....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
-----ऋग्वेद -मंडल ४/सू. १६/ २३२७.... में ऋषि का कथन है कि....
" """""""यानि कृत्सेन सरथम वस्यु स्तोये वातस्य हर्योरीशान: |
ऋज्रा वाजं न गध्यं युयूषांक विहर्य हन्यामपि भूयात ||"-------
अर्थात--- जब दूरदर्शी कुत्स योग्य अन्न की भाँति ऋजुता-सरलता को अपनाकर पार होने के लिए तत्पर होता है तब उसके रक्षण की कामना से इन्द्रदेव उसीके रथ पर सवार हो जाते हैं |
-----कुंठाग्रस्त साधक( या किसी भी कर्म में रुकावट से आतंकित होकर रुक जाने वाला मानव ) जब अपनी दूरदर्शिता का प्रयोग करके सहज भाव से अपनी कुंठा के कारणों( मार्ग की रुकावटों को स्वयं दूर करने का प्रयत्न ) को दूर करने के लिए संकल्पित होता है( स्वयं उठा खड़ा होता है, इच्छा शक्ति का प्रयोग करता है ) तो इन्द्रदेव--अर्थात उसका स्वयम की शक्ति आत्म-संकल्प=आत्मबल = सेल्फ भी उसका मनोरथ पूर्ण करने के लिए. उसके साथ होजाते हैं, उसका साथ देने लगते हैं |