....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
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| अंग्रेज़ी की मेट्रो | 
हिन्दी की ये रेल न जाने, चलते चलते क्यों रुक जाती |
जैसे  ही रफ़्तार पकडती,  जाने क्यूं  धीमी  होजाती ||
कभी  नीति सरकारों की या, कभी नीति व्यापार-जगत की |
कभी रीति इसको ले डूबे , जनता के व्यबहार-जुगत   की ||
हम सब भी दैनिक कार्यों में, अंग्रेज़ी का पोषण करते |
अंग्रेज़ी अखबार मंगाते,  नाविल  भी  अंग्रेज़ी पढते ||
सब  अंग्रेज़ी  के   कायल  हैं,  है अंग्रेज़ी ही पढने  वाली ||
नेताजी लोकतंत्र क्या है, पढने अमेरिका जाते हैं |
व्यापारी कैसे सेल करें,  योरप से सीख कर आते हैं ||
यंत्रीकरण का दौर हुआ, फिर धीमी इसकी चाल हुई |
टीवी  बम्बैया-पिक्चर से,  इसकी भाषा बेहाल हुई ||                                            
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| हिन्दी की छुक छुक | 
छुक छुक कर आगे रेल बढ़ी, कम्प्युटर मोबाइल आये |
फिर चला उदारीकरण दौर, हम तो उदार जगभर के लिए |
दुनिया ने फिर भारत भर में,  अंग्रेज़ी  दफ्तर खोल लिए ||
अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां है, सर्विस की मारा मारी है |
हर तरफ तनी है अंग्रेज़ी,  हिन्दी तो बस  बेचारी है ||
उनसे ही मजदूरी लेकर,  उन पर  ही  खूब लुटाते हैं ||
क्या इस भारत में हिन्दी की, मेट्रो भी कभी चल पायेगी |
या छुक छुक छुक चलने वाली ,पेसेंजर ही  रह जायेगी ||


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
