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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

स्त्री-पुरुष का आपसी संयोजन, संतुलन प्रत्येक प्रकार के सृष्टि-भाव के लिए आवश्यक है....डा श्याम गुप्त .

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ. 

                  नारी- पुरुष के लिए सांसारिक योग द्वारा  ब्रह्म प्राप्ति का साधन है । एक पत्नी ही कठोरतम मार्गदर्शक होती है ।   रूप-गर्व , गर्व, व्यंग्य, कटाक्ष व अपमान द्वारा वह ही पुरुष के आत्म-तत्व को उद्वेलित, उद्भाषित व प्रकाशित करने में समर्थ है । शायद गुरु से भी अधिक। वह काली को महाकवि कालिदास, रामबोला को तुलसीदास बना सकती है।
                वस्तुतः ब्रह्म रूप, पुरुष तो निर्गुण ही होता है।  गुण तो शक्ति, प्रकृति, माया या स्त्री-रूप में ही होते है । अव्यक्त परब्रह्म के व्यक्त रूप ब्रह्म या पुरुष व आदि-शक्ति या प्रकृति-माया में --पुरुष तो निर्गुण होता है परन्तु आदि-शक्ति मूलतः त्रिगुणमयी होती है ...सत, रज, और तम । आदि-शक्ति जहां प्रत्येक तत्व को ये गुण प्रदान करती है जिससे वह शक्तिमान होता है, तथा प्रकृति -माया रूप में वह प्रत्येक संसारी रूप-भाव में ये तीनों गुण उत्पन्न करती है, जो सरस्वती, लक्ष्मी व काली रूप होते हैं । वहीं नारी रूप में वही रूप-भाव सरस्वती, लक्ष्मी व काली के रूप में अवस्थित होते हैं जिसके कारण स्त्री अपने विभिन्न मायाभाव प्रकट कर पाती है , बाह्यांतर या आभ्यंतर रूप-भावों के प्रकटन द्वारा।
                 ये सत, रज, तम  गुण-रूप--शक्ति, प्रकृति या नारी-- सरस्वती, लक्ष्मी व काली  ... निर्गुण परब्रह्म या उसके संसारी रूप 'अर्धनारीश्वर'  के नारी-भाग हैं शक्ति भाग हैं जिनके शक्तिमान भाग ...पुरुष भाग से बनते हैं ...ब्रह्मा..विष्णु...शिव  ...नियामक,  पोषक  व संहारक  शक्तियुत ।  मानव ह्रदय , तीनों भाव युत होता है---  ह्र = हर = प्राण को हरने वाला...शिव  --- द = प्राण देने वाला  अर्थात विष्णु ....य =  नियमनकारी = ब्रह्मा । ये तीनों शक्तियां व शक्तिमान के संतुलन, संयोजन ...मिलन से ही सृष्टि होती है। अतः निश्चय ही स्त्री-पुरुष का आपसी संयोजन , संतुलन प्रत्येक प्रकार के सृष्टि-भाव के लिए आवश्यक है ।
                 परब्रह्म  शुद्ध अव्यक्त रूप में निर्गुण होता है , संपूर्ण होता है । यथा ......

                                             "ॐ पूर्णमदं पूर्णमिदं , पूर्णं पूर्णामेव उदच्यते ।
                                                पूर्णस्य पूर्णमादाय ,पूर्नामेवावशिष्यते ।"
व्यक्त व सगुण होने पर....  वे पुरुष व प्रकृति रूप में अपने आप में पूर्ण होते हैं परन्तु संसारी रूप में --प्रकृति अपने आपमें तो संपूर्ण  होती है परन्तु सृष्टि-भाव हित, नारी-भाव में वह अपूर्ण होती है । पुरुष भी जीव रूप में अपने में अपूर्ण होता है। अतः दोनों ही अपनी अपनी अपूर्णता के पूर्णता हित संसारी-योग अर्थात 'स्त्री-पुरुष मिलन ' के लिए आकुल-तत्पर  रहते हैं।  विवाह इसी कमी के पूरा करने हेतु संकल्प को कहते हैं तभी इसे योग मिलना भी कहा जाता है ।
                       अतः निश्चय ही विवाह  या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पति-पत्नी सम्बन्ध .... प्रकृति-पुरुष के आपसी सामंजस्य  का नाम है ...योग है।  इस योग द्वारा वे एक दूसरे को बाह्य व आतंरिक रूप -भाव में पूर्णता से समझ पाते हैं । एक दूसरे के समस्त विभिन्न बाह्य व आतंरिक माया के आवरणों को समझकर , हटाकर  विराग मार्ग द्वारा मुक्ति, मोक्ष व अमृतत्व-प्राप्ति तक पहुंचते है और संपूर्ण होकर अपने मूल स्वरुप ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ।