....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सोम के बारे में विभिन्न वर्णन सभी वेदों में है, ऋग्वेद के लगभग सभी मंडलों में यत्र-तत्र वर्णन है और
नवम मंडल तो पूर्णतया सोम को ही समर्पित है | सोम अर्थात सौम्यता | वस्तुतः सोम अंतरिक्ष से प्रवाहित एक एसा दिव्य प्रवाह है जो जड़ व जंगम( जीव, निर्जीव, प्राणी, वनस्पति, मनुष्य ) सभी में सौम्यता पूर्ण प्राण-प्रवाहित करता है | वस्तुतः सोम अन्तरिक्षीय ऊर्जा कण प्रवाह है (जो आज एस्ट्रो -फिज़िक्स में -पृथ्वी पर विभिन्न ऊर्जा व सब एटोमिक पार्टिकल, इलेक्त्रोंस के प्रवाह व उनके प्रभाव का विज्ञान है ) । इसी प्रकार " इन्द्र सोम पीतये" का अर्थ है कि संगठक शक्ति सौम्यतापूर्वक व्यवहार से ही चलती है.... .... ऋग्वेद व अन्य में विभिन्न स्थानों पर सोम का जो विभिन्न वर्णन है वह यहाँ वर्णन किया जायगा |
१- चन्द्रमा के द्वारा प्रवाहित अन्तरिक्षीय प्रवाह है -सोम----ऋ .९/१/९६९८ ...
"तनूनपात पवमान: श्रंगे शिशानो अर्षति | अन्तरिक्षेण राजत ||" --- यह शरीर को न क्षीण होने देने वाला पवित्र सोम , अंतरिक्ष के चमकने वाले उच्च भाग से क्षरित होता है |
२-अन्तरिक्षीय (बेसिक कोस्मिक इनर्जी --आयोनिक प्रवाह )प्रवाह - मूल ऊर्जा व कण ---सोम ---ऋ ९/२२/७८७८-के अनुसार ---
"एते पृष्ठानि रोदसो विर्प्रयंतो व्यानिशु: | उतेदमुत्तमम रज: || " ---...यहं सोमरस स्वर्गलोक व पृथ्वीलोक के पृष्ठ भाग ( गुह्य व अंतिम भाग ) तक विविध प्रकार से गमन करता है और विस्तार पाता है , यह द्युलोक में भी प्राप्त होता है |
----अर्थात...अति सूक्ष्म कणों-आयन्स व एलेक्ट्रोन्स आदि- का यह प्रवाह( सोमरस वर्षण) सतत होता रहता है , जो अंतरिक्ष से पृथ्वी जैसे ठोस पिंडों के भी सहज़ता से पार होकर अन्दर तक --प्रत्येक स्थान पर--पहुंचता है |
ऋ. ९/२३/७८८२--में कथन है---" अनुप्रत्नास आयव:पदं नवीयो अस्तु | सचे जन्नत सूर्यम ||" ---अति पुरातन , शाश्वत...(सृष्टि के समय उत्पन्न ) , सतत आवागमन शील ( बनने -बिगड़ने वाला -निरंतर उत्पन्न व विनष्ट होने वाले पूर्व-परमाणु कण आदि ) सोम ...नए नए पद प्राप्त करते हैं (चरण, स्तर, स्थान, क्रियाएं --रासायनिक-भौतिक -विद्युतीय परिवर्तन अदि )...वे ही प्रकाश के लिए सूर्य को उत्पन्न करते है | यह अन्तिरिक्षीय प्रवाह सोम नित्य नये नये स्वरूपों में प्रकट होता है व सूर्य व अन्य सभी ऊर्ज़ा -चक्रों को संचालित करता है ।
ऋ. ९/६६/८२४०---के अनुसार --"ताम्याँ विश्वस्य राजसी ये पवमान धायनी | प्रतीची सोम तस्थतु : ||" ---उन दो धामों ( द्युलोक व अंतरिक्ष ) में यह पवमान सोम रहता है | वहां से प्रकाशित होता है, विश्व को नियंत्रित करता है | वहां से भूमंडलीय क्षेत्र में प्रविष्ट होने पर यह सोम पश्चिम में स्थित होता है | ----अर्थात....द्युलोक व अंतरिक्ष में पवित्र होकर ( संयोजित होकर...ओजोन लेयर से छनित होकर ) यह सोम विश्व को प्रकाशित करता है | वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश करने पर पृथ्वी की भ्रमण-गति से अप्रभावित रहकर , सीधा न जाकर ..पश्चिम की ओर वाले स्थान को जाता है |---आधुनिक एस्ट्रोफिजिक्स के अनुसार ..एत्मोस्फीयर से पृथ्वी पर कोस्मिक कण प्रवाह की वर्षा पृथ्वी की गति की दिशा के विपरीत होती है |
३-अन्तरिक्षीय छलनी (ओजोन लेयर )--सोम -- ऋ. ९/२६/७९११---में वर्णित अनुसार---
"एष सूर्येण हासते पवमानो अधि ध्यवि | पवित्रे म्रिज्यते मद : ||" -- सूर्यदेव द्वारा अंतरिक्ष की शोधक छलनी में स्थापित यह सोम आनंद व प्रसन्नतादायी है |
४-पूर्व परमाणु कण ---सोम--
ऋ. ९/५६/८०७०..
"यत्सोमो वाजमर्षति शतं धरा अपस्युत | इन्द्रस्य साख्यामाविशन ||" --यज्ञ( क्रिया-रासायनिक प्रक्रियायें) की कामना करने वाली सेकड़ों सोम की धाराएं( परमाणु पूर्व कण प्रवाह ) जब इन्द्रदेव (सन्गठक, विघटक शक्ति ) से मित्रता भाव( रासायनिक सन्गठन प्रक्रिया -पूर्णता ) स्थापित कर लेती हैं तभी हमें सोमरस से अन्न( समस्त पोषण -पदार्थ आदि प्राप्त होते हैं ) मिलता है ।
५- तीनों लोकों का पोषक-प्रभाव कारी - सोम ---रि.९/४२/९५५१-- का कथन है...
" जनयन रोचना दिवो जनयान्न्प्सु सूर्यम । बसाना गा अपोहरि:॥ " ---हरिताभ ( हरि रूप, प्रभु रूप) सोम, ध्यूलोक में नक्षत्रों को, अन्तरिक्ष में सूर्य को निर्माण करके...गौ ( प्रिथ्वी व किरणें) व जल (वायुमन्डल) को प्रभावित करता है। ----- एवम..
सामवेद -अ.१०/ख.१/२/१२७५-- के अनुसार यह
त्रित सोम --विश्व में तीन स्थानों-संस्थानों में निचोडा जारहा है ---
"एतं त्रितस्य योषिणों हरि हरित्यन्द्रिभि :। इन्द्रमिन्द्राय पीतये ॥" ---इन्द्र द्वारा प्रयोगार्थ ( सर्वजन,संगठन,समाज , विश्व के -
-मदाय =हरियाली,खुशहाली,प्रसन्नता, कल्याण के लिये लिये ) ; यह
हरिताभ ( हरि रूप, प्रभु रूप, मूल तत्व ,हरा , ताजा, शुद्ध ) सोम तीन प्रकार से --अन्तरिक्ष, प्रिथ्वी व शरीर तन्त्रों में निचोडा जारहा है...बन रहा है ।
६--सूक्ष्म बुद्धि द्वारा संस्कारित सोम....
रिग.९/२६/७९०१--
"तम म्रक्षंति वाजिन मुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्व्या धिया ॥" ----विद्वान (विग्य जन , वैग्यानिक, ग्यानी) सूक्ष्म बुद्धि से( सूक्ष्म ग्यन...अणु ग्यान से ) उस बलशाली सोम को अदिति की गोद ( अखन्ड प्रक्रिति, आदि-शक्ति या यग्य क्षेत्र में स्थित ) स्थित सोम( उत्तम प्रक्रिति प्रवाहों को ) को उत्तम विधि से पवित्र(संसार के कल्याणार्थ व्रद्धि करते हैं) बनाते हैं।
७- सुसंस्कारित मन ही सोम.... रिग.९//३३/७९४८.....
" राय: समुद्रान्श्च तुरोs स्मम्यं सोम विश्वत । आ पवस्व सहस्रिणा ॥" ----हे सोम ! आप सभी माध्यमों से एश्वर्य के समुद्र हो----तीनों लोक व प्राण; सुसन्स्कारित् मन.. अन्त:करण चतुष्टय के व्यवहारिक सुसंस्कार-द्वारा --चारों पुरुषार्थ -धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष --हमारे लिये उपलब्ध कराते हो---आप हज़ारों प्रकार, भावों, दिशाओं से प्रवाहित हों ।
८--आकश से वर्षा के साथ सोम....रिग..९/२०/९६८८....के अनुसार.....
."परिष्क्रण्वन्न निष्क्रतं जनाय यातमन्निथ । व्रष्टि दिव: परिस्रव ॥" ---हे सोम ! संस्कार रहित क्षेत्र को संस्का्रवान बनाते हुए मानव मात्र के लिये अन्न आदि उत्पन्न करने के लिये आकाश से वर्षा के साथ प्रवाहित हों । प्राण -पर्जन्य के रूप में अनुग्रह व जल के साथ प्रप्त हों ।
९--भूमि स्थित जल को प्राप्त सोम... रिग.९/३३/९९०२--में मन्त्रकार कहता है ...
"अयं स यो दिवस्परि रघुयाना पवित्र आ । सिन्धो सर्या सिच्येते मधु: ॥" ---आकाश मे तीब्र गति से विचरण करने वाला, पवित्र किया जाता सोमरस सागर ( समस्त जलाशयों,जल स्रोतों, भूगर्भ स्थित जलों आदि) को प्राप्त होता है ॥
१०-- इन्द्र द्वारा सोम पान ---रिग ९/६१/८०९०--में मन्त्रकार का कथन है...
"पुर स ध इत्थाधिये दिवोदासं शम्बरं । अघ तां तुर्वशं यदुम ॥" ---सोम पीकर इन्द्र ने यग्य करने वाले दिवोदास ( दिव्य गुण युक्त व्यक्तियों ) के लिये शम्बरासुर (अकल्याण कारक शक्तियों ), तुर्वश ( क्रोधी-द्रो्ही) व यदु (नियन्त्रण विहीन शक्तियों ) को मारा,... मारते हैं । ---अर्थात ---कल्याण कारी भावों ( सोम ) को ह्रदय में स्थान देकर ही इन्द्रियनिग्रही लोग ( इन्द्र ) दिव्यगुण युक्त जनता के लिये अकल्याणक, क्रोधी व मर्यादाविहीन लोगों को नष्ट करते हैं ...करसकते हैं।
११-- अन्तरिक्षीय सोम की प्रदूषण से मुक्ति... सामवेद ७/४/२/१०७१-- में मन्त्रकार का स्पष्ट मत है ---
"तं त्वा वचोविद: परिष्क्रण्वान्ते घर्णसिम । सं त्वा म्रजन्त्यायव ॥" ---- हे अखिल विश्व के धारक सोम ! वाणी के विशेषग्य विद्वान अपनी स्तुतियों से आपको परिष्क्रत करते हैं।वे आपको इस प्रकार पवित्र कर रहे हैं। ---अर्थात...
प्रार्थना, स्तुतियों, मन्त्रोच्चारों, श्लोकोच्चारों, मन्दिरों के घन्टानादों,शन्खनादों के कर्णप्रिय नाद व प्रिय ध्वनियों से वातावरण की शुद्धता के साथ साथ स्वयं
सोम (अन्तरिक्षीय आयोनिक प्रवाह) परिष्क्रत होता है व प्रदूषण कम होता है।
१२-एटोमिक एक्टीविटी का जनक सोम.... ऋग्वेद ९/७३/८३४९----में वर्णित है---
"स्रक्वे द्रप्सस्य धमत: समस्वर न्न्रितस्य योना ससरांत माभय :|
त्रीन्त्सु मूर्ध्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यास्थ नाव : सुकृतं पीपरन ||" ---यह सोम धारक स्थल (विश्व-घट= यज्ञ ) में ऋत ( यज्ञ=सनातन सत्य= ब्रह्म ) के उत्पत्ति स्थल से शब्द करते हुए प्रकट होता है | वे बलशाली ( सोम ) नाभि ( यज्ञकुंड= परमाणु के नाभिक -न्यूक्लियस -) में संयुक्त होकर , तीनों उच्चपदस्थ बलशाली ( इलेक्त्रों, न्यूट्रान, प्रोटोन = सत तम रज )-असुरस्चक्र (विश्वचक्र=एटम का वलय =रिंग्स - ) से कार्य प्रारम्भ करते हैं | सत्य की नाव ( वास्तविक व्यवहारिक क्रिया=गुणधर्म =एक्टीविटी ) में( के रूप में ) प्रकट होकर क्रियाओं में सहायक होते हैं |
१३-रोगों की प्रतिराधक क्षमता ( इम्म्यूनिटी ) -सोम -"-त्वं सोम तनूक्रंदायो दवेषोभ्यो s न्यूक्रतेभ्य: | उरु यातान्ति वरूथं ||".. ऋ. ८/७९/७३८४..... हे सोम! आप शरीर को कमजोर करने वाले रोग-रूपी रिपुओं से सुरक्षा के लिए श्रेष्ठ कवच के सामान हैं |
१४-सोम = अमृत ---" त्वा देवासो अमृताय कण पम्पु |" ...ऋ.९/१०६/८६९४----देवगण अमृत प्राप्ति के लिए सोमरस पीते हैं | ---जो आत्मानंद, परमानंद, ज्ञानानंद देता था |
१५- सोमरस-- एक प्रकार की वल्ली (सोमलता ) को निचोड़कर, कूटकर निकाला हुआ रस होता था , जो पत्थरों से जमीन पर या ऊखल में कूट कर निकाला जाता था| इस सोमलता की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत गांधार काम्बोज प्रदेश , अफगानिस्तान है '। यह गहरे बादामे- हरे रंग का पौधा होता है जिससे भूरे-हरे रंग का रस --सोमरस निकलता है | यह शक्तिवर्धक, प्रसन्न चित्त करने वाला , आनंददायक रस दूध, दही, मधु में मिलालर या सत्तू में मिला कर पीया जाता था |
१६- सोम यज्ञ या सोम याग -- :इंदु पविष्ट चेतन: प्रिय: कवीनां मती | स्रजदस्व रथीरिवं ||" -ऋ,९/६४/८१८८....
---चेतनायुक्त प्रवाह -सोम- को दूरदर्शी, व सूक्ष्मदर्शी बुद्धि नियंत्रित करती है | ब्राह्मी चेतना ही उसे जीव जगत की और प्रेरित करती है | मन्त्र व संकल्प शक्ति से उसे प्रकृति व शरीर के बांछित प्रयोग के लिए नियंत्रित किया जा सकता है |----यही सोम यज्ञ है ||