....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य
अंक-२ ...वृषाकपि एवं पृथ्वी व सूर्य ....
विष्णु सहस्रनाम में विष्णु का एक नाम वृषाकपि
है, शायद परवर्ती वैदिक काल में विष्णु, इंद्र से प्रभावशाली देवता होते जा रहे थे,
कहीं कहीं उनको इंद्र का छोटा भ्राता भी कहा गया है |
“अयं गौ पितरं च प्रयन्त्स्त | पृशिनरक्रममीदसदन मातरं पुरः “ --- के अनुसार - पृथ्वी ( गौ ) क्रमिक भाव से सूर्य की परिक्रमा करती है|
--------परन्तु उसे पुराणों में समकालीन धर्म-विरोधी तत्वों व विरोधाभासों के तदनुरूप उत्तर व व्यवहार हेतु जन साधारण के लिए ... वास्तव में गौ का रूप धरकर अधर्म से पीड़ित होकर ब्रह्मा पर प्रार्थना करने भेजी जाने लगी, अतः वह स्थिर होगई और सूर्य गतिशील – जिसका मूल भाव है कि अज्ञानान्धाकर के कारण अनाचार-जनित प्रकृतिनाश पर्यावरण प्रदूषण आदि विकृतियों के होने पर प्रकृति व ब्रह्म उसके निराकरण का उपाय करते हैं | ज्ञान रूपी गौ मानव के मन में आविर्भूत होकर उसके निराकरण का माध्यम बनतीहै|... अज्ञान के कारण अवैज्ञानिक तथ्य जनमानस में प्रचलित होगया और मन्त्र का वास्तविक वैज्ञानिक अर्थ-भाव लुप्त हो गया।
--- चित्र -गूगल
( श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय
शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में
वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के
मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को
याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही
करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित
हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें
व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक
पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )
अंक-२ ...वृषाकपि एवं पृथ्वी व सूर्य ....
१. वृषाकपि----
वृषाकपि सूक्त -ऋग्वेद १०/४६... में इंद्र-इंद्राणी संवाद
में ....इंद्र का कथन है.... स्तोताओं से
मैंने सोम अभिषुत को कहा था | वृषाकपि की
स्तुति की गयी –‘ सोम से प्रवृद्ध होकर
इस यज्ञ में वृषाकपि जैसे वीर सखा होकर, सोमपान कर हष्ट-पुष्ट हुए, मैं इंद्र
सर्वश्रेष्ठ हूँ |’ इंद्राणी का कथन
है---
‘हे इंद्र! तुम अत्यंतगमनशील होकर
वृषाकपि के पास जाते हो, सोम के लिए नहीं |’
ऋग्वेद १०/८६/१८ में कथन है -अयमिन्द्र वृषाकपि परस्वंव विदत|
असि सूनांनवं चरुमादेधस्यान आचितं| विश्वमादिन्द्र उत्तरः||
-----अर्थात हे इंद्र! वृषाकपि को मारा गया पशु, असि, नया बनाया गया चरू और ईंधन से भरी हुई गाडी प्राप्त होगई है | इंद्र सबसे ऊपर है | कुछ स्थानों पर वृषाकपि इंद्र का अनुचर व पुत्र भी कहा गया है |
ऋग्वेद १०/८६/१८ में कथन है -अयमिन्द्र वृषाकपि परस्वंव विदत|
असि सूनांनवं चरुमादेधस्यान आचितं| विश्वमादिन्द्र उत्तरः||
-----अर्थात हे इंद्र! वृषाकपि को मारा गया पशु, असि, नया बनाया गया चरू और ईंधन से भरी हुई गाडी प्राप्त होगई है | इंद्र सबसे ऊपर है | कुछ स्थानों पर वृषाकपि इंद्र का अनुचर व पुत्र भी कहा गया है |
यह शायद ऋग्वेद के किसी विशेष घटना-सूत्र की अप्राप्य कड़ी लगती है | वृषाकपि –विष्णु के किसी.. नृसिंह (मानव-सिंह ), हनुमान ( वृष-बानर
मानव- ...वृष = महा बलिष्ठ +वानर = हनुमान का वैदिक रूप ) या नंदी ( वृषभ मानव ) या स्वयं पशुपति शिव के साथी-सहयोगी-सैनिक का रूप लगता
है जो कोई आदिम मानव, आर्य अथवा आर्येतर स्थानीय लोक-देवता भी था जो ‘आर्य-देव
मंडल’ में सहयोगी की भूमिका में था | उसके साथ इंद्र की मैत्री, अति
प्रारम्भिक ...सामाजिक –व्यवहारिक-राजनैतिक
व नैतिक सहयोग एवं शक्ति-संतुलन के तथ्यों-घटनाओं के व्यवहारिक पक्ष की और इंगित
करती है|
जैसा कि रामायण में बानर-भालू, ऋक्ष
जातियां वर्णित हैं शायद ये लोग प्राचीन विन्ध्य-प्रदेश और दक्षिण भारत की आदिवासी आर्येतर जातियों नर-वानर
आदि के सदस्य थे| या तो उनके मुख वानरों के समान थे अथवा उनकी
ध्वजाओं पर वानरों और भालुओं के निशान रहे होंगे।
अजः
सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि:-अच्युतः ।
वृषाकपि:-अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।।
वृषाकपि:-अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।।
वसु:-वसुमनाः सत्यः
समात्मा संमितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।।
वृषाही वृषभो विष्णु:-वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।।
शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।।
-----३३ कोटि देवताओं में जो 11 रूद्र बताये गए हैं ... :....उनमें में एक रूद्र ..वृषाकपि हैं |
( ये ११ रूद्र हैं....हर, बहुरूप, त्र्यम्बक,
अपराजिता, वृषाकपि, शम्भू, कपर्दी, रेवत, म्रग्व्यध, शर्व तथा कपाली)
वृषराज या वृषपाल और आदि-शक्ति व सप्त मातृकाएं या शिव-शक्ति.....हरप्पासील |
वृषाकपि या पशुपति शिव.....हरप्पा सील |
मेष मुखी या वृषमुखी देवी |
२. पृथ्वी द्वारा
सूर्य की परिक्रमा--- पुरा वैज्ञानिक ज्ञान के भूल जाने के कारण सूर्य द्वारा पृथ्वी का चक्कर लगाने जैसी अज्ञानपूर्ण भ्रांतियां उत्पन्न होगयीं थीं - यजुर्वेद ३/६ में कथन ...
“अयं गौ पितरं च प्रयन्त्स्त | पृशिनरक्रममीदसदन मातरं पुरः “ --- के अनुसार - पृथ्वी ( गौ ) क्रमिक भाव से सूर्य की परिक्रमा करती है|
--------परन्तु उसे पुराणों में समकालीन धर्म-विरोधी तत्वों व विरोधाभासों के तदनुरूप उत्तर व व्यवहार हेतु जन साधारण के लिए ... वास्तव में गौ का रूप धरकर अधर्म से पीड़ित होकर ब्रह्मा पर प्रार्थना करने भेजी जाने लगी, अतः वह स्थिर होगई और सूर्य गतिशील – जिसका मूल भाव है कि अज्ञानान्धाकर के कारण अनाचार-जनित प्रकृतिनाश पर्यावरण प्रदूषण आदि विकृतियों के होने पर प्रकृति व ब्रह्म उसके निराकरण का उपाय करते हैं | ज्ञान रूपी गौ मानव के मन में आविर्भूत होकर उसके निराकरण का माध्यम बनतीहै|... अज्ञान के कारण अवैज्ञानिक तथ्य जनमानस में प्रचलित होगया और मन्त्र का वास्तविक वैज्ञानिक अर्थ-भाव लुप्त हो गया।
----ऋग्वेद -३/५४/२९५० में ऋषि कहता है----
"कविर्न्रिचक्षा अभिषीमचष्ट ऋतस्थ योना विधृते मदन्ती |
नाना चक्राते सदने यथा
वे: सामानें क्रतुना संविदाने || " ----अर्थात दूरदर्शी
लोगों ( विद्वानों ) के दृष्टा --सूर्यदेव-, पृथ्वी को चारों ओर से देखते हैं |
नियम पूर्वक कर्म से परस्पर
संयुक्त यह द्यावा-पृथ्वी, पक्षियों के घोंसलों की भाँति जल के गर्भ स्थान
अंतरिक्ष में चक्कर लगाते हुए अपने लिए विभिन्न स्थान बनाती है |
-----पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण जहाँ तक है वहां तक आकाश पृथ्वी से संयुक्त है अतः द्यावा-पृथ्वी कहागया है ----पृथ्वी अपने
वायुमंडल सहित अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चारों ओर विभिन्न स्थितियां बनाती
हुई (ईक्वीनोक्स आदि ) अपनी जगह बनाती हुई चक्कर लगाती है( अतः आवास बनाना कहा गया
है ) अतः सूर्य
उसे चारों ओर से देखता है |
ऋतु परिवर्तन का कारण सूर्य
--- ऋग्वेद
३/५६/२९८९- के अनुसार --
"षड्भारा एको अचरंती भर्त्युतं वर्शिष्ठ्मुप गाव आगु: |
तिस्त्रो मही रूप रास्त स्थुरत्या गुहाद्वे निहिते दर्श्येका ||"
----एक स्थायी संवत्सर छ : ऋतुओं को वहन करता है | ऋत ( अर्थात निश्चित सत्यानुशासन
) पर चलने वाले अतिश्रेष्ठ आदित्य ( सूर्य ) रूपी संवत्सर( सौर वर्ष) का प्रभाव सूर्य-किरणों से प्राप्त होता
है | सतत गतिशील एवं विस्तृत तीनों लोक ( स्वर्ग, अंतरिक्ष
, पृथ्वी )क्रमश : उच्चतर स्थानों पर स्थित हैं , उनमें
स्वर्ग व अंतरिक्ष सूक्ष्म ( अदृश्य ) व पृथ्वी प्रत्यक्ष ( दृश्य ) है |
----- ऋतु परिवर्तन का, सौर चक्र का
श्रोत सूर्य है --यह प्रभाव
किरणों द्वारा पृथ्वी पर दिखाई देता है परन्तु वास्तव में वह
अंतरिक्ष व द्युलोक में हुए परिवर्तनों का प्रतिफल होता है |
--- चित्र -गूगल