....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पिचकारी के तीर
गोरे गोरे अंग पै, चटख चढि गये रंग,
रंगीले आंचर उडैं, जैसें नवल पतंग ।
चेहरे सारे पुत गये, चढे सयाने रंग,
समझ कछू आवै नहीं, को सजनी को कंत ।
लाल हरे पीले रंगे, रंगे अंग - प्रत्यंग ,
कज़्ज़ल-गिरि सी कामिनी, चढौ न कोऊ रंग।
गोरे गोरे अंग पै, चटख चढि गये रंग,
रंगीले आंचर उडैं, जैसें नवल पतंग ।
चेहरे सारे पुत गये, चढे सयाने रंग,
समझ कछू आवै नहीं, को सजनी को कंत ।
लाल हरे पीले रंगे, रंगे अंग - प्रत्यंग ,
कज़्ज़ल-गिरि सी कामिनी, चढौ न कोऊ रंग।
चन्चुमुखी पिचकारि ते, वे छोडें रंग धार,
वे घूंघट की ओट ते , करें नैन के वार ।
लकुटि लिये सखियां खडीं, बदला आज चुकायं,
सुधि-बुधि भूलीं श्याम जब ले पिचकारी धायं ।
आज न मुरलीधर बचें, राधा मन मुसुकायं,
दौडी सुधि बुधि भूलकर, मुरली दयी बजाय ।
भये लज़ीले श्याम दोऊ, गोरे गाल गुलाल,
गाल गुलाबी होगये, भयो गुलाल रंग लाल ।
होली खेली लाल नै, उडे अबीर गुलाल,
सुर,मुनि,ब्रह्मा,विष्णु,शिव,तीनों लोक निहाल।
भरि पिचकारी सखी पर, वे रंग बान चलायं,
लौटें नैनन बान भय, स्वयं सखा रंगि जायं ।
भ्रकुटि तानि बरजै सुमुखि, मन ही मन ललचाय,
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रंगि जाय ।
भक्ति ग्यान औ प्रेम की, मन में उठै तरंग,
कर्म भरी पिचकारि ते, रस भीजै अंग-अंग ।
एसी होली खेलिये, जरै त्रिविधि संताप,
परमानन्द प्रतीति हो, ह्रदय बसें प्रभु आप ।
लौटें नैनन बान भय, स्वयं सखा रंगि जायं ।
भ्रकुटि तानि बरजै सुमुखि, मन ही मन ललचाय,
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रंगि जाय ।
भक्ति ग्यान औ प्रेम की, मन में उठै तरंग,
कर्म भरी पिचकारि ते, रस भीजै अंग-अंग ।
एसी होली खेलिये, जरै त्रिविधि संताप,
परमानन्द प्रतीति हो, ह्रदय बसें प्रभु आप ।
यह वर मुझको दीजिये, चतुर राधिका सोय,
होरी खेलत श्याम संग, दर्शन श्याम को होय ॥