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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

सृष्टि महाकाव्य ...द्वितीय सर्ग...उपसर्ग...डा श्याम गुप्त ..

                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... रचयिता --डा श्याम गुप्त ....)

सृष्टि महाकाव्य- द्वितीय सर्ग-उपसर्ग -( प्रस्तुत सर्ग में आज की स्वार्थपरकता से उत्पन्न अभिचार, द्वंद्व, अशांति क्यों है मानव ने ईश्वर को क्यों भुलादिया है एवं उसके क्या परिणाम हो रहे हैं और सृष्टि जैसे दार्शनिक विषय को कोई क्यों जाने-पढ़े इस पर विवेचन किया गया है । )


उपसर्ग
.
नर ने भुला दिया प्रभु नर से,
ममता
बंधन नेह समर्पण;

मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति-अभियंत्रण।
अति सुख अभिलाषा हित जिसको,
स्वयं उसी ने किया सृजन था।।
.
निजी स्वार्थ के कारण मानव,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का;
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से,
उसका लालच नहीं सिमटता;
चीर कलेजा, स्वर्ण खजाना,
पाना चाहे एक साथ ही।
.
सर्वश्रेष्ठ है कौन ? व्यर्थ,
इस द्वंद्व-भाव में मानव उलझा;
भूल गया है मानव ख़ुद ही ,
सर्वश्रेष्ठ कृति है, ईश्वर की ।
सर्वश्रेष्ठ, क्यों कोई भी हो ,
श्रेष्ठ क्यों न हों,भला सभी जन।।
.
पहले सभी श्रेष्ठ बन जाएँ,
आपस के सब द्वंद्व मिटाकर;
द्वेष,ईर्ष्या,स्वार्थ भूलकर,
सबसे समता भाव निभाएं;
मन में भाव रमें जब उत्तम,
प्रेम भाव का हो विकास तब।।
.
जनसंख्या के अभिवर्धन से,
अनियंत्रित यांत्रिकी करण से;
बोझिल-बोझिल मानव जीवन।
 
भार धरा पर बढ़ता जाता,
समय-सुनामी की चेतावनि,
समझ न पाये,प्रलय सुनिश्चित।
.
जग की इस अशांति क्रंदन का,
लालच लोभ मोह बंधन का;
भ्रष्ट-पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों?इस यक्ष-प्रश्न(१)का,
एक यही उत्तर, सीधा सा,
भूल गया नर आज स्वयं को।।
.
क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें शत्रु मित्र में;
ब्रह्म समाया कण-कण में वह|
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फ़िर क्या अपना और पराया।
.
सोच हुई है सीमित उसकी,
सोच पारहा सिर्फ़ स्वयं तक;
त्याग, प्रेम उपकार-भावना,
परदुख,परहित,उच्चभाव सब ;
हुए तिरोहित,सीमित है वह,
रोटी कपडा औ मकान तक।।
.
कारण-कार्य,ब्रह्म औ माया(२)
सद-नासद(3) पर साया किसका?
दर्शन और संसार प्रकृति के ,
भाव नहीं अब उठते मन में;
अन्धकार-अज्ञान में डूबा,
भूल गया मानव ईश्वर को।।
१०.
सभी समझलें यही तथ्य यदि,
हम एक बृक्ष के ही फल हैं;
वह एक आत्म-सत्ता, सबके,
उत्थान-पतन का कारण है;
जिसका भी बुरा करें चाहें,
वह लौट हमीं को मिलना है।।
११.
हम कौन?,कहाँ से आए है?
और कहाँ चले जाते हैं सब?
यह जगत-पसारा कैसे,क्यों?
और कौन? समेटे जाता है।
निज को,जग को यदि जानेंगे,
तब मानेंगे, समता भाव ।।
१२.
तब नर,नर से करे समन्वय ,
आपस के भावों का अन्वय;
विश्व-बंधुत्व की अज़स्र धारा;
प्रभु शीतल करदे सारा जग,
सारा हो व्यापार सत्य का,
सुंदर, शिव हो सब संसार ॥

-----कुंजी ....
{ (१)=ज्वलंत समस्या का प्रश्न ; (२)=वेदान्त दर्शन का द्वैत वाद -ब्रह्म व माया, दो सृजक-संचालक शक्तियां हैं; (३)=ईश्वर व प्रकृति -हैं भी और नहीं भी ( नासदीय सूक्त -ऋग्वेद )
       क्रमश:.सृष्टि महाकाव्य..तृतीय सर्ग...सद-नासद खंड..अगली पोस्ट में

सृष्टि -अगीत विधा महाकाव्य-- प्रथम सर्ग ---डा श्याम गुप्त ....

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



             सृष्टि - (   ईषत इच्छा या बिग बेंग -एक अनुत्तरित -उत्तर ) --- 
अगीत विधा महाकाव्य-

रचयिता----डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम संस्करण -- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य-   -७५/-
              अगीत विधा में ब्रह्माण्ड  की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति  के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा, अतुकांत, लय-वद्ध )


प्रथम-सर्ग --वन्दना 
१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें  लेखनी में गति, गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि', सृष्टि के।
कृपा  'श्याम  पर करें उमासुत ,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर।।

-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ !  ब्रह्मा को हुआ स्मरण'' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

-शास्त्र -
हम  कौन, कहाँ से  आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न, मानव का।
देते  हैं, जो  वेद - उपनिषद् ,
समुचित उत्तर; श्याम' उन्ही की,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति, सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो  वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित,
चिदाकास  में  बैठा - बैठा,
संकेतों से  करे  व्यवस्था,
करूं  वन्दना पुष्पार्पण कर ॥

५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में,  उस इच्छा की,
करूँ  वन्दना पुष्पार्पण कर॥

६- अपरा -माया --
कार्यकारी  भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम' सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में  सदा  उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज-रूप हेमांड'५' अवस्थित;
जगपालक, धारक, महाविष्णु,
कमल-नाल  ब्रह्मा को धारे;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

९-शंभु-महेश्वर --
आदिशंभु - अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते  मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने   को  सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ  वन्दना  पुष्पार्पण कर॥

११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो  कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपा भाव,  धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

( =सृष्टि-ज्ञान का स्मरण ,=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा,  = आदि-मूल शक्ति,  ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष, क्षीर सागर, मन ; =स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड;  =मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ;  = सरस्वती की कृपा से ज्ञान का पुनः स्मरण )


                              -सृष्टि महाकाव्य... क्रमशः ---द्वितीय सर्ग  -- उपसर्ग ...अगली पोस्ट में....