....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
तेरे नयनों से मित्र आज कुछ ऐसी खुशी छलके,
नयन-कलशों से प्रभु की भक्ति-आनंद धार ज्यों छलके |
तेरे आनन पै आनंद की लहर से श्याम आनंदित –
कृपा हो प्रभु की जीवन भर ये आनंद रस रहे छलके ||
अगर प्रलय से बचना चाहें
तो प्रकृति का आश्रय धारें |
कृत्रिमता छोड़ें जीवन में,
प्रकृति को भी यथा सुधारें |
घोर हलाहल कंठ अवस्थित, ताहू पे भोला रह्यो भूल्यो
प्रकृति माता अरु आदि-शक्ति तब क्रुद्ध हुई धीरज टूट्यो|
जलधार बनी तब आई प्रलय,इक छोर जटा को जब छूट्यो |
छोटे बड़े या बोध-अबोध, भयो पूरौ पाप घडा फूट्यो |
स्वयं को भी नहीं बक्सता वह न्याय के पथ पर |
चलता रहा मानव ये क्यों अन्याय के पथ पर|
उसने भला कब मान रख्खा प्रकृति-ईश्वर का,
अब प्रश्न उठाता ईश के कर्तव्य के पथ पर |