....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
कविता की अगीत विधा का प्रचलन भले ही कुछ दशक पुराना हो परन्तु अगीत की अवधारणा मानव द्वारा आनंदातिरेक में लयबद्ध स्वर में बोलना प्रारम्भ करने के साथ ही स्थापित होगई थी| विश्व भर के काव्य ग्रंथों व समृद्धतम संस्कृत भाषा साहित्य में अतुकांत गीत, मुक्त छंद या अगीत-- मन्त्रों , ऋचाओं व श्लोकों के रूप में सदैव ही विद्यमान रहे हैं| लोकवाणी एवं लोक साहित्य में भी अगीत कविता -भाव सदैव उपस्थित रहा है |
वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी| कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता छंद शास्त्र के बंधनों व पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती गयी | नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी तथा स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य , विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया और साथ-साथ ही राष्ट्र, देश, समाज , जाति भी बंधनों में बंधते गए |
निराला से पहले भी आल्ह-खंड के जगनिक, टेगोर की बांग्ला कवितायें, जयशंकर प्रसाद , मैथिली शरण गुप्त . अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', सुमित्रानंदन पन्त आदि कवि तुकांत कविता के साथ साथ भिन्न-तुकांत व अतुकांत काव्य-रचना कर रहे थे | परन्तु वे गीति-छंद विधान के बंधनों से पूर्ण मुक्त नहीं थीं | उदाहरणार्थ...
"अधिक और हुई नभ लालिमा ,
दश दिशा अनुरंजित हो गयी |
सकल पादप पुंज हरीतिमा ,
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई ||" ......अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिओध'
"तो फिर क्या हुआ,
सिद्धराज जय सिंह;
मर गया हाय-
तुम पापी प्रेत उसके |" ........मैथिली शरण गुप्त ( सिद्धराज जय सिंह से )
: विरह अहह कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा ||" ..........सुमित्रा नंदन पन्त
' परिमल' में निराला जी ने तीनों प्रकार की कवितायें तीन खण्डों में प्रस्तुत की हैं | अंतिम खंड में मुक्त-छंद कविता है | हिन्दी के उत्थान व बांग्ला से टक्कर व प्रगति की उत्कट लालसा लिए निराला, खड़ी बोली को सिर्फ आगरा के आस-पास की भाषा समझाने वालों को गलत ठहराने व खड़ी बोली- जो शुद्ध हिन्दी थी और राष्ट्र-भाषा के सर्वथा योग्य व हकदार थी --की सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के हेतु कविता को छंद-बंधन से मुक्त करने को कटिबद्ध थे | इस प्रकार मुक्त-काव्य व स्वच्छंद कविता की स्थापना हुई| परन्तु निरालायुग में, उससे पहले व स्वयं निराला जी की अतुकांत व छंद-मुक्त कविता मुख्यतः छायावादी प्रभाव, यथार्थ-वर्णन व सामाजिक यथास्थिति वर्णन तक सीमित थी, क्योंकि उनका उद्देश्य एक सामाजिक युगकर्म--कविता को मुक्त करना व हिन्दी का उत्थान था |अतः वे कवितायें लंबी-लंबी थीं, उनमें आगे के आधुनिक युग की आवश्यकता--संक्षिप्तता, सरलता, सहजता के साथ तीब्र भाव-सम्प्रेषण व सामाजिक सरोकारों का उचित समाधान वर्णन व प्रस्तुति का भाव था| उदाहरणार्थ---" वह आता ...", "अबे सुन बे गुलाब .." , वह तोडती पत्थर ..."...आदि प्रसिद्द कविताओं में समस्या वर्णन तो है परन्तु उनका समुचित समाधान प्रस्तुति नहीं है | इन्हीं विशिष्ट अभावों की पूर्ती हित के साथ साथ मुक्त-छंद, अतुकांत कविता , हिन्दी भाषा , साहित्य व समाज के उत्तरोत्तर और अग्रगामी विकास व प्रगति हेतु हिन्दी साहित्य की नवीन धारा " अगीत-विधा" का प्रादुर्भाव हुआ, जो निराला-युग से आगे कविता की यात्रा को नवीन भाव से आगे बढाते हुए एवं उसी धारा की अग्रगामी विकासमान धारा होते हुए भी निराला के मुक्त-छंद काव्य से एक पृथक सत्ता है |
इस प्रकार संस्कृत व वैदिक साहित्य के अनुशीलन व अनुकरण में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा हिन्दी कविता को तुकांत-बद्धता व छंद-बद्धता की अनिवार्यता से मुक्त किये जाने पर हिन्दी साहित्य जगत में अतुकांत, मुक्त-छंद कविता का विधिवत सूत्रपात हुआ और आज वह पूरे हिन्दी जगत में सर्व-मान्य है| इसी के साथ अकविता, नईकविता, चेतन कविता, खबरदार कविता, अचेतन कविता, यथार्थ कविता, ठोस कविता , प्रगतिवाई कविता आदि का आविर्भाव हुआ| अतुकांत छंदों को रबड़-छंद, केंचुआ-छंद आदि विभिन्न नामों से पुकारा गया ; परन्तु कोई सर्वमान्य नाम नहीं मिल पाया था| इन सभी में संक्षिप्तता, सम-सामयिक वर्णन के साथ समाधान प्रस्तुति, सुरुचिकरता, सरलता आदि आधुनिक परिस्थिति के काव्य की क्षमता का अभाव था , अतः ये सभी नामों की कवितायें कालान्तर में लुप्त होगईं ,परन्तु जैसा पहले कहा जाचुका है कि उपरोक्त अभावों की पूर्ति-हित अगीत कविता की उत्पत्ति हुई एवं उसे गति मिली |
संक्षिप्तता, समस्या समाधान, अतुकांत मुक्त-छंद प्रस्तुति के साथ-साथ गेयता को समेटती हुई गीत सुरसरि की सह-सरिता , नयी अतुकांत कविता "अगीत" एक अल्हड निर्झरिणी की भांति, उत्साही व राष्ट्र-प्रेम से ओत -प्रोत , गीत, गज़ल, छंद, नव-गीत आदि सभी काव्य-विधाओं में सिद्धहस्त कवि डा.रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के अगीतायन से, लखनऊ विश्व-विद्यालय में हिदी की रीडर व सुधी साहित्यकार डा उषा गुप्ता की सुप्रेरणा व आशीर्वाद से निस्रत हुई | सन १९६५-६६ ई.में डा. सत्य ने "अखिल भारतीय अगीत परिषद "की लखनऊ में स्थापना की तथा अगीत विधा को विधिवत जन्म दिया तो वह अगीत-धारा कुछ इस प्रकार मुखरित हुई --
" आओ हम राष्ट्र को जगाएं
आजादी का जश्न मनाना,
हमारी मजबूरी नहीं-
अपितु कर्तव्य है |
आओ हम सब मिलकर
विश्व-बंधुत्व अपनाएं,
स्वराष्ट्र को प्रगति पथ पर
आगे बढाएं|" ............डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'
क्रमश: ---- अगीत साहित्य दर्पण--अध्याय प्रथम का शेष अगली पोस्ट में.....
कविता की अगीत विधा का प्रचलन भले ही कुछ दशक पुराना हो परन्तु अगीत की अवधारणा मानव द्वारा आनंदातिरेक में लयबद्ध स्वर में बोलना प्रारम्भ करने के साथ ही स्थापित होगई थी| विश्व भर के काव्य ग्रंथों व समृद्धतम संस्कृत भाषा साहित्य में अतुकांत गीत, मुक्त छंद या अगीत-- मन्त्रों , ऋचाओं व श्लोकों के रूप में सदैव ही विद्यमान रहे हैं| लोकवाणी एवं लोक साहित्य में भी अगीत कविता -भाव सदैव उपस्थित रहा है |
वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी| कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता छंद शास्त्र के बंधनों व पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती गयी | नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी तथा स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य , विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया और साथ-साथ ही राष्ट्र, देश, समाज , जाति भी बंधनों में बंधते गए |
निराला से पहले भी आल्ह-खंड के जगनिक, टेगोर की बांग्ला कवितायें, जयशंकर प्रसाद , मैथिली शरण गुप्त . अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', सुमित्रानंदन पन्त आदि कवि तुकांत कविता के साथ साथ भिन्न-तुकांत व अतुकांत काव्य-रचना कर रहे थे | परन्तु वे गीति-छंद विधान के बंधनों से पूर्ण मुक्त नहीं थीं | उदाहरणार्थ...
"अधिक और हुई नभ लालिमा ,
दश दिशा अनुरंजित हो गयी |
सकल पादप पुंज हरीतिमा ,
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई ||" ......अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिओध'
"तो फिर क्या हुआ,
सिद्धराज जय सिंह;
मर गया हाय-
तुम पापी प्रेत उसके |" ........मैथिली शरण गुप्त ( सिद्धराज जय सिंह से )
: विरह अहह कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा ||" ..........सुमित्रा नंदन पन्त
' परिमल' में निराला जी ने तीनों प्रकार की कवितायें तीन खण्डों में प्रस्तुत की हैं | अंतिम खंड में मुक्त-छंद कविता है | हिन्दी के उत्थान व बांग्ला से टक्कर व प्रगति की उत्कट लालसा लिए निराला, खड़ी बोली को सिर्फ आगरा के आस-पास की भाषा समझाने वालों को गलत ठहराने व खड़ी बोली- जो शुद्ध हिन्दी थी और राष्ट्र-भाषा के सर्वथा योग्य व हकदार थी --की सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के हेतु कविता को छंद-बंधन से मुक्त करने को कटिबद्ध थे | इस प्रकार मुक्त-काव्य व स्वच्छंद कविता की स्थापना हुई| परन्तु निरालायुग में, उससे पहले व स्वयं निराला जी की अतुकांत व छंद-मुक्त कविता मुख्यतः छायावादी प्रभाव, यथार्थ-वर्णन व सामाजिक यथास्थिति वर्णन तक सीमित थी, क्योंकि उनका उद्देश्य एक सामाजिक युगकर्म--कविता को मुक्त करना व हिन्दी का उत्थान था |अतः वे कवितायें लंबी-लंबी थीं, उनमें आगे के आधुनिक युग की आवश्यकता--संक्षिप्तता, सरलता, सहजता के साथ तीब्र भाव-सम्प्रेषण व सामाजिक सरोकारों का उचित समाधान वर्णन व प्रस्तुति का भाव था| उदाहरणार्थ---" वह आता ...", "अबे सुन बे गुलाब .." , वह तोडती पत्थर ..."...आदि प्रसिद्द कविताओं में समस्या वर्णन तो है परन्तु उनका समुचित समाधान प्रस्तुति नहीं है | इन्हीं विशिष्ट अभावों की पूर्ती हित के साथ साथ मुक्त-छंद, अतुकांत कविता , हिन्दी भाषा , साहित्य व समाज के उत्तरोत्तर और अग्रगामी विकास व प्रगति हेतु हिन्दी साहित्य की नवीन धारा " अगीत-विधा" का प्रादुर्भाव हुआ, जो निराला-युग से आगे कविता की यात्रा को नवीन भाव से आगे बढाते हुए एवं उसी धारा की अग्रगामी विकासमान धारा होते हुए भी निराला के मुक्त-छंद काव्य से एक पृथक सत्ता है |
इस प्रकार संस्कृत व वैदिक साहित्य के अनुशीलन व अनुकरण में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा हिन्दी कविता को तुकांत-बद्धता व छंद-बद्धता की अनिवार्यता से मुक्त किये जाने पर हिन्दी साहित्य जगत में अतुकांत, मुक्त-छंद कविता का विधिवत सूत्रपात हुआ और आज वह पूरे हिन्दी जगत में सर्व-मान्य है| इसी के साथ अकविता, नईकविता, चेतन कविता, खबरदार कविता, अचेतन कविता, यथार्थ कविता, ठोस कविता , प्रगतिवाई कविता आदि का आविर्भाव हुआ| अतुकांत छंदों को रबड़-छंद, केंचुआ-छंद आदि विभिन्न नामों से पुकारा गया ; परन्तु कोई सर्वमान्य नाम नहीं मिल पाया था| इन सभी में संक्षिप्तता, सम-सामयिक वर्णन के साथ समाधान प्रस्तुति, सुरुचिकरता, सरलता आदि आधुनिक परिस्थिति के काव्य की क्षमता का अभाव था , अतः ये सभी नामों की कवितायें कालान्तर में लुप्त होगईं ,परन्तु जैसा पहले कहा जाचुका है कि उपरोक्त अभावों की पूर्ति-हित अगीत कविता की उत्पत्ति हुई एवं उसे गति मिली |
संक्षिप्तता, समस्या समाधान, अतुकांत मुक्त-छंद प्रस्तुति के साथ-साथ गेयता को समेटती हुई गीत सुरसरि की सह-सरिता , नयी अतुकांत कविता "अगीत" एक अल्हड निर्झरिणी की भांति, उत्साही व राष्ट्र-प्रेम से ओत -प्रोत , गीत, गज़ल, छंद, नव-गीत आदि सभी काव्य-विधाओं में सिद्धहस्त कवि डा.रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के अगीतायन से, लखनऊ विश्व-विद्यालय में हिदी की रीडर व सुधी साहित्यकार डा उषा गुप्ता की सुप्रेरणा व आशीर्वाद से निस्रत हुई | सन १९६५-६६ ई.में डा. सत्य ने "अखिल भारतीय अगीत परिषद "की लखनऊ में स्थापना की तथा अगीत विधा को विधिवत जन्म दिया तो वह अगीत-धारा कुछ इस प्रकार मुखरित हुई --
" आओ हम राष्ट्र को जगाएं
आजादी का जश्न मनाना,
हमारी मजबूरी नहीं-
अपितु कर्तव्य है |
आओ हम सब मिलकर
विश्व-बंधुत्व अपनाएं,
स्वराष्ट्र को प्रगति पथ पर
आगे बढाएं|" ............डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'
क्रमश: ---- अगीत साहित्य दर्पण--अध्याय प्रथम का शेष अगली पोस्ट में.....