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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

कविता...हिन्दी की रेल.....हिन्दी दिवस पर ....डा श्याम गुप्त ....


                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

अंग्रेज़ी की मेट्रो
हिन्दी की ये रेल न जाने, चलते चलते क्यों रुक जाती |
जैसे  ही रफ़्तार पकडती,  जाने क्यूं  धीमी  होजाती ||

कभी  नीति सरकारों की या, कभी नीति व्यापार-जगत की |
कभी रीति इसको ले डूबे , जनता के व्यबहार-जुगत   की ||


हम सब भी दैनिक कार्यों में, अंग्रेज़ी का पोषण करते |
अंग्रेज़ी अखबार मंगाते,  नाविल  भी  अंग्रेज़ी पढते ||

अफसरशाही कार्यान्वन जो सभी नीति का करने वाली |
सब  अंग्रेज़ी  के   कायल  हैं,  है अंग्रेज़ी ही पढने  वाली ||


नेताजी  लोकतंत्र क्या है,  पढने अमेरिका  जाते हैं |
व्यापारी कैसे सेल करें,  योरप से सीख कर आते हैं ||


यंत्रीकरण का दौर हुआ, फिर धीमी इसकी चाल हुई |
टीवी  बम्बैया-पिक्चर से,  इसकी भाषा बेहाल हुई ||                                           
हिन्दी की छुक छुक

छुक छुक कर आगे रेल बढ़ी, कम्प्युटर मोबाइल आये |
पहियों की चाल रोकने को, अब  नए बहाने फिर आये ||

फिर चला उदारीकरण दौर, हम तो उदार जगभर के लिए |
दुनिया ने फिर भारत भर में,  अंग्रेज़ी  दफ्तर खोल लिए ||

अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां है, सर्विस की मारा मारी है |
हर तरफ तनी है अंग्रेज़ी,  हिन्दी तो बस  बेचारी है ||

हम बन् क्लर्क अमरीका के,इठलाये जग पर छाते  हैं |
उनसे ही मजदूरी लेकर,  उन पर  ही  खूब लुटाते हैं ||

क्या इस भारत में हिन्दी की, मेट्रो भी कभी चल पायेगी |
या छुक छुक छुक चलने वाली ,पेसेंजर ही  रह जायेगी ||