....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सभ्यताओं के संघर्ष के मूल कारण—(१)-आर्थिक –जिसमें बाज़ार, जमीन-क्षेत्र-राज्य के अधिग्रहण..फ़ैलाव का भाव होता है। प्राचीन कबीले-युद्ध व आजकल के आर्थिक द्वन्द्व इनका उदाहरण हैं। (२)-आचरण अशुचिता- मूलतः स्त्रियां—जैसे स्पार्टा-युद्ध, (३)- वैचारिक भिन्नता—जिनका कारण -मज़हब, पन्थ, धर्मान्धता, धर्मपरिवर्तन जो मूलत संसकृतियों के टकराव का कारण होते है (४) अहं —…..अध्यात्म व परमार्थ भाव से परे अतिभौतिकता – व्यक्तिगत सुख-भाव से समष्टिगत या व्यष्टिगत—टकराव …आतन्कवाद आदि इसी के जनक हैं। जो आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में चरम पर हैं।
यद्यपि यह कहा जाता है कि ..यह सब तो सदैव व हर युग में होता ही है। सदा ही हमें आज का युग अन्धेरा व पुरायुग उजियारा लगता है। पर वास्तव में एसा नहीं है…तभी तो भारत में काल-निर्धारण अर्थात क्रमिक “चतुर्युगी” की अवधारणा है। आचरण-अनाचरण, कम-आधिक्य के अनुसार-सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग । क्योंकि निश्चय ही आचरण कालान्तर में क्षीण होते जाते हैं। यह पाश्चात्य संस्कृति में नहीं है, जो मूलतः खाओ-पियो –मौज उडाओ... कौन देखता है ... पर आधारित है । इसीलिये यहां पुनर्जन्म की भी अवधारणा प्रचलित है।
सभ्यताओं का संघर्ष विश्व में सदा चलता रहा है, जिसमें विश्व की न जाने कितनी सभ्यतायें मृत-प्रायः हुईं, नष्ट हुई, लुप्त होगयीं, विजयी संस्कृति द्वारा नष्ट कर दी गईं । भारत में भी यह संघर्ष सदा से होता आया है, विदेशी आक्रमण भी हुए | परन्तु यह भारतीय-संस्कृति क्यों आज तक अक्षुण्ण रही? अपितु समय के साथ गतिमान,-विकामान होती गयी। क्योंकि यह विनाश में नहीं अपितु विरोधी व विरोधी विचारों से समन्वय में, युद्ध में नहीं अपितु मिलन व शान्ति में विश्वास का भाव रखने वाली संस्कृति है। तलवार के साथ-साथ कलम की शक्ति में विश्वास वाली संस्कृति है। तभी तो यहां वेद, इतिहास, पुराण, उपनिषदों की रचना हुई, सभी में मूलतः यही भाव रहा । घर घर रखी जाने वाली रामायण, महाभारत जैसे युद्ध-काव्यों में भी मूलतःयही भाव प्रमुख है। गीता जैसी कृति में भी युद्ध की विभीषिका का गहन चित्रण है। अत: भारत से कबीले युद्ध न जाने कब के समाप्त प्राय: होगये जबकि विश्व के अन्य भागों में अभी भी सुने जाते हैं।
भारत में भी युगों से ये संघर्ष चलते रहे हैं। कबीले-युद्ध, इन्द्र के युद्ध, देवासुर-सन्ग्राम, आर्य-अनार्य युद्ध, आर्य-द्रविड युद्ध, शैव-वैष्णव युद्ध से लेकर शक, हूण, तुर्क-मुगल आक्रमण से लेकर योरोपीय् देश व अन्ग्रेज़ों के आक्रमण तक। परन्तु भारत अपने आध्यात्मिक इतिहास, मानवीय मूल्यों और समन्वयवादी सांस्कृतिक संमृद्धि व सबको आत्मसात करने की प्रवृत्ति के कारण हर बार अधिक और अधिक समृद्ध, उन्नत, विकासशील व प्रभावी होकर आगे आया है। सभी अन्य संस्कृतियों को इसमें विलीन होजाना पडा । जो यहां का था मिलगया, जो बाहर के आया था उसे भी यहीं का होकर रह्जाना पडा । इस सर्वग्रासी संस्कृति ने सभी को आत्मसात करलिया, और स्वयं हर बार एक और अधिक उन्नत प्रगतिशील अग्रगामी बन कर निखरी जो विश्व के लिये एक मानक है।
यद्यपि योरोपीय व अन्ग्रेज़ों की स्थिति कुछ भिन्न थी। वे सिर्फ़ व्यापारी थे अतः लूट का धन अपने देश भेजना ही उनका उद्देश्य था। अतः वे यहां समन्वित नहीं होपाये। वे चालाक भी थे। उन्होंने मुगल काल में बर्बर लोगों द्वारा अशोभनीय तरीके से तलवार के बल पर भारतीय लेखनी व मनीषा के विनाश व संक्रांति काल का लाभ उठाकर, स्वयं भारतीय तत्व भाव – तलवार के साथ-साथ कलम की उपयोगिता का उपयोग उसी के विरुद्ध करके तलवार व कलम दोनों का प्रयोग किया और योजनाबद्ध तरीके से भारतीय मनीषा को झुठलाकर पाश्चात्य-संस्कृति को बढाचढाकर कलम-बद्ध किया। अतः भारतीयों ने तो योरोपीय तत्व ग्रहण किये परन्तु उन्होंने नहीं, अतः उन्हें भारत छोडकर जाना पडा, वे यहां आत्मसात नहीं होपाये। भारत का सूर्य फ़िर से उसी भाव में चमकने को आतुर है।
आज जो आतन्कवाद की समस्या है वह विचारों का सन्घर्ष ही है। विश्वव्यापी है । यह पश्चिम की भोगवादी व्यव्स्था, व्यक्तिवादी सोच व युद्ध्वादी व्यवहार का परिणाम है; जो शस्त्रों, अणुशस्त्रों, बन्दूक-बमों की झन्कार-टन्कार से नहीं अपितु भारतीय संस्कृति में अपनाये गये, युग-प्रभावी, प्रमाणिक भाव- परमार्थ-अध्यात्म-समन्वयवाद आधारित वैचारिक-अध्यात्म क्रान्ति द्वारा ही नियमित की जा सकती है। निश्चय ही आगे आने वाले समय में भारत अपनी अध्यात्मिक- वैचारिक क्रान्ति द्वारा विश्व में शान्ति-ध्वज़ फ़हरायेगा और लोग धमाकों की भाषा के स्थान पर शान्ति वार्ताओं की बात करेंगे।
---डा श्याम गुप्त, के-३४८, आशियाना, लखनऊ .. ९४१५१५६४६४...