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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 14 मई 2016

हर बात पर कहते हो कि तू क्या है ---

                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 



                   हर बात पर कहते हो कि तू क्या है ---


        किसी आलेख में गालिव के जन्मस्थान आगरा में उनके निजी मकान का कोई पक्का चिन्ह न होने परन्तु उस स्थान पर बड़ी हवेली एवं किसी गर्ल्स स्कूल के होने का उल्लेख से बचपन की स्मृतियों के द्वार खुलने लगते हैं | मेरा जन्मस्थल आगरा जिले के ग्राम मिढाकुर है परन्तु
परन्तु जमींदारी समाप्त होने पर हम लोग आगरा चले आये अतः मेरा सम्पूर्ण शैशव एवं बचपन आगरा में ही बीता है |
 


        कालामहल में बड़े साहब की पुश्तैनी बड़ी हवेली की दुकानों में एक दुकान मेरे पिताजी की भी थी | बड़े साहब नगर के बड़े वकीलों में थे | सुनते रहते थे कि यह हवेली मुग़लकाल के बाद अंग्रेजों के कब्जे में आई और किसी अँगरेज़ बड़े साहब ने वकील साहब के पितामह को उनकी सेवा हेतु उपहार में देदी थी| आजकल वकील साहब ही बड़े साहब थे| कालामहल में यह प्रसिद्द हवेली थी, और वकील साहब का व्यवहार अँगरेज़-साहबों की भांति ही था यथा महंगी केप्स्टन की सिगरेट सदा मुंह में लगाये रहना, बच्चों का अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ना, अंग्रेज़ी बोलना, देशी वस्तुओं पर नाक-भौं सिकोड़ना, सामान्यजन से दूरी बनाये रखना |


युवा गालिव 

कडाही का हलुवा

भाड़ व भड़भूजा
यद्यपि अब आमदनी का ज़रिया केवल दुकानों से आने वाली किराए की आय ही रह गयी थी परन्तु साहबी अन्दाज़ अभी भी बाकी थे| मैं कभी कभी दुकान पर चला जाया करता था और कभी कभी किराया या वकीलसाहब को सिगरेट देने कोठी के अन्दर भी | उनके पुत्र-पुत्रियाँ भी साहबी अकड़ में ही रहा करते थे, यद्यपि हवेली का दुकांन से उधार-खाता भी चलता था | बाज़ार में अन्य दुकानदारों आदि से भी उनका यही व्यवहार था|  


        हमारी दुकान के सामने वाली कतार में इन्द्रभान गर्ल्स स्कूल था जो नगर का प्रतिष्ठित स्कूल था| कुछ अन्य दुकानें तथा साथ में ही एक भाड़ था जिस पर चने-मूंगफली आदि भूने जाते थे साथ ही साथ शकरकंद भी | | शायद यह बिल्डिंग भी हवेली वालों की ही थी जिसे किसी अन्य को बेच दिया गया था | 


         भड़भूजा बड़े शायराना अंदाज़ वाला था( यह मैं अपने आज के विचार-अंदाज़ से कह रहा हूँ, उस समय तो प्राइमरी कक्षा के छात्र को कुछ पता ही नहीं था, बस अच्छा मजेदार लगता था )  जो बड़े काव्यमय अंदाज़ में भुने हुए शकरकंद को ‘जलवा ही जलवा है, कड़ाही का हलुवा है’ कहकर बेचा करता था, और हम बच्चे लोग उसकी नक़ल बनाया करते थे | खरीददार एवं आप-पास के अन्य निवासी भी इसी प्रकार शायराना, काव्यमय भाषा प्रयोग करते थे | कई बार अन्य दुकानदारों व भड़भूजे से भी बड़े साहब की नोंक–झोंक होजाया करती थी| उनकी साहबी तेवरों पर पीठ पीछे लोग हंसा भी करते थे | भड़भूजे से तकरार पर कई बार वह यह भी कहा करता था,—आप तो- ‘हरेक बात पर कहते हो कि तू क्या है... हुज़ूर हम भी इंसान हैं, रोज कमाते-खाते हैं तो क्या |’ 


        उस समय न मुझे शायरी का पता था, न शायर का, न गालिव का, न गालिव की शायरी का | परन्तु आज मुझे लगता है कि मेरी खुशनसीबी है | अवश्य ही यह वही स्थान होगा जहां गालिव ने जन्म लिया, पढ़े व बड़े हुए | तभी तो उनके प्रशंसक हर तबके के लोग थे, चाहे वे दिल्ली में जाकर बस गए, वहीं मशहूर हुए, परन्तु आगरा व दिल्ली का सांस्कृतिक रिश्ता तो अटूट था| 



आज का इन्द्रभान गर्ल्स इंटर कालिज


न रहा बचपन वो हसरतो-आरजू के दिन 
न वो जुस्तजू न अंदाज़े-गुफ्तगू के दिन |