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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 27 मई 2019

श्याम स्मृति २६ से ३० तक------डा श्याम गुप्त

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..

श्याम स्मृति २६ -सभ्यता-संस्कृति की उन्नति-अवनति एवं देवासुर संग्राम ....
        एसा कुछ नहीं है कि हमने कभी कुछ नहीं बनाया, जैसा कि हमारे कुछ युवा कहते हैं जो पश्चिम से चकाचौन्धित हैं | जब हम यह कहते हैं तो भूल जाते हैं कि मानव इसी भूभाग पर प्रादुर्भूत हुआ, पला, बढ़ा, उन्नत हुआ एवं समस्त संसार में फैला| सारी प्रारम्भिक खोजें हमने ही की हैं | जब पृथ्वी के अन्य महाद्वीपों में जंगल थे, जंगली असभ्य मानुष रहते थे तब हम उन्नत थे | एक समय पश्चात उन्नत, आत्मोन्नत, दर्शन–धर्म-कला युत व्यक्ति व समाज, देश आलसी व असावधान होजाता है | स्वार्थ व छल-छंदों से दूर, परमार्थ उसे सुहाने लगता है सब अपने जैसे सरल, सहज लगते हैं और फिर जंगली-असभ्य, क्रूरकर्मा सभ्यता-संस्कृति उसपर हावी होकर वलात अधिकार कर लेती है | वही हुआ.... क्रूर, अर्धसभ्य, जंगली मुस्लिम-यूरोपियन आक्रान्ताओं द्वारा बलात अधिग्रहण के पश्चात गुलामी के अँधेरे में भारत डूबा रहा | सभ्यता, उन्नति व विकास हेतु शान्ति व स्वाधीनता आवश्यक है |
        देवासुर संग्रामों में बार बार असुरों द्वारा देवों पर विजय व देवलोक पर अधिकार के पश्चात—ब्रह्मा, विष्णु व शिव द्वारा सदैव देवों की सहायता से पूर्व उनके कर्मच्युत होने व विलास डूबे रहने की भर्त्सना की जाती है, उसका यही अर्थ है|  यह बार बार होता है, यह विश्व-क्रम है |
       फिर इस सब अति-भौतिक ताम-झाम की कौन सी एसी अत्यावश्यकता है जो इसके लिए हम उसे ईजाद करें और जबरदस्ती  भोगें भी | सभी को वही दाल, चावल, सब्जी-कपड़ा, जूते चाहिए, जिसके यहाँ जो बनता है वही अपनाए -खाए| आप जब विदेश जाएँ तो जो वहाँ है वह अपनाएं-खाए | बड़े-बड़े लखनवी नबाव भी बड़े खाने-पीने-पहनने के शौक़ीन थे, बर्वाद होगये | कौन रोज रोज ये सब खाता-पहनता है | सिर्फ कभी-कभी  के लिए इतना झंझट, ताम-झाम |
          और यदि आप स्वयं ही विदेशी वस्तुओं, तौर-तरीकों का उपयोग करते रहेंगे तो देशी विकास कैसे होगा ? आप तो क़र्ज़ लेकर घी पीते रहें दूसरे खोज करें, देशी वस्तुओं को बनाने में जुटे रहें, ये कैसे होगा | यदि हमारी पीढ़ी की गलती है कि हमने कुछ नहीं बनाया तो आप उससे सबक लें न कि और आगे जाकर उसी में बहने लगें | युवा सोचें व करें |
श्याम स्मृति-२७. कला, संगीत, काव्य, संस्कृति का धर्म, जाति व भाषा ....
        प्रायः लोग कहते हैं कि कला, संगीत, काव्य, संस्कृति का कोई धर्म, जाति या भाषा नहीं होती ,पर होती है | धर्म, जाति, भाषा स्वयं में संस्कृति का रूप होते हैं | सभ्यता–भौतिक उन्नति, रहन-सहन है- संस्कृति –आत्मिक, आध्यात्मिक, भावनात्मक सम्पूर्ण प्रगति को कहते हैं | संस्कृति व धर्म का भाषा व व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है | सभ्यता व संस्कृति को अंग्रेज़ी में ‘कल्चर’ कहा जाता है | अब एक उदाहरण लीजिये--अंग्रेज़ी शब्द ‘सॉरी’ ’आई एम् सॉरी’ का हिन्दी अर्थ है ’दुःख’ अथवा ‘मुझे दुःख है,’ मैं दुखी हूँ’ परन्तु हिन्दी में यहाँ ‘मुझे खेद है‘ या हिन्दुस्तानी में ’मुझे अफसोस’ है कहा जाता है |  अब खेद या अफसोस, दुःख नहीं है |  दुःख जब होता है जब हम जानबूझकर त्रुटि करते हैं, त्रुटि को रोकना हमारे वश में नहीं| अनजाने में हुई त्रुटि के लिए खेद उपयुक्त है |
     यही अंतर है एवं फर्क पड़ता है, भाषा, संस्कृति व धर्म का, गीत, संगीत, काव्य, कला व व्यवहार पर | 
श्याम स्मृति-२८. बंधन ही स्वतन्त्रता है .....
            बंधन क्या है, मुक्ति क्या है, स्वतन्त्रता क्या है ? क्या सांसारिक कर्तव्य, कृतित्व, दायित्व बंधन हैं ? गृहस्थी, पारिवारिक सम्बन्ध, आपसी संवंध या स्त्री-पुरुष के प्रेम व विवाह या दाम्पत्य संवंध बंधन हैं ? क्या इन बंधनों से मुक्त व स्वतंत्र होकर जीवन-संगीत का आनंद लिया जा सकता है | क्या स्त्री-पुरुष आपसी बंधनों से मुक्त होकर जीवन-सुख का वास्तविक आनंद उठा सकते हैं|
       नहीं - जिस प्रकार वीणा के तारों का दोनों छोरों पर बंधन एवं आवश्यक व उपयुक्त कसाव मधुर संगीत के लिए आवश्यक है अन्यथा तारों का कसाव या तनाव अधिक होगा तो टूटने का अवसर रहेगा, तार ढीले होंगे तो संगीत उत्पन्न ही नहीं होगा| उसी प्रकार जीवन है, जीवन व्यवहार, दाम्पत्य जीवन, स्त्री-पुरुष संवंध के संगीतमय व मधुमय होने हेतु दोनों छोरों पर समुचित बंधन एवं समुचित दृड़ता आवश्यक है तभी मानव उन्मुक्त जीवन व्यतीत कर सकता है |
      मुक्ति प्राप्ति की इच्छा या योग व अनुशासन भी तो एक बंधन ही है | योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं जीवन भर कर्म व पारिवारिक, सांसारिक बंधनों में बंधे रहे, हाँ लिप्त नहीं रहे जो बंधन व मुक्ति दोनों के लिए ही अत्यावश्यक है और योगेश्वर का ही आदेश है गीतामृत रूप में|
    अतः बंधन आवश्यक है, हाँ तारों को दोनों छोरों पर समुचित रूप से कसे हुए होने चाहिए ताकि जीवन पूर्ण स्वतन्त्रता व उन्मुक्तता से जिया जा सके| यही बंधन मानव को अनिर्बन्धित–बंधित करता है, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है |    
       शब्द की शक्ति अनंत व रहस्यात्मक भी है। चाहे गद्य हो या पद्य-किसी भी शब्द के विभिन्न रूप व पर्यायवाची शब्दों के कभी समान अर्थ नहीं होते। (जैसा सामान्यतः समझा जाता है। ) यथा--
"
प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता। परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भावसंप्रेषण दृष्टि से देखें तो –
१..बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध-कठोर वर्ण है।
२.रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता का बोध देता है।
         प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
         एक अन्य शब्द को लें -क्षण एवं पल--दौनों समानार्थी हैं । परन्तु क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और पल = भावात्मक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
श्याम स्मृति ३०. आज की कविता -भावशब्द व कथ्य....
         मीराबाई को राणा जी द्वारा सताए जाने पर परामर्श रूप में तुलसी ने कहा...
जाके प्रिय न राम वैदेही |
ताजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही |
        आज का कवि इस सन्दर्भ में परामर्श देता तो क्या कहता.....
‘राजा मस्त पिए बैठा है
करता अत्याचार |
भक्ति में रोड़े अटकाए ,
रानी बैठी मुंह लटकाए ;
त्याग करे यदि राजा का वो-
तभी मिले सुख-चैन ,
करे भक्ति दिन-रैन,
छोड़ कर बैठे सब घर द्वार |

         भाव, तथ्य व अर्थार्थ वही है ..परन्तु भाषा व कथ्य–शिल्प...जिसे लट्ठमार भी कहा जा सकता है | यह असाहित्यिकता है | सत्य है कि यह आज के समाज की हताशा, निराशा, कटुता, कठिनाइयां, सामयिक परिस्थितयां काव्य में झलकती हैं, पर ये सारी परिस्थितियाँ तो समाज में सदा ही रहती हैं, इनको परिलक्षित कविता भी कही जाती है किन्तु यदि कवि ही अपनी भाषा व कथ्य भाव पर सौम्य, साहित्यिक, सत्यं शिवं सुन्दरं दृष्टि नही रखेगा तो सामान्य जन क्या व्यवहार करेगा | फिर वह कविता ही क्या जिसमें भाव, कथ्य व शिल्प सौन्दर्य न हो |

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