनीति में आने का मौक़ा,  विशिष्ट बनने का  मौक़ा मिल जाए । 
                   और ' आज़ाद औरत '  भी तो वही विशिष्ट बनने की कहानी है ....समझ में नहीं आता जो नारी घर, समाज, राष्ट्र व मानवता के लिए, पुरुषों की श्रेष्ठता संवर्धन के लिए जानी जाती रही है वह ..पहाड़ों पर चढ़कर ..सागर में डुबकी लगाकर क्या हासिल करना चाहती है ? 
                        तभी तो विशिष्ट बनने के लिए  नारी कपडे उतारने लगी है और पुरुष खेलकूद, फ़िल्मी हीरो बनने, किसी भी जोड़तोड़ से नेता बनने  व अपराध में लिप्त ......


बुधवार, 28 मार्च 2012

संसद और सांसद .....डा श्याम गुप्त ...

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                           यदि हम कहें कि हमारे देश में बहुत अधिक भ्रष्टाचार है, अपराध हैं, गरीबी है, महिलाओं के प्रति अत्याचार होरहे हैं, हमारे देशवासी गरीब है , तमाम लोग  टेक्स की चोरी व अपराधों में लिप्त ...तो क्या इसका अर्थ है कि यह देश का अपमान है.....क्या यह देश की अवमानना या  देश-द्रोह है । सभी समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, कविताओं, साहित्य में यह कहा जाता है, कहा जारहा है ...परन्तु किसी ने इसे देश की अवमानना नहीं कहा ।
                           तो क्या हमारे सांसद जो जनता व देश के सेवक हैं , हम ही इन्हें चुनकर भेजते हैं ....क्या देश से भी ऊपर हैं जो इनमें उपस्थित भ्रष्ट लोगों को भ्रष्ट नहीं कहा जा सकता है । भ्रष्ट सांसदों को भ्रष्ट कहना जो कि समाचार पत्रों व थानों तक में नामित हैं ।
                         सांसद .....संसद के सदस्य हैं ...स्वयं संसद नहीं  अतः उनके आचरण पर उन्हें ही संसद भेजने वाली जनता का कोई व्यक्ति उंगली उठाये तो उसे संसद  की अवमानना क्यों व कैसे  माना जा सकता है  ???   यह सोचना व इस पर अमल करना ही लोकतंत्र की...जन तंत्र की ...व राष्ट्र की अवमानना है ।


शनिवार, 24 मार्च 2012

इन्द्रधनुष.....अंक सात का शेष -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....

  


                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      

        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास....पिछले अंक से क्रमश:......
                                                       अंक सात का शेष

                                ’ सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आरहीं हैं । एक ब्राह्मणवादी दूसरी ब्राह्मण विरोधी,  जो अम्बेडकर वादी विचारा धारा है, जिसमें समता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय की बात है । और अभिजात्य चरित्र का वर्ग सदैव ही जनवादी चरित्र के वर्ग पर अन्याय-अत्याचार करता आया है ।'  जयंत कृष्णा ने, जो बाबासाहब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित था, यह बात केन्टीन में समता-समानता के ऊपर हो रहे वार्तालाप के मध्य कही ।
             'नहीं यार, एसा नहीं है,'   मैंने कहा, ' भारत में तो अभिजात्य व जनवादी चरित्र अलग रहा ही नहीं । चरित्र तो व्यक्ति व आत्मा का व्यापार है, अलग अलग कैसे होसकता है ? कार्यक्षेत्र, काम, व्यवहार, जीवन-जगत, उठना-बैठना अलग-अलग हो सकते हैं; व्यक्ति, देश, काल के अनुसार, पर चरित्र शाश्वत है जो भारत में कभी अलग-अलग नहीं रहा। यहाँ राजा भी चौके में कपडे उतारकर भोजन करता था, दैनिक वेतन भोगी भी, साधू भी, गृहस्थ भी ।'
              'यहाँ तो राजा-महाराजा,चक्रवर्ती सम्राट भी साधू-संतों के पधारने पर अपना सिंहासन व सर्वस्व भी उनके पैरों पर रख देते थे।  यह अद्यात्म, ज्ञान,त्याग, विद्वता, मुमुक्षा, आत्मसंतोष व सात्विकता को भौतिकता का नमन था, जो आत्मभाव में तुष्टता व अहंभाव के त्याग के बिना नहीं हो सकता ।  यही अहं  का त्याग व आत्मसंतुष्टि भाव, अध्यात्म व भौतिकता के समन्वय द्वारा जीवन जीने की भारतीय कला की रीढ़ है । यही अभिजात्य व जनवादी चरित्रों का समन्वय भारतीय नीति, राजनीति,व कर्मनीति का आधार है ।'
              ' हाँ,  पराधीनता की बेड़ियों में अधर्मी, अहंकारी. व्यक्तिवादी , चारित्रिक रूप से कृषकाय विदेशी शासकों के शासन में  कुछ दुर्वल-चरित्र हुए भारतीय शासक या अभिजात्य वर्ग अपना जनवादी चरित्र भूलकर अपने शासकों का चरित्र अपनाने लगे थे और इसप्रकार की धारणाएं बनने लगीं जो तुम व्यक्त कर रहे हो ।'
              'और जयंत ! तुम भ्रम में हो । ये धाराएं वास्तव में देव- संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं क्योंकि न तो राम ही ब्रह्मण थे न कृष्ण ही, जबकि रावण ब्राह्मण था परन्तु ब्राह्मण विरोधी । राम व कृष्ण ब्राह्मण विरोधी नहीं थे । अम्बेडकर  तो तब थे ही नहीं तो वह धारा सदियों से हो नहीं सकती ।', सुमि ने कहा ।
              ' वस्तुतः वे ब्रह्म विरोधी, अर्थात ईश्वर नहीं है, मानव ही सब कुछ है, एवं ब्रह्मवादी  कि  ईश्वर है एवं मानव के अच्छे -बुरे कर्म का फल मिलता है , ये दो धाराएं हैं । और समानता का अर्थ समता नहीं हैं । यदि सब सामान होजायं, सारे पर्वत समतल कर दिए जायं; तो न मेघ बनेंगे, न वर्षा होगी, न नदी बहेगी न हरियाली होगी, न सागर न जीवन ।  राजा, मंत्री, प्रजा सबके अधिकार समान कैसे  हो सकते हैं?  बालक, वृद्ध, युवा सबसे समान व्यवहार नहीं किया जा सकता । वास्तव में समता-समानता के लिए ...सब समान हों या स्वतन्त्रता की नहीं अपितु सत्य, न्याय, यथायोग्य, यथोचित- व्यवहार, कर्तव्य व अधिकारों की बात  होनी चाहिए ।' सुमि ने आगे जोड़ा ।
                ' यदि मैं अपनी तरह से अर्थात खुलकर कहूं तो सारे स्त्री-पुरुष समान भाव होकर साथ-साथ नंगे सो सकते हैं क्या ?  यह तो तभी होसकता है जब या तो सभी संत बन जायं या जड-पदार्थ, अर्थात जीवन  रस रंग रहित पृथ्वी ...।'  ए के  जैन ने जोर जोर से हंसते हुए कहा ।
                'वास्तव में मुख्य बात तो वही है कि मानव-मानव में प्रेम व समरसता बढे;  जाति, धर्म, भेद भूलकर  राष्ट्र व मानवता के व्यवहार में सभी एक जुट होकर कार्य करें,  यही समता है और मानवतावादी धारा.... ब्रह्मधारा.... जीवन धारा । यदि बावा साहब भी इसी समता की बात करते हैं तो इसमें अनुचित क्या है ? ', मैंने जयंत की तरफ देखते हुए कहा,  ' कीप इट अप यार ! लैट द  डिस्कशन गो ऑन, इट ब्रिंग्स बटर फ्रॉम मिल्क ।'  चलने दो मित्र बहस जारी रहनी चाहिए ।'
             ' मथे न माखन होय ।'  सुमित्रा ने जोड दिया ।
             ' और जयंत जी , साम्प्रदायिकता व अहिंसा के बारे में आपके क्या विचार हैं ?' सुमि  ने पुनः विषय को छेड़ते हुए कहा ।
             ' मेरे विचार में  अशोक, अकबर व गांधी सच्चे अहिंसावादी थे , साम्प्रदायिकता विरोधी । हिंसा देखकर जिनका  ह्रदय परिवर्तन हुआ,करुणा जागृत हुई ।'  जयंत ने कहा ।
             ' हाँ सामान्यतः विचार यही है । पर इन तीनों का ह्रदय परिवर्तन व्यक्तिगत घटनाओं के कारण हुआ । स्वभावजन्य, स्वाभाविक परमार्थजन्य भाव से नहीं, जो भारतीय जन मानस के विचार की रीढ़ है, व्यवहार की धुरी है । यह जन्मजात स्वाभाविक भाव नहीं था अपितु, " नौ सौ चूहे खाय बिलाई हज को चली" बाली बात है । यह राम-कृष्ण वाली आदर्श स्थिति नहीं है । इसीलिये सभी जनमानस उन्हें महान तो मानता है कि " जब आँख खुले तभी सवेरा "   परन्तु सर्वकालीन आदर्श नहीं ..जैसे राम-कृष्ण को ।' मैंने स्पष्ट करते हुए कहा ।
              ' राम-कृष्ण , महाकाव्यों के पात्र भर हैं या वास्तविक व्यक्ति, इतिहास-पुरुष ?' जयंत ने अपनी शंका जाहिर की ।
              ' वैसे तो राम-कृष्ण कोई काल्पनिकं पात्र नहीं हैं अपितु इतिहास पुरुष हैं । कालान्तर में विभिन्न चमत्कारिक घटनाओं का इसे चरित्रों के साथ जुड़ जाना कोई नवीन तथ्य नहीं है । परन्तु साथ में ही यदि इन्हें काल्पनिक पात्र मान भी लें तो भी राम-कृष्ण कोई काल्पनिक व्यक्तित्व नहीं हैं, वे सदैव, हर युग में, समाज में होते हैं । काव्य व  साहित्य में पात्र का निर्धारण साहित्यकार कैसे करता है ? उसके पात्र समाज में सदैव ही होते हैं ।  कृतिकार उनके चरित्र को अपने मंतव्य व अनुभव के अनुसार कृति में  जीवंत करता है । वे पात्र जीवित विशिष्ट पुरुष या इतिहास पुरुष या जीवित सामान्य जन कोई भी होसकता है । हमारे भारतीय साहित्य, साहित्यिक कृतियों में काल्पनिक चरित्रों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । उसके लिए 'गल्प' नाम से पृथक विधा है जिसमें पात्र व काव्य पूर्णतया काल्पनिक होते हैं, यद्यपि तथ्य व विषय वस्तु , सामाजिक व काल सापेक्ष होते हैं । पाश्चात्य विद्याएँ -फेंटेसी  या वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित काल्पनिक विज्ञान कथाएं  इस श्रेणी में आती हैं ।'
                ' चलो वार्ड ड्यूटी पर जाना है ', सुमि ने ध्यान दिलाया  ।

                           **                             **                                     **

                                    " सामाजिक एवं प्रतिरक्षण विभाग"  के प्रोजेक्ट के तहत हम लोग चिकित्सा विद्यालय के समीप एक कालोनी में टीकाकरण-टीम बनाकर घर-घर घूम रहे थे । एक कालोनी में एक युवा महिला के तीसरे बच्चे को टीका लगाते हुए मैंने पूछा कि तीनों बच्चे स्वस्थ रहते हैं तो अचानक वह युवती हंसाने लगी । मैंने सिर उठाकर देखा तो वह मुस्कुराकर कहने लगी, ' तुम श्रीकिशन हो ना ?'
            ' हाँ, पर तुम ....?' मैंने आश्चर्य से प्रश्नवाचक नज़रों से पूछा ।
             'भूल गए हो, मंदिर वाला स्कूल, वेवकूफ भुलक्कड़ , वो थप्पड़ ....।'
            ' माया !.....तुम, यहाँ ! और ये तीन बच्चे ? तुमने तो अचानक स्कूल आना बंद कर दिया था ?'
             'चलो याद तो आया, मेरी सगाई हो गयी थी न ।'
             सगाई ! पांचवी क्लास में ?' मैंने आश्चर्य से पूछा ।
             ' अरे, मैं तो १३ साल की थी, तुमसे चार वर्ष बड़ी ।  तुम डाक्टर होगये हो न ।'
             सुमि हँसने लगी , " ओल्ड हेबिट्स डाई हार्ड ।"
             ' तुम्हारी शादी होगई ?' माया ने पूछा ।
             ' अभी ढूंढ रहे हैं,  तुम्हारे जैसी सुन्दर लड़की ।'  सुमित्रा खिलखिलाकर कहने लगी । माया मुस्कुराकर बच्चों को चुप कराती हुई अन्दर चली गयी ।
                ' मैं जानती हूँ तुम्हें कितना बुरा लगता है यह सब देखकर ।  पर वह तो सुखी है अपने संसार में । संतुष्ट व सुखी जीवन होना चाहिए, फिर चाहे जिस स्तर पर हो । यही महत्वपूर्ण है । सब्जबागों का कोई अंत नहीं है ।'  सुमि कहती गयी ।  
                 ' यद्यपि अधिकतर स्त्रियों की यही विडम्बना है अपने देश में । कम उम्र में शादी, जल्दी मातृत्व और कई बच्चे । तभी तो यहाँ  "शिशु व मातृ मृत्यु दर"  बहुत अधिक है ।' सुमि ने कहा ।  
                " व्हाट शुड बी डन ?" सुमित ने सोच कर कहा ।
               " सबको शिक्षा का प्रचार -प्रसार",  विशेषकर स्त्री शिक्षा, एक मात्र लॉन्ग-टर्म ( दूर गामी ) उपाय है । शार्ट -टर्म के रूप में "घर घर स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम" इसका उत्तर है ।' सुमि बताने लगी ।
               ' दैट इज व्हाई वी आर हीयर '...सुधा ने बात समाप्त करते हुए कहा ।
               पर सुमि बात समाप्त करने के मूड में नहीं थी । बोली, ' वैसे बात यहाँ समाप्त नहीं होती। स्त्री शिक्षा की कमी के कारण ही भारतीय समाज में तमाम कुप्रथाएँ प्रचलन में आगईं हैं ।  नारी शिक्षा  व स्वास्थ्य की अवहेलना का सीधा अर्थ है सारे परिवार, पुरुष, पति, बच्चे, पिता- सभी का सामंती युग में रहना, वैसा ही पारिवारिक एवं तदनुसार सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण ।  इसी वातावरण के चलते पढी-लिखी बहुएं, लड़कियां भी उचित व युक्ति-युक्त विरोध नहीं कर पाती  और पारिवारिक उत्प्रीडन, स्त्री को पैर की जूती  समझना व दहेज़ जैसी कुप्रथाएँ जिनके दूरगामी परिणाम स्वरुप बहुएं जलाना, बहुओं - लड़कियों द्वारा आत्महत्या आदि कुप्रथाएँ फ़ैली हुईं हैं ।  महिलाओं को स्वयं शिक्षित व जागरूक होकर इनसे डटकर लोहा लेना होगा ।  पुरुषों का भी दायित्व है की स्वयं के, भावी संतति के परिवार व देश- समाज के व्यापक हितार्थ महिलाओं का साथ दें । ताली दोनों हाथ से बजती है ।'
                 ' क्या मैंने कुछ गलत कहा, कृष्ण ?'
                 'हूँ '
                ' हूँ, क्या?  अभी  तक माया के ख्याल में खोये हुए हो ?'
                 'हाँ,  विसंगतियों के दो ध्रुवों पर मंथन कर रहा हूँ । एक तरफ माया, दूसरी तरफ सुमित्रा जी ।'
                             सब हँसने लगे तो सुमित्रा बोली , ' चलो चलो आगे चलो ।'

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                                            ' भारतीय थल सेना में विशेष शार्ट-सर्विस कमीशन का विज्ञापन आया है, चिकित्सा सेवा कोर के लिए । चतुर्थ वर्ष में ही द्वितीय लेफ्टीनेंट की पे व पोस्ट देंगे , फाइनल ईयर में केप्टन की । इंटर्नशिप भी नहीं करनी है सीधे पोस्टिंग । बाद में नियमित सेवा में भी आफर दिया जायगा ।' विनोद ने उत्साहित होते हुए बताया ।
               ' वाह ! एक फ़ार्म मेरे लिए भी ले आना ।' मैंने आग्रह किया ।
               दूसरे दिन सुमित्रा ने आकर हैरानी से पूछा ,' कृष्ण, क्या तुम भी सेना-चिकित्सा का फ़ार्म भरोगे ?'
               ' हाँ, क्यों ?'
              ' क्या क्या करोगे, केजी ? तुम वहां क्या करोगे ? वहां भी कविता करोगे क्या ।'
              ' क्यों ? क्या मैं यहाँ सिर्फ कविता करता हूँ, और कुछ नहीं, पढ़ता-लिखता नहीं हूँ क्या ? और क्या मैं  सेना में नहीं जा सकता ।'
              ' मेरा मतलब है', वह सकपका कर बोली, '  मिलिट्री का अनुशासन, नीरस लाइफ और केजी, कवि - ह्रदय  केजी,  समाज-सुधार की आवाज लगाते हुए, कृष्ण ।  क्या रुक पाओगे तुम वहां ?  वहां तो आर्डर होता है और पालन करना ।  न तर्क न व्याख्या ।'
               ' हुज़ूर, मुझे कोई लड़ना थोड़े ही है । डाक्टरी कहीं भी की जा सकती है । एक ही बात है ।'
               ' पर रिस्क फेक्टर तो है ही ।'
               तो यह बात है । किसी को तो रिस्क लेना ही पड़ता है । कर्नल साहब की भाँति। रिस्क फेक्टर तो सड़क चलते भी होता है  तो क्या चलना बंद कर देते हैं।?'
               'क्या कोई और कारण तो नहीं ?' सुमि कुछ रुक कर बोली ।
                ' अरे नहीं सुमि!,  मैं भी इन्द्रधनुषी जीवन का हर रंग, हर भाव, हर लम्हा जीना चाहता हूँ ।'
               ’ पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा । खैर जो इच्छा ।’
                           विनोद और मैं व सतीश चुन लिये गये । परन्तु कुछ समय बाद जब युद्ध विराम होगया तो वह स्कीम ही निरस्त होगयी । सुमि ने बडे उत्तेज़ित होते हुए बताया, ’ वह स्कीम ही केन्सिल होगयी, अब क्या ?  चलो अच्छा हुआ ।’
               ’ कहीं तुमने कोई षडयन्त्र करके तो कैन्सिल नहीं करवा दी ?’  मैने कहा तो वह आश्चर्य  से देखने लगेी ।
                ’ मेरा मतलब है कि तुम नही चाहती थीं और तुम्हारी  इच्छा पूरी होगयी । क्या वास्तव में प्रार्थना में इतनी शक्ति होती  है ?’
                 हां, सो तो है,  अगर मन से की जाय, वह मुस्कुराकर बोली ,’ चलो आज मैं काफ़ी पिलाती हूं ।’
                 हम भी चलेंगे,  और अपना-अपना पेमेन्ट नहीं करेंगे ।  हमारी भी तो नौकरी चली गयी है, मिलने से पहले ही ।  शायद केजी के चक्कर में।’  विनोद और  सतीश बोले ।        

                                       ------ अंक सात समाप्त ......क्रमश: अन्क आठ अगली पोस्ट में....          
            

   

गुरुवार, 22 मार्च 2012

जल दिवस बस यूंही मनाते जायंगे......

जल दिवस बस यूंही मनाते जायंगे ।
जल को पानी की तरह बहाते जायंगे।
जल रहे न रहे पीने को इंसान को -
जलजले तो यहाँ आते ही जायंगे ।।
 

बुधवार, 21 मार्च 2012

इन्द्रधनुष.....अंक सात -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....

                           


     
                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
 (शीघ्र प्रकाश्य....)....पिछले अंक छः  से क्रमश:......
   

                                                      अंक सात 
                           धीरे धीरे  जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि कहने लगी, 'कोई सफाई नहीं कृष्ण । भ्रम में जीने दो सभी को । परवाह नहीं । अधिकाँश तो बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ के पुजारी बनने वाले हैं । प्रेम, मित्रता, जीवन-दर्शन, मूल्य, संस्कृति , कला, सत्य, परमार्थ , साहित्य आदि व्यर्थ हैं , महत्वहीन  हैं उनकी कल्पना में । शायद मैं कुछ स्वार्थी होरही हूँ , तुम्हें यूज़ कर रही हूँ ; पर मेरे विश्वासी राजदार मित्र हो न, तुम्हारे साथ रहते कोई अन्य तो लाइन मार कर बोर नहीं करेगा न ।', वह आँखों में गहराई तक झांकते हुए कहती गयी ।
             मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने अचानक पूछ लिया, 'कोई गम या अविश्वास मन ही मन ?' 
            ' कभी एसा लगा?' मैंने प्रत्युत्तर में कहा ।
            'नहीं ।
            तो सुनो ,
                                  'ग़म की तलाश कितनी आसान है । सिर्फ ग़मगीन इंसान ही है जो खुदकुशी पर आमादा  होजाता है, वर्ना ये चहचहाते हुए परिंदे, ये लहलहाते हुए फूल अपनी मुख़्तसर सी ज़िंदगी में इतने गमगीन नहीं होते की खुदकुशी करलें ।'   
           
          ' वाह !  मीनाकुमारी पढ़ रहे हो आजकल ।' 
           'अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ ।'
           'हूँ, ......तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ----
                              
                              "  मैं हूँ लालच की मारी, ये पल प्यार के,
                                      चुनके सारे के सारे ही, संसार के,
                                           रखलूँ आँचल में अपने यूं संभाल के ।
                                               चाहती हूँ, कोई लम्हा रूठे नहीं ,
                                                       ज़िंदगी का कोई रंग छूटे नहीं ।।     
                और---
                                        " प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष ,
                                                 जो है कायनात पै सारी छाया हुआ।
                                                      प्यार के गहरे सागर में दो छोर पर,
                                                            डूबकर मेरे मन में समाया हुआ ।
                                                                उसके झूले में मैं झूलती हूँ मगन,
                                                                     सुख से लबरेज़ है मेरा मन मेरा तन ।।" 
         
              'वास्तव में  मेरी भी स्वार्थ पूर्ति होती है,  इसमें सुमि ! मैं कहा करता हूँ न कि हम सब कुछ  अपने लिए ही करते हैं ', मैंने कहा।
             ' क्या मतलब ?' 
             'घर वाले शादी की जल्दी नहीं करेंगे । जोर भी नहीं डाल पायेंगे ।' 
             'अच्छा, ये बात ! नहले पै दहला ।' वह खिलखिलाते हुए बोली , 'चलने दो ।'

                          **                             **                                  **

                                   'बड़ी सुन्दर एतिहासिक इमारत है और नदिया का किनारा , क्या बात है ।' सुमि इमारत के दरवाजे पर  आकर कहने लगी।  तभी सामने से साइकल पर 'अनु' कम्पाउंड के अन्दर आती हुई दिखाई दी । मुझे अचानक सामने देखकर हड़बड़ाहट में  ब्रेक लग जाने से साइकल फिसल गयी ।  मैंने तुरंत उसे उठाते हुए पूछा,  'चोट तो नहीं आई, लाओ देखें ।'  वह झटके से हाथ छुड़ाकर सुमि की और देखती हुई बोली, 'तुम यहाँ ?'
              ' मैं... क्या तुम मुझे जानती हो ?'  मैंने एकदम निर्विकार भाव से पूछा ।
              ' अच्छा शाम को घर आओ, तब  बताती हूँ ।', 'वैसे ये कौन हैं ?' उसने सुमित्रा की ओर इशारा किया ।
             ' ये डा सुमित्रा और मैं डा कृष्ण गोपाल । हम लोग डाक्टर हैं और मरीज़ ढूँढते रहते हैं ।  तभी तो पूछ रहा हूँ चोट तो नहीं आई,  देखें ।'  मैंने उसका हाथ पकड़ने का उपक्रम करते हुए कहा, ' ये हमारा फ़र्ज़ है न ।'
             अनु ने दूर होते हुए कहा, ' शाम को घर आकर फ़र्ज़ पूरा करना ।' और भुनभुनाते हुए चल दी, फिर मुड़ कर बोली , ' भूल गए हो तो बता देती हूँ, सामने ही है घर मेरा ।'
              ' क्या अधिकार है तुम्हारे ऊपर।  बड़ी प्यारी है, कौन है यह ।' सुमित्रा न पूछा।
              'अनु,  अनुराधा, मेरी बचपन की सखी ।'
              क्या बात है,  'लरिकाई कौ प्रेम कहो अलि कैसे छूटै  ।'  बड़े लकी हो तुम तो यार । तुम तो सचमुच ही.....  यारों के यार हो ।' मैंने स्वयं ही वाक्य पूरा किया तो सुमित्रा बोली, ' यस, इन्डीड '...तो यह है वो ।'
             'और तुम क्या हो ?'
             ' मैं तो कुछ भी नहीं हूँ केजी ।'  वह निश्वांस छोड़कर बोली,  'खैर, 'वो '  वो  ही रहेगी या.....????...बात आगे बढ़ेगी तो बहुत अच्छा रहेगा ।'
              ' आकाश-कुसुम ।'
              ' तुम या वह ?'
              ' परिस्थिति, सुमित्रा जी ।  मैं अभी काफी समय तक शादी की नहीं सोचता और अनु के घर वाले तब तक नहीं रुक पायेंगे ।'
              ' यद्यपि उसकी उम्र अधिक नहीं  है पर लगता है बहुत चाहती है तुम्हें ।  यह प्रेम का मामला होता ही एसा है ।'  सुमि बोली ।
              ' प्रेम..... मैंने हंसते हुए कहा ।  प्रेम क्या है, अभी से जानने लगी क्या अनु ?  यह कौतूहल, जिज्ञासा होती है एक आश्चर्यजनक नयी दुनिया के प्रति, विपरीत लिंगी के प्रति ।'
             ' अरे नहीं , केजी ! लड़कियां जल्दी मेच्योर हो जाती हैं।  प्रेम का अर्थ लड़कों से पहले जानने लगती हैं।'
             ' और लड़कों को फंसाकर प्राय: स्वयं फंस जाती हैं और बाद में दोनों ही पछताते हैं ', मैंने कहा ' विवाहेतर संबंधों का एक मूल कारण यह भी है ।  भारतीय समाज में तो  अधिक फर्क नहीं पड़ता था, यहाँ तो अपर-सम्बन्ध खूब चलते हैं और चुपचाप, सतही तौर पर,  मर्यादित -ताकि जिज्ञासा, कौतूहल एवं नयी उम्र की दुनिया से तादाम्य हो सके।  भाभी -देवर, जीजा-साली, सलहज़-जीजा...आदि के हँसीं-ठिठोली के पंजीकृत किन्तु मर्यादित, जाने-माने  भारतीय सन्दर्भ के सम्बन्ध - समाज में विपरीत लिंगी के प्रति आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का शमन करते हैं और  उदाहरणात्मक व  प्रयोगात्मक सन्दर्भ में एक प्रकार की सेक्स- एज्यूकेशन बनते हैं । परन्तु पश्चिमी जगत में दिखाने को खुले परन्तु वास्तव में अज्ञानपूर्ण विवाहेतर सम्बन्ध खुलेआम व अंतर्संबंध - वासनात्मक होकर तनावों को जन्म देते हैं ।'
             ' हूँ....शाम को पेशी है ।' सुमि हंस कर बोली ।
            ' सब होजायगा , डोंट वरी, वह मुझे अच्छी तरह जानती है '  
            ' आई नो.... आई टू नो ।' 
                                
                                           ----अभी बाकी है..... अंक सात  का शेष ...अगली पोस्ट में .....


            
   

सोमवार, 19 मार्च 2012

आयुर्वेद एक सारभूत वर्णन--- भाग- दो ...

                                    

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
               

        ( अन्य भारतीय ज्ञान व विद्याओं की भाँति भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी अत्यंत विकसित था । गुलामी के काल में अन्य ज्ञान व विध्याओं की भाँति सुनियोजित षडयंत्र व क्रमिक प्रकार से इसका भी प्रसार व विकास भी रोका गया ताकि एलोपेथिक आदि पाश्चात्य चिकित्सा को प्रश्रय दिया जा सके । अतः भारत के इतिहास के अन्धकार काल में आयुर्वेद का कोई उत्थान नहीं हुआ अपितु निरंतर गिरावट होती रही । हर्ष का विषय है की आज भारत के  नए भोर के साथ आयुर्वेद भी नए नए आयाम छू रहा है।  आयुर्वेद के नाम से जाना जाने वाला यह आदि चिकित्सा विज्ञान है, जिसके सारभूत सिद्धांतों से विश्व के सभी चिकित्सा-विज्ञान प्रादुर्भूत हुए हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी अंग-उपांग आयुर्वेद में पहले ही निहित हैं। यद्यपि आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति' के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता ।  इस क्रमिक पोस्ट द्वारा हम आयुर्वेद के इस विशद ज्ञान को संक्षिप्त में वर्णन करेंगे । ) 
                           
                                                  भाग -दो          

आयुर्वेद का अर्थ, मूल दर्शन-सिद्धान्त एवं प्राणी-मानव व उसके प्रत्येक संघटक का संक्षिप्त परिचय ----
        आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के अर्थों के अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने 'शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग' को आयु कहा है।  अत आयुर्वेद के सिद्धान्तों को जानने के लिये इन सभी को जानना आवश्यक है । इन चारों के संपत्ति (सद्गुण ) या विपत्ति (दुर्गुण ) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में  इसे चार प्रकार का माना गया है :
    आयु….
() सुखायु : किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धन-धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति को "सुखायु' कहते हैं।
() दुखायु : इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति को "दु:खायु' कहते हैं।
() हितायु : स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शांति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते हैं।
() अहितायु : इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं।
   \
      वेद …..शब्द का मूल अर्थ है ..ज्ञान…. सत्ता, लाभ, गति, विचार, प्राप्ति, ज्ञान  और ज्ञान के साधन आदि भी इसके अर्थ होते हैं,….।

  शरीर…
   १-रचना---(एनाटोमी)  समस्त  प्रक्रियाओं व चेष्टाओं, इंद्रियों, मन ओर आत्मा के आधारभूत पन्च भौतिक पिंड को शरीर कहते हैं मानव शरीर के स्थूल रूप में छह अंग हैं; दो हाथ, दो पैर, शिर और ग्रीवा, तथा अंतराधि (मध्यशरीर) इन अंगों के अवयवों को -प्रत्यंग कहते हैं,यथा---मूर्धा (हेड), ललाट, भ्रू, नासिका, अक्षिकूट (ऑर्बिट),) कर्ण (कान),गंड (गाल), जिह्वा (जीभ), स्तन आदि ।     
       इनके अतिरिक्त आन्तरिक अन्गों --हृदय, फुफ्फुस (लंग्स), यकृत (लिवर), प्लीहा (स्प्लीन), आमाशय (स्टमक), पित्ताशय (गाल ब्लैडर), वृक्क (गुर्दा, किडनी), वस्ति (यूरिनरी ब्लैडर), क्षुद्रांत (स्मॉल इंटेस्टिन), स्थूलांत्र (लार्ज इंटेस्टिन), गुदा (रेक्टम) आदि को ..कोष्ठांग कहते हैं
       सिर में सभी इंद्रियों और प्राणों के केंद्रों का स्थान मस्तिष्क (ब्रेन)है।
           आयुर्वेद ( एवं गर्भोपनिषद ) के अनुसार सारे शरीर में ३००८ अस्थियां हैंतथा संधियाँ (ज्वाइंट्स) २००, स्नायु (लिंगामेंट्स) ९००, शिराएं (ब्लड वेसेल्स, लिफ़ैटिक्स ऐंड नर्ब्ज़) ७००, धमनियां (क्रेनियल नर्ब्ज़) २४ और उनकी शाखाएं २००, पेशियां (मसल्स) ५०० (स्त्रियों में २० अधिक) तथा सूक्ष्म स्त्रोत ३०,९५६  व साडे चार करोड रोम और १०७ मर्म स्थान  हैं।
    २-धातुयें व क्रिया-शास्त्र-( फ़िज़िओलोजी) --- आयुर्वेद के अनुसार शरीर में रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन), ये  सात धातुएं  हैं। -----
-----आहाररूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि,( आमाशय व आन्त्रों में पाचन क्रिया digestion )- भूताग्नि ( शरीर के आन्तरिक तन्त्र में रासायनिक प्रक्रियायें---एसीमिलेशन ) और विभिन्न धात्व अग्नियो ( धातुओं के स्वयं के आन्तरिक रासायनिक प्रक्रिया –internal mileu ) द्वारा परिपक्व  होकर अनेक परिवर्तनों (chemical changes) के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर इन धातुओं का पोषण करता है। ……..इस पाचनक्रिया में आहार का जो सार भाग होता है उससे रस धातु का पोषण होता है और जो व्यर्थ-भाग बचता है उससे मल (विष्ठा) और मूत्र बनता है। ……यह रस हृदय से होता हुआ शिराओं( circulation system) द्वारा सारे शरीर में पहुँचकर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान करता है। ………धात्वग्नियों से पाचन होने पर… रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा धातुओं के स्वयं के व्यर्थ भाग  से मलों (शरीर द्वारा त्याज्य भाग) की उत्पत्ति होती है…. जैसे रस से कफ; रक्त पित्त; मांस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल;  मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर के और दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल) और मज्जा से आंख का कीचड़ मलरूप में बनते हैं शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल) की उत्पत्ति होती है।
       इन्हीं रस आदि  धातुओं से अनेक उपधातुओं की भी उत्पत्ति होती है, यथा रस से दूध, रक्त से कंडराएं (टेंडंस) और शिराएँ, मांस से वसा (फ़ैट), त्वचा ,मेद से स्नायु (लिंगामेंट्स), अस्थि से दांत, मज्जा से केश और शुक्र से ओज नामक उपधातु की उत्पत्ति होती है।
        ये धातुएं और उपधातुएं विभिन्न अवयवों में विभिन्न रूपों में स्थित होकर शरीर की विभिन्न क्रियाओं में उपयोगी होती हैं। जब तक ये उचित परिमाण और स्वरूप में रहती हैं और इनकी क्रिया स्वाभाविक रहती है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये न्यून या अधिक मात्रा में तथा विकृत स्वरूप में होती हैं तो शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
         शरीर की उत्पत्ति---उचित परिस्थिति में शुद्ध रज और शुद्ध वीर्य का संयोग होने और उसमें आत्मा का संचार होने से माता के गर्भाशय में शरीर का आरंभ होता है। इसे ही गर्भ कहते हैं। माता के आहारजनित रक्त से अपरा (प्लैसेंटा) और गर्भनाड़ी के द्वारा, जो नाभि से लगी रहती है, गर्भ पोषण प्राप्त करता है। यह गर्भोदक( प्लेसेन्तल सैक) में निमग्न रहकर उपस्नेहन द्वारा भी पोषण प्राप्त करता है तथा प्रथम मास में कलल (जेली) और द्वितीय में घन होता है? तीसरे मास में अंग प्रत्यंग का विकास आरंभ होता है। चौथे मास में उसमें अधिक स्थिरता जाती है तथा गर्भ के लक्षण माता में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं। इस प्रकार यह माता की कुक्षि में उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ जब संपूर्ण अंग, प्रत्यंग और अवयवों से युक्त हो जाता है, तब प्राय: नवें मास में कुक्षि से बाहर आकर नवीन प्राणी के रूप में जन्म ग्रहण करता है।
----गर्भोपनिषद के अनुसार………रितुकाले सम्प्रयोगादक रात्रौषितं कललं भवति , सप्त रात्रौषितं बुद्बुद भवति, अर्ध मासान्तरे पिण्डो भवति..। सप्त मासान्तरे जीवेन संयुक्तो भवति…अष्ठं मासे सर्व लक्षणो सम्पूर्ण भवति ।
   इंद्रिय--- मानव शरीर कुछ अवयवों से सिर्फ़ कार्य-विशेष ही सम्पन्न  होता है उनमें उस कार्य के लिए शक्तिसंपन्न एक विशिष्ट सूक्ष्म रचना  होती है।  शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन बाह्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्रमानुसार कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये अवयव इंद्रियाश्रय अवयव (विशेष इंद्रियों के अंग) कहलाते हैं और इनमें स्थित विशिष्ट शक्तिसंपन्न सूक्ष्म वस्तु को इंद्रिय कहते हैं। ये क्रमश: पाँच हैं-श्रोत्र, त्वक्‌, चक्षु, रसना और घ्राण इन पांचों इंद्रियों को ज्ञानेंद्रिय कहते हैं। इनके अतिरिक्त विशिष्ट कार्यसंपादन के लिए पांच कमेंद्रियां भी होती हैं, जैसे- पैर, हाथ, जिह्वा, गुदा और शिश्न (स्त्रियों में भग)  इन इंद्रियों की अपने कार्यों में मन की प्रेरणा से ही प्रवृत्ति होती है। मन से संपर्क होने पर ये निष्क्रिय रहती है।
    मन------ जिसे ११वीं इन्द्रिय भी कहाजाता है। मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, अत्यंत द्रुतगति वाला और प्रत्येक इंद्रिय का नियंत्रक होता है। किंतु यह स्वयं भी आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है।
------प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति  -सात्विक, राजस या तामस  होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से अन्य गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। इसीलिए सात्विक मन को शुद्ध, सत्व या प्राकृतिक माना जाता है और रज तथा तम उसके दोष कहे गए हैं।
------आत्मा से चेतनता प्राप्त कर प्राकृतिक या सदोष मन अपने गुणों के अनुसार इंद्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है और उसी के अनुरूप शारीरिक कार्य होते हैं। आत्मा -मन के द्वारा ही इंद्रियों और शरीर के अन्गों को प्रवृत्त करता है, क्योंकि मन ही उसका करण (इंस्ट्रुमेंट) है।  केनोपनिषद  में प्रश्न है…”केनेषितं पतति प्रेषितं मन:-“---मन किस के द्वारा प्रेरित होकर कार्य करता है…..उत्तर है –“श्रोतस्य श्रोत मनसो मनो..”  जो मन का भी मन है ..अर्थात आत्मा ।
आत्मा
       आत्मा पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्‌, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है, क्योंकि स्वयं निर्विकार तथा निष्क्रिय है। इसके संपर्क से सक्रिय किंतु अचेतन मन, इंद्रियों और शरीर में चेतना का संचार होता है और वे सचेष्ट होते हैं आत्मा में रूप, रंग, आकृति आदि कोई चिह्न नहीं है, किंतु उसके बिना शरीर  अचेतन होने के कारण निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मृत कहलता है तथा उसके संपर्क से ही  उसमें चेतना आती है तब उसे जीवित कहा जाता है और उसमें अनेक स्वाभाविक क्रियाएं  होने लगती हैं; जीवन के लक्षण, जैसे श्वासोच्छ्वास, कटे हुए घाव भरना आदि… मन की गति, एक इंद्रिय से हुए ज्ञान का दूसरी इंद्रिय पर प्रभाव होना (जैसे आँख से किसी सुंदर, मधुर फल को देखकर मुँह में पानी आना),  विषयों का ग्रहण -इच्छा, द्वेष, सुख, दु:, प्रयत्न, धैर्य, बुद्धि, स्मरण शक्ति, अहंकार आदि शरीर में आत्मा के होने पर ही होते हैं; आत्मारहित मृत शरीर में नहीं होते। अत: ये आत्मा के लक्षण कहे जाते हैं, आत्मा का इन लक्षणों से अनुमान मात्र किया जा सकता है मानसिक कल्पना के अतिरिक्त किसी दूसरी इंद्रिय से आत्मा का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं  है।
       यह आत्मा नित्य, निर्विकार और व्यापक होते हुए भी पूर्वकृत( या पूर्वजन्मकृत)  शुभ या अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप जैसी योनि में या शरीर में, जिस प्रकार के मन और इंद्रियों तथा विषयों के संपर्क में आती है वैसे ही कार्य होते हैं। उत्तरोत्तर अशुभ कार्यों के करने से उत्तरोत्तर अधोगति होती है तथा शुभ कर्मों के द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति होने से, मन के राग-द्वेष-हीन होने पर, मोक्ष की प्राप्ति होती है।
     पन्चमहाभूत और आयुर्वेद का दर्शन------ भारतीय  दार्शनिक सिंद्धांत के अनुसार संसार के सभी  भौतिक –अभौतिक पदार्थपृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश  इन पांच महाभूतों  के संयुक्त होने से बनते हैं इनके अनुपात में भेद होने से ही उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त धातु, उपधातु और मल  भी यही भौतिक पदार्थ हैं। शरीर के समस्त अवयव और सारा शरीर पंच-भौतिक ही  है। ये सभी अचेतन हैं।  जब इनमें आत्मा का संयोग होता है तब उसकी चेतनता में इनमें भी चेतना आती है।

    आयुर्वेद और नैतिष्ठकी चिकित्साएक विशिष्टता--
---- आत्मा निर्विकार है, किंतु मन, इंद्रिय और शरीर में विकृति हो सकती है और इन तीनों के परस्पर सापेक्ष्य होने के कारण एक का विकार दूसरे को प्रभावित करता है। इन्हें प्रकृतिस्थ रखना या विकृत होने पर प्रकृति में लाना या स्वस्थ करना परमावश्यक है। तभी दीर्घ सुख और हितायु की प्राप्ति होती है, जिससे क्रमश: आत्मा को भी जन्म मृत्यु और भवबंधनरूप रोग से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है, जो आयुर्वेद में नैतिष्ठकी चिकित्सा कही गई है। । विचारों, रहन–सहन, सन्स्क्रिति, समाज के नीति नियमन द्वारा स्वास्थ्य व चिकित्सा आयुर्वेद का एक विशिष्ट चिकित्सा भाव है। गर्भिणी माँ को अच्छे विचार, कथायें , सुन्दर चित्र दिखाना , प्रसन्न रखने में यही भाव है ।
 
             ------क्रमश: भाग तीन ...अगले अन्क में...