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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

हिन्दी भाती नहीं या मिलती नहीं ? हिन्दुस्तान २०-०२-०९

सत्य यही है की युवाओं को बताया ही नहीं गया की अच्छा साहित्य या साहित्य होता ही क्या है ,कार्पोरेट सेक्टर पर लिखी 'ब्रेक के बाद ' या चेतन भगत व शिव खेडा की कितावें साहित्य नहीं अपितु युवाओं को उड़ान व सपने बेच कर अपना धंधा कर उल्लू सीधा करने का बाजारवाद है , अंग्रेजियत का हिन्दीकरण है । साहित्य --असाहित्य ,साहित्य ,व सत्साहित्य होता है। प्रोफेशनल , विषय पर या बाज़ार मैबेचने के लिए ही लिखागया तथा फ़िल्म हिट होनेपर देवदास आदि का बिकना सब -असाहित्य बढावा है । शोभा डे ,खुसबंत सिंह आदि वास्तव मैं कनेक्ट फेक्टर ही हैं ,साहित्यकार नहीं । युवा वन सिटिंग बुक चाहते हैं हिन्दी मै । क्यों हों ?साहित्य समाज को कुछ देने वाला , सुधार की बात ,आप क्या ग़लत कर रहे हैं ,बताने वाला होता है । टाइम पास करने को नहीं । सत्साहित्य -आपको क्या करना चाहिए -क्या नहीं ,यह कहता है ,वन सिटिंग तमासा नहीं ,जो असाहित्य होता है।
क्या ही खूब कहा है आलोचक वीरन्द्र यादव ने साहित्य और पल्प मैं अन्तर रहना ही चाहिए । साहित्य तेजी से नहीं बदल सकता और क्यों बदले वह कोई फेशन या अंग प्रदर्शन या कपडा नहीं है जो आपको अच्छा लगने के लिए बदलता रहे । वह समाज को स्थायित्व देने वाला अंग है । सही है लेखक का काम मार्केटिंग व प्रचार करना नहीं है , पब्लिशरों का है ,पर वे तो धंधे मैं लगे हैं ,चाहे अपना देश, अपनी भाषा ,अपनी संस्कृति को ही क्यों न बेचना पड़े ।
सब धंधे का , बाज़ार का, पैसे का खेल है , क्योंकि हमारी पीढी ने तेज़ी से दौड़ , के चक्कर मैं अगली
पीढी को ,साहित्य, संस्कृति , देश, राष्ट्र , सही -ग़लत का चुनाव करने की द्रष्टि प्रदान नहीं की। हमारी पीढी को जो अच्छा लगता है वह करती जाती है और जब ग़लत होता है तो हम चिल्लाने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते । इसे कहते हैं अपने पेरों पर कुल्हाडी मारना । अब तो चेतें । हिन्दी साहित्य पढ़ें और युवा अपनी पहली पीढी को
क्षमा करके स्वयं को सुधारें ,अपनी अगली पीढी के लिए।

बाप रे बाप -नक्कारखाना --हिन्दुस्तान २०-०२-२००९

क्या बात है ! भारतीय पिता न हुआ , हर भारतीयता की तरह जल्लाद , लुटा पिटा मूर्ख विषय होगया । यह वास्तव मैं ही नक्कारखाना है। पिटाई स्ट्रेस -बस्टरकी तरह है, भारतीय पिताके लिए । यानी यह भी परम्परा है तथा भारतीय जो गरियाने के ही काविल है सभी भारतीय बातों की तरह । कब उतारें गे अंगरेजी का काला चश्मा ? यदि सदा से ही भारतीय बाप पीटते आए हैं तो बच्चे आज अधिक क्यों बिगड़ रहे हैं ? लेखक महोदय आज कितने बाप पीट पाते हैं बच्चों को ? क्या योरोपीय व अमेरिका मैं बच्चों को पीटने पर क़ानून बनाने का यह अर्थ नहीं है की वहाँ बच्चों पर ज्यादा कडाई व जुल्म किए जाते हैं ? फ़िर भी सभी पश्चिमी देशों में बच्चे बिगडे हुए हैं । अगर पिता , माता , गुरु आदि की रोक-टोक व अवश्यक्तावश पिटाई भी ,भारत मैं भी रुक गयी तो यहाँ भी स्कूली बच्चे गोली चलाने लगेंगे , यह प्रारम्भ भी हो रहा है आप के जैसे लेखों से। पुनः सोचिये भारतीय चश्मे से जो बीस हज़ार साल का अनुभव वाला है , नाकि पश्च चश्मा जो अभी ३०० वर्ष का ही है।