पंथ ,सेक्ट व अपने -अपने धर्म बनाने से मानव ,ईश्वर (-मानवता,विशाल हृदयता,उदारता ,जोवास्तव में ईश्वर व ईश्वर के गुण हैं )-को भूल कर एकांगी सोच वाला होजाता है। वह उन पंथों आदि के कर्म कांडों में ही उलझ कर रह जाता है,महानात्माओं को चाहिए की वे केवल ईश्वर के गुण ,उनको जीवन में उतारने की आवश्यकता व उपायों पर ही गुण-गान करें । वैसे अधिकतर संत ,महात्मा कभी कोई पंथ बनाने को नहीं कहते ,अपितु आगे आने वाले अनुयायी ये ग़लत कार्य करते हैं ।
-- महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म चलाया ,लोग उसके कर्म कांडों में फंसकर रहगये ,ईश्वर ( बौद्ध वैसे भी अनीश्वर वादी धर्म है ), व मानवता पीछे छूट गए। जैन धर्म ने भी क्या-क्या झगडे आदि नहीं किए । ईसा ने कब कहा चर्च बनाने को ,बस खुदा की राह चलो , आगे लोगों ने चर्च,ईसाई धर्म बनाकर खुदा भुलादिया ,मोमबत्ती जलाना याद रहा ; मूसा,मोहम्मद ने अल्लाह की राह पर ही चलने को कहा ,लोगों ने कुरान ,इस्लाम बनाकर मनुष्य को मनुष्य से दूर किया ';नानक ने सिख पंथkओं बनाकर लोगों को गुरुद्वारे में मत्था टेकना सीमित कर ईश्वर से दूर करदिया ;राम कृष्ण ने काली पूजा , भक्ति वेदांत स्वामी ने इस्कोन आदि से लोगों को प्रपंचों में व्यस्त करके वस्तुतः इश्वर से दूर ही कर दिया।शिरडी,साईं बावा , गायत्री व आजकल के संतों ,महंतों के आश्रम सभी उसी कोटि ke हैं। इन सब में उलझकर मनुष्य भ्रमित,गर्वित,व्यक्तिनिष्ठ , ईश्वर के किसी एक गुण में निष्ठ रह जाता है। अर्थात ईश्वर जीवन से गायब । तथा आश्रमों ,धन का प्रभाव,धार्मिक अहम् का टकराव ,मठाधीश आदि माया प्रभाव प्रारंभ होजाते हैं।
कबीर ने केवल राम नाम भजने को कहा ,अपना जुलाहा कर्म न छोडा ; रैदास ने कोई आश्रम बनाने की बजाय राम का नाम व अपना काम -चमार का -करते रहना न छोडा।
स्वयं राम ने कब कोई धर्म या पंथ बनाया ,जीवन भर आदर्शों पर चलने ,वेदों,शास्त्रों ,मर्यादा पर चलने की राह दिखाई ;;कृष्ण ने कब कहा कि मेरे मन्दिर बनाओ ,कब नया धर्म चलाया , स्वयं को वेद,शास्त्र,मानवता,नीति,व्यवहार ही बताते व उन पर चलते रहे।
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- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
सोमवार, 29 जून 2009
धारा ३७७,समलेंगिकता ,सेक्स शिक्षा व माता पिता की शर्त --
सम लेंगिकता के पक्षधर कहरहे हैं कि इसा क़ानून के हटाने से लोग अनावश्यक पुलिश उत्प्रीणन से बचेंगे। क्या मूर्खतापूर्ण ,अदूरदर्शी दलील है ,ऐसे ही लोग यह दलील दे सकते हैं ,मूर्खतापूर्ण बात के समर्थक । पुलिस तो चोरी,डकैती,ह्त्या ,बलात्कार सभी कानूनों में उत्प्रीणन करती है ,तो क्या पुलिस को,आदमी को ,स्वयं को सुधारने की बजाय ये सब क़ानून हटा दिए जायं,सभी अपराधों में पुलिस के डर से सब क़ानून , या फ़िर पुलिस को ही हटा दिया जाय ???????????????????????
इधर सेक्स शिक्षा में माता-पिता की सहमति -शर्त है कि लड़कों को लडके व लड़कियों को महिलायें ही पदायें । यह व्यवस्था क्या समलेंगिकता को और प्रश्रय नहीं देगी।सारे पब्स ,डांसिंग स्कूल,जिम,पार्लर्स ,मसाज़ केन्द्र आदि ही तो यह सब फेलाने के केन्द्र हैं । सेक्स शिक्षा स्कूलों में हो ही क्यों ? क्या वैसे ही स्कूलों पर कोर्स के बोझ कम हैं । माता-पिता ,भाई-भाभी , बहनें ,मित्र आदि आख़िर क्यों है ? क्या युगों से आज तक विना स्कूलों के यह शिक्षा सभी को मिलरही है या नहीं ?आज ऐसी क्या नवीन परिस्थिति उत्पन्न हुई है की यह प्रश्न उठा है ,इस पर राष्ट्र- व्यापी बहस होनी चाहिए। माता पिता क्यों अपना दायित्व नहीं निभाना चाहते ? धन कमाने की भूख में ,समयाभाव के कारण ?
वास्तव में सेक्स शिक्षा की नहीं ,संयम ,सदाचार ,ब्रह्मचर्य ,युक्ति-युक्त सोच व व्यवहार की शिक्षा की आवश्यकता है , स्कूलों में ,घरों में ।
इधर सेक्स शिक्षा में माता-पिता की सहमति -शर्त है कि लड़कों को लडके व लड़कियों को महिलायें ही पदायें । यह व्यवस्था क्या समलेंगिकता को और प्रश्रय नहीं देगी।सारे पब्स ,डांसिंग स्कूल,जिम,पार्लर्स ,मसाज़ केन्द्र आदि ही तो यह सब फेलाने के केन्द्र हैं । सेक्स शिक्षा स्कूलों में हो ही क्यों ? क्या वैसे ही स्कूलों पर कोर्स के बोझ कम हैं । माता-पिता ,भाई-भाभी , बहनें ,मित्र आदि आख़िर क्यों है ? क्या युगों से आज तक विना स्कूलों के यह शिक्षा सभी को मिलरही है या नहीं ?आज ऐसी क्या नवीन परिस्थिति उत्पन्न हुई है की यह प्रश्न उठा है ,इस पर राष्ट्र- व्यापी बहस होनी चाहिए। माता पिता क्यों अपना दायित्व नहीं निभाना चाहते ? धन कमाने की भूख में ,समयाभाव के कारण ?
वास्तव में सेक्स शिक्षा की नहीं ,संयम ,सदाचार ,ब्रह्मचर्य ,युक्ति-युक्त सोच व व्यवहार की शिक्षा की आवश्यकता है , स्कूलों में ,घरों में ।
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