....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
नीति सप्तक ( ब्रज भाषा )
छंद जो अपनौ हो लिखौ, माला निज गुँथ पाय,
चन्दन जो निज कर घिसौ, सो अति सोभा पाँय |
छिपौ न कछु कवि दृष्टि तें, कहा न नारि कराय,
कहा न बकि है मद्यपा , कौआ कहा न खाय ||
धरम करम व्यौहार हित, बरन बनाए चार,
अज्ञानी और स्वारथी, करहिं भेद व्योहार ||,
कूकुर देखै मांस कों, कामी तिरिया रूप ,
जोगी निन्दित काम सम, देह एक ही रूप ||
सींग धरें औ नख धरें, शस्त्र धरें निज पास ,
राजपुरुष नद नारि कौ, करें नहीं विशवास |,
वेद शास्त्र औ धरम रत, निज की नहिं पहचान ,
जैसे करछी पाक में , सकहि न रस कों जान ||
मन कौ मैल जो धूलि गयो, श्याम सोई स्नान ,
इन्द्रिय सब बस में रहें , सोई शुचिता जान |
नीति सप्तक ( ब्रज भाषा )
छंद जो अपनौ हो लिखौ, माला निज गुँथ पाय,
चन्दन जो निज कर घिसौ, सो अति सोभा पाँय |
छिपौ न कछु कवि दृष्टि तें, कहा न नारि कराय,
कहा न बकि है मद्यपा , कौआ कहा न खाय ||
धरम करम व्यौहार हित, बरन बनाए चार,
अज्ञानी और स्वारथी, करहिं भेद व्योहार ||,
कूकुर देखै मांस कों, कामी तिरिया रूप ,
जोगी निन्दित काम सम, देह एक ही रूप ||
सींग धरें औ नख धरें, शस्त्र धरें निज पास ,
राजपुरुष नद नारि कौ, करें नहीं विशवास |,
वेद शास्त्र औ धरम रत, निज की नहिं पहचान ,
जैसे करछी पाक में , सकहि न रस कों जान ||
मन कौ मैल जो धूलि गयो, श्याम सोई स्नान ,
इन्द्रिय सब बस में रहें , सोई शुचिता जान |