....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्री अभय खुरासिया का उपरोक्त आलेख निश्चय ही आखें खोलने वाला है , हमें निश्चय ही गहनता से सोचना होगा, जैसा वे कहते हैं .." जिम्मेदारी युवा पर ही क्यों डालदी जाती है | सांस्कृतिक शून्यता का जिम्मेदार कौन? हमारे वरिष्ठ व जिम्मेदार तब कहाँ थे जब एम् टीवी, एफ टीवी,व तमाम दूषित तस्वीरों, विचारों का आगाज़ हो रहा था | हमारे बच्चे हिंसा, मादकता , सनसनी को देख कर बड़े होरहे हैं| जैसे बीज बो रहे हैं वैसे ही अंकुर फूटेंगे |" ......
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ..जहां तक मुझे अभय का चित्र व युवाओं की वकालत करने से लगता है कि वे एक युवा हैं ... अर्थात यह युवाओं का वक्तव्य है .... अपनी वरिष्ठ पीढ़ी पर उचित मार्गदर्शन न् करने हेतु ..... और यह एक कटु-सत्य भी है | .तो बात यहाँ और भी गंभीर होजाती है, तथा समाज व मानवता के लिए एक चेतावनी...खतरे की घंटी ....
इस प्रकार वे अपनी युवा -आकांक्षा व पहले वाली पीढ़ी पर आक्षेप के साथ मूलतः आई पी एल को बंद करने के विचारों पर असहमत प्रकट करते हैं |
परन्तु साथ ही साथ यद्यपि शायद अनुभव-ज्ञान की कमी के कारण उनके विभिन्न कथ्य स्वयं ही विपरीतार्थक हैं, कंट्रोवर्शियल ........यथा-----
१-वे एक तरफ कहते हैं ..."समस्या का समाधान ताला लगाने में नहीं है वरन ताला खोल सूक्ष्म शल्य क्रिया में है|"
---- परन्तु फिर ताले का आविष्कार ही क्यों हुआ ?
इसके विपरीत भाव में वे कहते हैं कि .." जब सामाजिक मापदंड ही भौतिकता है तो युवा भटकेगा ही "
.........अर्थात सामाजिक तालों की, मापदंडों की आवश्यकता है "|
२- वे एक तरफ कहते हैं .." खिलाड़ी धन के तट पर बना रहे, पर साथ ही मूल्यों के सेतु को भी मज़बूत करता चले "......वहीं दूसरी ओर कहते हैं कि..."मोह-माया से परे सोचना एक अवस्था के बाद ही आता है |"
----निश्चय ही वह अवस्था आते आते सब नष्ट होजायागा | सब कुछ गलत-सलत करलेने के बाद यदि कुछ सोचा तो क्या लाभ |
वस्तुतः यदि अनुभव व ज्ञान से सोचा जाय तो युवा लेखक भूल जाते हैं कि --मानव मन एक वायवीय तत्त्व है एवं विषयों में शीघ्र गिरता है ...जैसा कि वे स्वयं स्वीकार करते हैं ..."हमारा नैसर्गिक स्वभाव है कि हमें नकारात्मक बातें ज्यादा आकर्षित करती हैं".....अतः सर्जरी की नौबत ही क्यों आये , पहले से ही रोकथाम के उपाय होने चाहिए | "प्रीवेंशन इज बैटर देन क्योर "... जैसा कि वे पहली पीढ़ी पर दोषारोपण के साथ स्वयं ही स्वीकार करते हैं ......" .....हमारे वरिष्ठ व जिम्मेदार तब कहाँ थे जब एम् टीवी, एफ टीवी,व तमाम दूषित तस्वीरों, विचारों का आगाज़ हो रहा था | हमारे बच्चे हिंसा, मादकता , सनसनी को देख कर बड़े होरहे हैं| जैसे बीज बो रहे हैं वैसे ही अंकुर फूटेंगे |" ....... अतः निश्चय ही मानव मन को दूषित करने वाले साधनों को ही बंद कर देना चाहिए ...मूलतः वे जो किसी भी प्रकार से सामाजिक लाभ में सहायक नहीं हैं ...और अतिरिक्त आर्थिक लाभ सदैव असामाजिक होता है | अति-भौतिकता, मोह-माया उत्पन्न करता है, उसकी और खींचता है |
अतः आई पी एल जैसे ( व अन्य उल-जुलूल डांस, गायन, देह-प्रदर्शन , अदि कला व प्रगतिशीलता के नाम पर होने वाले व्यर्थ के ) आयोजनों को निश्चय ही बंद कर देना चाहिए | साथ ही साथ आज की प्रौढ़ व अनुभवी पीढ़ी को अपनी गलतियों , गलत योजनाओं , गलत आचरणों पर सोचना चाहिये व उचित समाधानार्थक उपाय करने चाहिए | अन्यथा भविष्य की पीढ़ी अपनी बर्वादी हेतु उन्हें कभी माफ नहीं करेगी |
ऑफ द फील्ड ---अभय खुरासिया का आलेख -राजस्थान पत्रिका ....संदर्भ -आईपीएल .. |
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ..जहां तक मुझे अभय का चित्र व युवाओं की वकालत करने से लगता है कि वे एक युवा हैं ... अर्थात यह युवाओं का वक्तव्य है .... अपनी वरिष्ठ पीढ़ी पर उचित मार्गदर्शन न् करने हेतु ..... और यह एक कटु-सत्य भी है | .तो बात यहाँ और भी गंभीर होजाती है, तथा समाज व मानवता के लिए एक चेतावनी...खतरे की घंटी ....
इस प्रकार वे अपनी युवा -आकांक्षा व पहले वाली पीढ़ी पर आक्षेप के साथ मूलतः आई पी एल को बंद करने के विचारों पर असहमत प्रकट करते हैं |
परन्तु साथ ही साथ यद्यपि शायद अनुभव-ज्ञान की कमी के कारण उनके विभिन्न कथ्य स्वयं ही विपरीतार्थक हैं, कंट्रोवर्शियल ........यथा-----
१-वे एक तरफ कहते हैं ..."समस्या का समाधान ताला लगाने में नहीं है वरन ताला खोल सूक्ष्म शल्य क्रिया में है|"
---- परन्तु फिर ताले का आविष्कार ही क्यों हुआ ?
इसके विपरीत भाव में वे कहते हैं कि .." जब सामाजिक मापदंड ही भौतिकता है तो युवा भटकेगा ही "
.........अर्थात सामाजिक तालों की, मापदंडों की आवश्यकता है "|
२- वे एक तरफ कहते हैं .." खिलाड़ी धन के तट पर बना रहे, पर साथ ही मूल्यों के सेतु को भी मज़बूत करता चले "......वहीं दूसरी ओर कहते हैं कि..."मोह-माया से परे सोचना एक अवस्था के बाद ही आता है |"
----निश्चय ही वह अवस्था आते आते सब नष्ट होजायागा | सब कुछ गलत-सलत करलेने के बाद यदि कुछ सोचा तो क्या लाभ |
वस्तुतः यदि अनुभव व ज्ञान से सोचा जाय तो युवा लेखक भूल जाते हैं कि --मानव मन एक वायवीय तत्त्व है एवं विषयों में शीघ्र गिरता है ...जैसा कि वे स्वयं स्वीकार करते हैं ..."हमारा नैसर्गिक स्वभाव है कि हमें नकारात्मक बातें ज्यादा आकर्षित करती हैं".....अतः सर्जरी की नौबत ही क्यों आये , पहले से ही रोकथाम के उपाय होने चाहिए | "प्रीवेंशन इज बैटर देन क्योर "... जैसा कि वे पहली पीढ़ी पर दोषारोपण के साथ स्वयं ही स्वीकार करते हैं ......" .....हमारे वरिष्ठ व जिम्मेदार तब कहाँ थे जब एम् टीवी, एफ टीवी,व तमाम दूषित तस्वीरों, विचारों का आगाज़ हो रहा था | हमारे बच्चे हिंसा, मादकता , सनसनी को देख कर बड़े होरहे हैं| जैसे बीज बो रहे हैं वैसे ही अंकुर फूटेंगे |" ....... अतः निश्चय ही मानव मन को दूषित करने वाले साधनों को ही बंद कर देना चाहिए ...मूलतः वे जो किसी भी प्रकार से सामाजिक लाभ में सहायक नहीं हैं ...और अतिरिक्त आर्थिक लाभ सदैव असामाजिक होता है | अति-भौतिकता, मोह-माया उत्पन्न करता है, उसकी और खींचता है |
अतः आई पी एल जैसे ( व अन्य उल-जुलूल डांस, गायन, देह-प्रदर्शन , अदि कला व प्रगतिशीलता के नाम पर होने वाले व्यर्थ के ) आयोजनों को निश्चय ही बंद कर देना चाहिए | साथ ही साथ आज की प्रौढ़ व अनुभवी पीढ़ी को अपनी गलतियों , गलत योजनाओं , गलत आचरणों पर सोचना चाहिये व उचित समाधानार्थक उपाय करने चाहिए | अन्यथा भविष्य की पीढ़ी अपनी बर्वादी हेतु उन्हें कभी माफ नहीं करेगी |