....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...    
१- वायु चक्र --  ऋग्वेद -३/२८/२६८८...  के अनुसार ----
  "मातरिश्वा यदमिमीते मातरि | वातस्या मर्गो अभ्वात्सरी माणि ||" ---अर्थात   एक स्थान पर वायुमंडल में उपस्थित अग्नि (  उच्च ताप ) वायु में तरंगें , लहरें उत्पन्न होने का कारण हैं | स्थानीय ताप बढ़ने से निम्न वायु-दाब होने पर वायु की तरंगें उठती हैं और अधिक वायु दाब वाले स्थान से उस स्थान की और वायु चलने लगती है | इस प्रकार वायु चक्र बनाने से हवा बहती रहती है |
२-गीत-संगीत से पोधों में वृद्धि -  ऋग्वेद ३/८/२२२९ -- में ऋषि कहता है ---
 "अन्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तो वनस्पते मधुना देव्येन | 
यदाध्वार्श्तिशठा द्रविणोह धत्तायद्वा क्षयो मातुरस्य उपस्थे |"  ---  अर्थात....हे  वनस्पति देव ! देवत्व के अभिलाषी ऋत्विक गण यज्ञ में आपको दिव्य मधु  व गान ( यज्ञीय प्रयोग... गान.. इन्द्रगान ...साम- गान...संगीत आदि  ) से सिंचित करते हैं | आप चाहे उन्नत अवस्था में हों ( पौधा..वृक्ष रूप ) या पृथ्वी की गोद में ( बीज अवस्था में ) , वृद्धि को प्राप्त हों , हमें एश्वर्य प्रदान करें |
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
