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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 21 जून 2013

दोहे.. चित्र-विचित्र ... डा श्याम गुप्त......

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


        

माँ तेरे ही चित्र पर, नित प्रति पुष्प चढ़ायं, 
मिसरी सी वाणी मिले, मंत्री पद पा जायं | 

जबसे कुर्सी मिल गयी, मुखर बैन गए होय,
विक्रम टीले पर चढ़ा, ग्वाला विक्रम होय |

चाहे करौ प्रशंसा, करो प्रेम संवाद ,
पर पानी की बालटी भरना मेरे बाद |

झूठेहि  पब्लिक मांग कहि, फोटो नग्न खिचायं ,
बोल्ड  सीन देती रहें,  हीरोइन बन  जायं |

तेल पाउडर बेचते, झूठ बोल इठलायं,
बड़े महानायक बने, मिलें लोग हरषायं |

खींच-तान की ज़िंदगी वे धनहीन बितायं,
खींच-तान की ज़िन्दगी, वे धन हेतु बितायं |

इक दूजे को लूटते, लूट मची चहुँ और,
चोर सभी, समझें सभी, इक दूजे को चोर |

धन साधन की रेल में, भीड़ खचाखच जाय,
धक्का-मुक्की धन करे, ज्ञान कहाँ चढ़ पाय |

निज को मेल-मिलाप के, लम्बरदार बतायं,
असली पय घृत खाद्य का, नक़ल से मेल करायं  |

अपनी लाज लुटा रही, द्रुपुद-सुता बाज़ार,
इन चीरों का क्या करूं, कृष्ण खड़े लाचार |

ईश्वर अल्लाह कब मिले हमें झगड़ते यार,
फिर मानव क्यों व्यर्थ ही,करता है तकरार ||