....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
प्रायः प्रगतिवादी विज्ञजन आंग्ल संस्कृति/ वैचारिक प्रभाव वश ..पोज़िटिव थिंकिंग, आधे भरे गिलास को देखो ....आदि कहावतें कहते पाए जाते हैं ...परन्तु गुणात्मक ( धनात्मक + नकारात्मक ) सोच ..सावधानी पूर्ण सोच होती है..जो आगामी व वर्त्तमान खतरों से आगाह करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | देखिये आज के छिद्रान्वेषण ....
१- वैज्ञानिक व प्रगतिवादी समाज का असत्याचरण ----अभी तक तो हम सिगरेटों के पैकों / विज्ञापनों पर छोटे छोटे महीन अक्षरों में .." सिगरेट / तम्बाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है"....के विज्ञापन देकर ही अपनी कर्तव्य की इतिश्री मानते रहे हैं........ अब देखिये इस विज्ञापन को ...न्यूनतम ई एम् आई १७२५ बड़े अक्षरों में और प्रति लाख छोटे में --क्या इससे कार की न्यूनतम किश्त १७२५/ का भ्रम नहीं होता | बहुत छोटे अक्षरों में ...नियम व शर्तें लागू ...भी लिखा होगा .....क्यों ?? क्या यह धोखा देने की मूल नीयत नहीं प्रदर्शित होती.....कहाँ है सरकारी नियामक तंत्र...सामाजिक संस्थाएं.....समाचार पत्रों का सामाजिक दायित्व ...
माना कि यह व्यावसायिक मेनेजमेंट -कौशल है....उन्हें अपनी कार बेचनी है ...इसीलिये तो बाज़ार में पूंजी लगाकर बैठे हैं......पर क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं .....फिर नटवर लाल , बेईमानी में पकडे जाने वाले उठाईगीरे व इनमें क्या अंतर है ......हम सोचेंगे ???
२- साहित्यिक जगत में --दायित्वहीन, विचारहीन सोच के कुछ उदाहरण ----
एक-कवि सम्मलेन में कोई कवि . पढते हैं------
"राम तो बस चुनाव जीतने के लिए भुनाए जाते हैं,
रावण तो जलाकर भी सैकड़ों चूल्हे जला जाते हैं ||" ----- क्या यह राजनैतिक पक्षधरता का साहित्य नहीं है, क्या यह सदियों की , जन जन की आस्था पर प्रहार नहीं है , क्या आप रावण को राम के ऊपर प्रश्रय देना चाहते हैं ?? इसी प्रकार एक और कवि पढते हैं---
राजनीति हमारे देश का राष्ट्रीय उद्योग है ,
जनता की आशाओं पर रेत के महलों का अजूबा प्रयोग है ||........क्या हम बिना राजनीति के देश चलाना चाहते हैं ...क्या यह संभव है ?.... एसी कवितायें सामयिक वाह वाह --तालियां तो बटोर सकती हैं पर सामाजिक दायित्व से परे अनास्था उत्पन्न करती हैं | .आखिर इन सब अतार्किकताओं से जन जन का संस्थाओं पर अनास्था, अविश्वास उत्पन्न करके हम क्या पाना चाहते हैं ---
दो--केसर कस्तूरी ---कथा वाचन में --बेटी कहती है ---"राजा जनक ने सीता को दुःख सहने के लिए छोड़ दिया था | यही औरतों का भाग्य है |".......सुनाने में बड़ा भावुक-करुण लगता है ... इसे अपराध बोध की कहानी व स्त्री विमर्श ..कहा जाता रहा है पर यह हमें कहाँ लिए जारहा है....... क्या चाहती हैं महिलायें / तथाकथित प्रगतिशील समाज / साहित्यकार ......क्या जनक सीता को राम के साथ जाने देने की अपेक्षा ...स्वयं अपने महलों में रखलेते ......क्या हम चाहते हैं कि जिस पत्नी/ नारी ने सुख के दिनों में ...जिस पुरुष /पति के साथ मज़े लिए, सुख भोग किया ...वह दुःख के दिनों में पिता के घर ...आनंद भोगे और पति को जंगल में दुःख सहने को छोड़ दे ...बिना उसके किसी कसूर के....
तीन--लन्दन में स्थापित --प्रगतिशील लेखक मंच --का कथन है कि वामपंथी विचारधारा से ही छोटे छोटे शहरों के महत्वपूर्ण लेखकों का निर्माण व विकास हुआ है...उदाहरण---सज्जाद ज़हीर , फैज़, जोश, फिराक, सरदार जाफरी, ताम्बा , साहिर, कैफी आज़मी , कृष्ण चंदर, मंटो, नागार्जुन, मुक्तिबोध , केदार नाथ , त्रिलोचन, यशपाल ,नंबर सिंह ...आदि ..भारतीय विचार धारा के विरोधी ....विदेशी वामपंथी सोच के साहित्यकार ही साहित्यकार हैं...... भारतीय विचार धारा के साहित्यकारों --मैथिली शरण गुप्त, निराला, दिनकर, महादेवी, प्रसाद, की कोई अहमियत नहीं है, न आज के भारतीय विचार धारा पर लिखे जारहे साहित्य -साहित्यकारों ने कुछ किया है..........तो फिर आज जन-समाज में साहित्य व कविता के प्रति अरुचि का कारण कहाँ स्थित है .....शायद इसी प्रगतिशीलता की जिद में स्व-समाज..संस्कृति, सदियों से प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति के पतनोन्नयन में ....
ये सारे कारण, साहित्यिक / सामाजिक अवैचारिकता, अतार्किकता, मूल्यहीनता, --समाज में जन जन को भ्रम, अतार्किकता, अवैचारिकता, अनास्था, मूल्यहीनता के स्थिति में डालते हैं....और जन जन -- साहित्य, सामाजिकता, नैतिकता से आस्थाहीन होकर ..उससे दूर होकर ...फिर उसी सदा सुलभ भौतिकता के चरणों में जा बैठता है .....शान्ति खोजने लगता है ...अनाचरण ...भ्रष्ट-आचरण ...व आज के द्वंद्वों का यही मूल कारण है ||
प्रायः प्रगतिवादी विज्ञजन आंग्ल संस्कृति/ वैचारिक प्रभाव वश ..पोज़िटिव थिंकिंग, आधे भरे गिलास को देखो ....आदि कहावतें कहते पाए जाते हैं ...परन्तु गुणात्मक ( धनात्मक + नकारात्मक ) सोच ..सावधानी पूर्ण सोच होती है..जो आगामी व वर्त्तमान खतरों से आगाह करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | देखिये आज के छिद्रान्वेषण ....
१- वैज्ञानिक व प्रगतिवादी समाज का असत्याचरण ----अभी तक तो हम सिगरेटों के पैकों / विज्ञापनों पर छोटे छोटे महीन अक्षरों में .." सिगरेट / तम्बाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है"....के विज्ञापन देकर ही अपनी कर्तव्य की इतिश्री मानते रहे हैं........ अब देखिये इस विज्ञापन को ...न्यूनतम ई एम् आई १७२५ बड़े अक्षरों में और प्रति लाख छोटे में --क्या इससे कार की न्यूनतम किश्त १७२५/ का भ्रम नहीं होता | बहुत छोटे अक्षरों में ...नियम व शर्तें लागू ...भी लिखा होगा .....क्यों ?? क्या यह धोखा देने की मूल नीयत नहीं प्रदर्शित होती.....कहाँ है सरकारी नियामक तंत्र...सामाजिक संस्थाएं.....समाचार पत्रों का सामाजिक दायित्व ...
माना कि यह व्यावसायिक मेनेजमेंट -कौशल है....उन्हें अपनी कार बेचनी है ...इसीलिये तो बाज़ार में पूंजी लगाकर बैठे हैं......पर क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं .....फिर नटवर लाल , बेईमानी में पकडे जाने वाले उठाईगीरे व इनमें क्या अंतर है ......हम सोचेंगे ???
२- साहित्यिक जगत में --दायित्वहीन, विचारहीन सोच के कुछ उदाहरण ----
एक-कवि सम्मलेन में कोई कवि . पढते हैं------
"राम तो बस चुनाव जीतने के लिए भुनाए जाते हैं,
रावण तो जलाकर भी सैकड़ों चूल्हे जला जाते हैं ||" ----- क्या यह राजनैतिक पक्षधरता का साहित्य नहीं है, क्या यह सदियों की , जन जन की आस्था पर प्रहार नहीं है , क्या आप रावण को राम के ऊपर प्रश्रय देना चाहते हैं ?? इसी प्रकार एक और कवि पढते हैं---
राजनीति हमारे देश का राष्ट्रीय उद्योग है ,
जनता की आशाओं पर रेत के महलों का अजूबा प्रयोग है ||........क्या हम बिना राजनीति के देश चलाना चाहते हैं ...क्या यह संभव है ?.... एसी कवितायें सामयिक वाह वाह --तालियां तो बटोर सकती हैं पर सामाजिक दायित्व से परे अनास्था उत्पन्न करती हैं | .आखिर इन सब अतार्किकताओं से जन जन का संस्थाओं पर अनास्था, अविश्वास उत्पन्न करके हम क्या पाना चाहते हैं ---
दो--केसर कस्तूरी ---कथा वाचन में --बेटी कहती है ---"राजा जनक ने सीता को दुःख सहने के लिए छोड़ दिया था | यही औरतों का भाग्य है |".......सुनाने में बड़ा भावुक-करुण लगता है ... इसे अपराध बोध की कहानी व स्त्री विमर्श ..कहा जाता रहा है पर यह हमें कहाँ लिए जारहा है....... क्या चाहती हैं महिलायें / तथाकथित प्रगतिशील समाज / साहित्यकार ......क्या जनक सीता को राम के साथ जाने देने की अपेक्षा ...स्वयं अपने महलों में रखलेते ......क्या हम चाहते हैं कि जिस पत्नी/ नारी ने सुख के दिनों में ...जिस पुरुष /पति के साथ मज़े लिए, सुख भोग किया ...वह दुःख के दिनों में पिता के घर ...आनंद भोगे और पति को जंगल में दुःख सहने को छोड़ दे ...बिना उसके किसी कसूर के....
तीन--लन्दन में स्थापित --प्रगतिशील लेखक मंच --का कथन है कि वामपंथी विचारधारा से ही छोटे छोटे शहरों के महत्वपूर्ण लेखकों का निर्माण व विकास हुआ है...उदाहरण---सज्जाद ज़हीर , फैज़, जोश, फिराक, सरदार जाफरी, ताम्बा , साहिर, कैफी आज़मी , कृष्ण चंदर, मंटो, नागार्जुन, मुक्तिबोध , केदार नाथ , त्रिलोचन, यशपाल ,नंबर सिंह ...आदि ..भारतीय विचार धारा के विरोधी ....विदेशी वामपंथी सोच के साहित्यकार ही साहित्यकार हैं...... भारतीय विचार धारा के साहित्यकारों --मैथिली शरण गुप्त, निराला, दिनकर, महादेवी, प्रसाद, की कोई अहमियत नहीं है, न आज के भारतीय विचार धारा पर लिखे जारहे साहित्य -साहित्यकारों ने कुछ किया है..........तो फिर आज जन-समाज में साहित्य व कविता के प्रति अरुचि का कारण कहाँ स्थित है .....शायद इसी प्रगतिशीलता की जिद में स्व-समाज..संस्कृति, सदियों से प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति के पतनोन्नयन में ....
ये सारे कारण, साहित्यिक / सामाजिक अवैचारिकता, अतार्किकता, मूल्यहीनता, --समाज में जन जन को भ्रम, अतार्किकता, अवैचारिकता, अनास्था, मूल्यहीनता के स्थिति में डालते हैं....और जन जन -- साहित्य, सामाजिकता, नैतिकता से आस्थाहीन होकर ..उससे दूर होकर ...फिर उसी सदा सुलभ भौतिकता के चरणों में जा बैठता है .....शान्ति खोजने लगता है ...अनाचरण ...भ्रष्ट-आचरण ...व आज के द्वंद्वों का यही मूल कारण है ||