....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
हिन्दी का एक दुर्भाग्य यह भी ---लोक वाणियों का प्रश्रय ...
हिन्दी के प्रसार व उन्नति में अन्य तमाम बाधाओं के साथ एक मुख्य बाधा हिन्दी पट्टीके प्रदेशों की आंचलिक बोलियों को साहित्य-सिनेमा -दूरदर्शन-रेडियो आदि में अलग से प्रश्रय देना भी है। भोजपुरी, अवधी, बृज भाषा। बिहारी आदि हिन्दी की बोलियों को आजकल साहित्य में अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा है जैसे कि वे हिन्दी न होकर हिन्दी-से अलग भाषाएँ हों। जो आगे चलकर साहित्य में भी अलगाव वाद की भूमिका बन सकता है।
-----जो कवि, साहित्यकार, सिने-आर्टिस्ट, रेडियो कलाकार व अन्य कलाकार-- मूल हिन्दी धारा के महासागर में अपनी वैशिष्यता , पहचान खोजाने से डरते हैं , क्योंकि वास्तव में वे उतने योग्य नहीं होते एवं स्वस्थ प्रतियोगिता से डरते हैं , वे अपना स्वार्थ लोक-वाणियों को भाषा बनाकर पूरा करने में सन्निहित होजाते हैं। इस प्रकार इन तथाकथित बोलियों( हिन्दी की ) से बनाई गयी भाषाओं की विविध सन्स्थाएं भी अपना अलग से पुरस्कार, सम्मान, आयोजन इत्यादि करने लगती हैं , सिर्फ शीघ्र व्यक्तिगत व संस्थागत पहचान व ख्याति के लिए |
----इस प्रकार छुद्र व तात्कालिक , व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए एक महान कर्तव्य ---हिन्दी को सारे विश्व व राष्ट्रभाषा व जन-जन की भाषा बनाने के ध्येय को अनदेखा किया जारहा है। ---कुछ मूल प्रश्न ....
१.--क्या सूर, बिहारी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रत्नाकर को सिर्फ -बृज भाषा का, तुलसी को सिर्फ अवधी का कवि कहलाना भारतीय पसंद करेंगे( हो सकता है इसके चलते यह मांग भी उठ खड़ी हो ) या किसी के द्वारा कभी कहीं कहा गया ? ये सभी महान कवि हिन्दी की महान विभूतियों के व कवियों के रूप में विश्व विख्यात हैं |
२. क्या स्वतन्त्रता से पूर्व या बाद में भी इन सभी आंचलिक भाषाओं को हिन्दी मानकर ही नहीं देखा , समझा , जाना व माना नहीं जाता था?
-----वस्तुतः होना यह चाहिए----
१. -हिन्दी -पट्टी की इन सभी बोलियों के साहित्य को अलग साहित्य न मानकर हिन्दी का ही साहित्य माना जाना चाहिए एवं सभी साहित्यिक/ कला के कार्य कलापों के लिए हिन्दी के साथ ही समाहित किया जाना चाहिए।
२. सभी देशज कवियों/ कलाकारों /सिनेमा को हिन्दी का ही माना जाना चाहिए -न कि इन विशिष्ट भाषाओं के ।
३. सभी हिन्दी-बोलियों को हिन्दी भाषा में ही समाहित किया जाना
-------तभी हिन्दी का महासागर और अधिक उमड़ेगा, लहराएगा ।
-----जो कवि, साहित्यकार, सिने-आर्टिस्ट, रेडियो कलाकार व अन्य कलाकार-- मूल हिन्दी धारा के महासागर में अपनी वैशिष्यता , पहचान खोजाने से डरते हैं , क्योंकि वास्तव में वे उतने योग्य नहीं होते एवं स्वस्थ प्रतियोगिता से डरते हैं , वे अपना स्वार्थ लोक-वाणियों को भाषा बनाकर पूरा करने में सन्निहित होजाते हैं। इस प्रकार इन तथाकथित बोलियों( हिन्दी की ) से बनाई गयी भाषाओं की विविध सन्स्थाएं भी अपना अलग से पुरस्कार, सम्मान, आयोजन इत्यादि करने लगती हैं , सिर्फ शीघ्र व्यक्तिगत व संस्थागत पहचान व ख्याति के लिए |
----इस प्रकार छुद्र व तात्कालिक , व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए एक महान कर्तव्य ---हिन्दी को सारे विश्व व राष्ट्रभाषा व जन-जन की भाषा बनाने के ध्येय को अनदेखा किया जारहा है। ---कुछ मूल प्रश्न ....
१.--क्या सूर, बिहारी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रत्नाकर को सिर्फ -बृज भाषा का, तुलसी को सिर्फ अवधी का कवि कहलाना भारतीय पसंद करेंगे( हो सकता है इसके चलते यह मांग भी उठ खड़ी हो ) या किसी के द्वारा कभी कहीं कहा गया ? ये सभी महान कवि हिन्दी की महान विभूतियों के व कवियों के रूप में विश्व विख्यात हैं |
२. क्या स्वतन्त्रता से पूर्व या बाद में भी इन सभी आंचलिक भाषाओं को हिन्दी मानकर ही नहीं देखा , समझा , जाना व माना नहीं जाता था?
-----वस्तुतः होना यह चाहिए----
१. -हिन्दी -पट्टी की इन सभी बोलियों के साहित्य को अलग साहित्य न मानकर हिन्दी का ही साहित्य माना जाना चाहिए एवं सभी साहित्यिक/ कला के कार्य कलापों के लिए हिन्दी के साथ ही समाहित किया जाना चाहिए।
२. सभी देशज कवियों/ कलाकारों /सिनेमा को हिन्दी का ही माना जाना चाहिए -न कि इन विशिष्ट भाषाओं के ।
३. सभी हिन्दी-बोलियों को हिन्दी भाषा में ही समाहित किया जाना
-------तभी हिन्दी का महासागर और अधिक उमड़ेगा, लहराएगा ।