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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

गज़ल---डा श्याम गुप्त....

                                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
इक शब्द बोलने में वो यारो बड़े मगरूर |
क्या पढेंगे ख़त को मेरे कह दीजिये हुज़ूर |

दिल तोड़ना ही सदा जिनकी दास्ताने -दिल,
,दिल जोड़ने की देखिये, नाजो-अदा -गुरूर |

वो समझते हैं भला कब हुश्न का एसा भरम ,
खुश हैं वो ख्वावो-ख्याल में, 'वो हैं बड़े मशहूर' |

जिसने आँखों से न पी हो,वो भला समझे भी क्या ,
प्यास में कैसा नशा है,  इश्क में कैसा शुरूर  |

चाहत है दिल को तोड़ने की,  तोड़ दीजिये,
 श्याम तो इश्के-भरम में डूब के  मजबूर  |।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

बैठे ठाले... आलेख...डा श्याम गुप्त....

                                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                 भला बताइये शून्य क्या है ? आप छूटते ही कहेंगे कि, अजी ,ये क्या बात हुई ! शून्य एक अंक है जो '०' से प्रकट किया जाता है . जिसका अर्थ है -कुछ नहीं, कोइ नहीं, रिक्त स्थान आदि | पर हुज़ूर ! आप यह न समझें कि शून्य एक निरर्थक राशि है या कोइ राशि ही नहीं है |   साहिबान! यह अंक, शब्द या जो भी है, है अत्यंत महत्वपूर्ण व महान | क्या कहा ? क्यों ?  तो लीजिये आपने किसी को १०००० रु दिए और लिखे -'१०००/- दिए ' | अरे ! आप परेशान क्यों हैं ? क्या कहा ? ९००० रु ही रफूचक्कर होगये ! अब रोइए उस महान  शून्य को सिर पकड़ कर |
              इसे बिंदी भी कहा जाता है | अब बिंदी की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह न लगाइए वरना समझ लीजिये बस श्रीमतीजी .......| और कहीं महिला संगठनों को पता चल गया आपकी इस विचार धारा का तो बस ...बेलन-थाली-चिमटा, धरना -प्रदर्शन ..और आप पर महिला-विरोधी होने का.....| अरे तभी तो अपने बिहारी जी भी बहक गए --
"कहत सबै बेंदी दिए , आंकु दस गुनों होत |
तिय लिलार बेंदी दिये, अगणित बढ़त उदोत ||"
                 और याद है वह हिन्दी की बिंदी का कमाल जब स्कूल में इमला सत्र में  -" इत्र बेचने वाले को गंधी कहते हैं "..से बिंदी गायब कर देने पर ....मास्टर जी के .झापड़ ही झापड़ ..|
                 पर इस शून्य का अर्थ कुछ नहीं और महत्त्व बहुत कुछ है...इस विरोधाभास से न तो हम ही संतुष्ट होंगे , न आप ही | इसका अर्थ कुछ और भी है | यदि न जानते हों तो बताये देते हैं कि हिन्दी के प्रश्न- पत्र  में शून्य का अर्थ सिर्फ कुछ नहीं , कोई  नहीं न लिख दीजिएगा, नहीं तो निश्चिन्त रहिये, शून्य ही नसीब होगा | अब जरा आकाश के पर्ययाबाची तो दोहराइए ...समझ गए न | अरे  तभी तो कबीर जी  भी  रहस्य की बात कह गए---
        " सुन्न भवन  में अनहद बाजे,
          जग का साहिब रहता है ||  "
               प्रिय पाठक ! परन्तु इस '0' चिन्ह वाले शून्य को शून्य ही  क्यों कहते हैं | सोचिये | क्योंकि शून्य को आकाश भी कहते हैं और आकाश  है भी शून्य -निर्वात, सुन्न भवन | वह गोल भी है और अनंत भी , जैसे शून्य भी गोल है और अनंत भी | इसकी परिधि पर चक्कर लगाने वाले को छोर कहाँ मिलता है | जैसे क्षितिज की और दौडने वाले को क्षितिज नहीं मिलता | 
             आखिर अपने पूछ ही  लिया ; शून्य का आविष्कारक कौन है | जितने मुंह उतनी बातें , बात से बात निकालने में क्या जाता है ? परन्तु शून्य का अविष्कार एक भारतीय मनीषा द्वारा ही हुआ | इससे पूर्व विश्व- गणना सिर्फ ९ तक ही सीमित थी | इस असीम शून्य के आविष्कार के पश्चात् ही गणित व भौतिकी अस्तित्व में आये | ससीम मानव की मेधा असीम की और बढ़ी | सभ्यता को आगे चढ़ने का सोपान प्राप्त हुआ | संसार गणित पर आधारित है और गणित शून्य पर | मानव की ज्ञान व प्रकृति नियमन के चरमोत्कर्ष   की युग-गाथा  कम्प्युटर-विज्ञान भी तो शून्य आधारित सिद्धांत की भाषा-भूमि पर टिका है ; जिसके कारण आज मानव स्वयं सोचने वाले रोबोट-यंत्र-मानव बनाकर मानव के सृष्टा होने का सुस्वप्न देखकर ईश्वरत्व के निकट पहुँचने को प्रयास-रत है | और......खैर छोडिये भी....कहाँ आगये " आये थे हर भजन को ओटन लगे कपास " |
          हाँ तो आपने शून्य का अर्थ और महत्त्व समझ लिया | परन्तु श्रीमान ! यदि अप शिक्षार्थी, विद्यार्थी, परीक्षार्थी हैं तो शून्य के महत्त्व को कुछ अधिक ही अधिग्रहण करके परीक्षा में भी शून्य ही लाने  का  यत्न न करें , अन्यथा फिर एक वर्ष तक शून्य का सर पकड़ कर रोइयेगा |

                     चलिए अब तो अप शून्य का अर्थ समझ ही गए | क्या कहा ! अब भी नहीं समझे ? तो शून्य की भाँति शून्य के चक्कर लगाते रहिये , कभी तो समझ ही जायेंगे ---
           "लगा रह दर किनारे पर, कभी तो लहर आयेगी "
                       शायद अब तो आप समझ ही गए की शून्य क्या है |यदि अब भी न समझे तो हम क्या करें , आपका मष्तिष्क ही शून्य है और आपकी अक्ल भी शून्य में घास चराने चली गयी है | आपका वर्तमान व भविष्य भी शून्य का भूत ही है | हम तो उस कहावत को सोच के डर रहे हैं कि..." खाली दिमाग शैतान का घर होता है |"

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण--४....शासन, प्रशासन, बाबू-अफ़सर....

                                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
            शासन -प्रशासन में भ्रष्टाचार की गाथा तो बहुत पुरानी है  और सर्वाधिक चर्चित है। यद्यपि प्राचीन समय में प्रायः  दुश्मन के भेद लेने के लिए, किला भेदने आदि के रूप में युद्धकाल में  ही  उत्कोच के रूप में इस प्रथा का प्रयोग किया जाता था | वह भी पाश्चात्य प्रभाव से भारत में फैलना प्रारम्भ हुआ | सिकंदर व तत्पश्चात विदेशियों के आक्रमण के फलस्वरूप छल-छद्म द्वारा युद्ध जीतने की प्रथा प्रारम्भ हुई और राज्यकर्मचारियों व अधिकारियों आदि को  उत्कोच की भी ; जो मुगलों के काल में और अधिक प्रभावी हुई | भारत में शासन -प्रशासन में भ्रष्टाचार का अधिक प्रचलन ईस्ट इंडिया कंपनी के समय  अफसरों द्वारा पिटे-पिटाए भारतीय राजे- महाराजे, नबाव आदि को चुप रखने के लिए डालियाँ आदि भेजने से हुई , जो स्वयं उनके अपने अफसरों -मातहतों में ( भारत में पोस्टिंग या वापस जाने की सिफारिस हेतु ) प्रचलित होकर रस्म बन गयी | हिन्दुस्तानी चपरासी /बाबू जो बहुत कम पगार वाले होते थे  (-अफसर सदैव अँगरेज़ होते थे ) अफसरों को खुश करने के लिए , उनकी नक़ल हेतु अपना ज़लवा दिखाने के लिए सामान्य जन से भेंट लेने लगे और रिश्वत --भ्रष्टाचार का तंत्र स्थापित होने लगा | बाद में ब्रिटिश शासन में  बड़े बड़े दफ्तर, पुलिस  , मालगुजारी , चुंगी, लगान, क़ानून , अदालतें  व  भिन्न भिन्न करों आदि का क्रूरतापूर्वक बसूली व देश-संपदा दोहन के क्रम  में भ्रष्टाचार प्रगति पाता गया | शासन-प्रशासन रूपी शेर के मुंह लगा हुआ खून स्वतन्त्रता के पश्चात विज्ञजनों/ राजनेताओं  द्वारा कोई निश्चित भारतीय प्रणाली व उच्च -प्रतीकों की स्थापना की बजाय आजादी के फल बटोरना प्रारम्भ कर  देने से सभी --जन जन इसी कमाने खाने में  में जुट गया और भ्रष्टाचार बढ़ता ही गया , जो अन्य कारणों से ऊपर ..राजनेताओं और नीचे सामान्य जन जन में विषाणु की भांति प्रभावी होता गया, और रही सही कसर तथाकथित प्रगतिशीलता ,  उदारवादीनीति के तहत  विदेशी संस्कृति, अति-सुविधाभोगी जीवन पद्धति  बाज़ारवादी संस्कृति, बहु-देशीय कंपनियों के बाजार पर कब्जे से पूरी होगई ... जैसी आज स्थिति है , कोई काम किसी भी दफ्तर में बिना सुविधा शुल्क चुकाए नहीं होता |
क्या होना चाहिए---- सबसे कठिन कार्य है , क्योंकि सभी ऊपर से नीचे तक एक दूसरे से जुड़े होते हैं अतः कौन किसके विरुद्ध कहे, लिखे, गवाही दे, एक्शन ले ?
   १- भ्रष्टाचार-निरोधी संस्थाओं को कठोर कदम उठाने होंगे --  नियमों, कानूनों का कठोरता से पालन ताकि कोई भ्रष्ट बचने न पाए| 
   २-सरकारी व प्राइवेट सभी दफ्तरों आदि में पारदर्शिता के उपाय करने चाहिए, प्रत्येक कार्य के लिए समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए |
   ३-मानवीय लिप्सा व सुविधाभोगी संस्कृति की रोक थाम------विज्ञान, तकनीक, व आधुनीकरण के अन्धानुकरण में हर जगह वातानुकूलित संयन्त्र, हर हाथ में अनावश्यक मोबाइल, कम्प्यूटर, लेपटोप,आई-पोड आदि व पश्चिम के अन्धानुकरण में धन- शराव, शराव-शबाव का प्रदर्शन व अन्धाधुन्ध प्रयोग। परिवार तो मोलेक्यूलर होगये परन्तु हर परिवार - चार घर, चार कार, चार एसी, चार लेपटोप वाला होगय, यह सब व्यक्ति को रिश्वत खोरी की और आकर्षित करता है |
       अधिक पैसा-कमाई व अधिक मोटी-मोटी पगारशेयर, बचत, विदेशी-कर्ज़, लोन-संस्क्रिति के कारणजितने का भी मिले, जैसे भी मिले, जहां भी मिले- लेलो”  की नीति पनपने से भ्रष्ट-आचरण व भ्रष्टाचार को पैर पसारने की अनुमति मिलती है।
    ४-बहुत से अकर्मों को प्रश्रय न देना हर आदमी का शेयर में लगे रहना, अनावश्यक बचत, अधिकाधिक खेल, संगीत, मनोरंजन, फ़ूहड-हास्य, शास्त्र-धर्म-न्रीति के विरोधी प्रहसन, सीरियल, नाटक । विदेशी नकलपर नाटक, अन्ग्रेज़ी/ व हिन्दुस्तानी अन्ग्रेजों की लिखी, तथाकथित विदेशी पुरस्कार प्राप्त व्यर्थ की बडी-बडी पुस्तकें,---ईश-निन्दा-शास्त्र निन्दा पर अनावश्यक आलेख । प्रायोजित लेखकों, तथाकथित इतिहासकारों, कालम-लेखकों जो सिर्फ़ धन्धे के लिये, पैसे के लिये -–बच्चों, स्त्री, मनोविज्ञान  के नाम पर माता-पिता को सीख आदि द्वारा- आने वाली संतति में अश्रद्धा, अनास्था के बीज डालते हैंऔर सब चलता है-की सीख द्वारा उसे अनाचरण व भ्रष्टाचार के मार्ग पर जाने को जाने-अनजाने बढावा देते हैं ।
    ५ -अनाचरण-दुराचरणउपरोक्त जीवन प्रणाली का प्रभावी परिणाम, मानवीय दुराचरण होता है और भ्रष्टाचार का मूल कारक बनता है। मनुष्य के भ्रष्टाचार के कारण ही भ्रष्टाचार संस्थागत होने लगता है और समाज में पसारने लगता है ,फिर समेटे नहीं सिमटता |
        



        
       

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

एक प्रेरक सूत्र--- आत्म-बल...

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...  

 -----ऋग्वेद -मंडल ४/सू. १६/ २३२७.... में ऋषि का कथन है कि....
                        "  """""""यानि कृत्सेन सरथम वस्यु स्तोये वातस्य हर्योरीशान: |
               ऋज्रा वाजं न गध्यं युयूषांक विहर्य हन्यामपि भूयात  ||"-------  
                 अर्थात---  जब दूरदर्शी कुत्स योग्य अन्न की भाँति ऋजुता-सरलता को अपनाकर पार होने के लिए तत्पर होता है तब उसके रक्षण की कामना से इन्द्रदेव उसीके रथ पर सवार हो जाते हैं |
                 -----कुंठाग्रस्त साधक( या किसी भी कर्म में  रुकावट से आतंकित होकर रुक जाने वाला मानव ) जब अपनी दूरदर्शिता का प्रयोग करके सहज भाव से अपनी कुंठा के कारणों( मार्ग की रुकावटों को स्वयं दूर करने का प्रयत्न ) को दूर करने के लिए संकल्पित होता है( स्वयं उठा खड़ा  होता है, इच्छा शक्ति का प्रयोग करता है  ) तो इन्द्रदेव--अर्थात उसका स्वयम की शक्ति आत्म-संकल्प=आत्मबल = सेल्फ  भी उसका मनोरथ पूर्ण करने के लिए. उसके साथ होजाते हैं,  उसका साथ देने लगते हैं |

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण--तीन- --न्याय-व्यवस्था........डा श्याम गुप्त.....

                                                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 
                  कहा जाता है कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी  होती है , परन्तु न्यायाधीश व न्यायालय के अन्य कर्मचारी तो मनुष्य ही होते हैं और उनकी आँखें खुली होती हैं | उनमें भी मानवीय गुणावगुण होते ही हैं | सामान्य जन में यह निश्चित धारणा है की अदालतों में कोई काम  पैसे दिए बिना नहीं होता, और वह भी खुले आम , सामान्य दफ्तरों की भाँति चोरी चोरी नहीं  | अब यह धारणा क्यों व कैसे बनी ? सभी जानते हैं | 
                न्याय एक पवित्र  व्यापार है  व न्यायालय पवित्र स्थान, वे शासन व राजनीति से स्वतंत्र इकाई मानी जाती है  , परन्तु आज के मानवीय आचरण के  गिरावट के समय में यह व्यवस्था भी कैसे शुद्ध रह सकती है | न्याय के समाज और व्यक्ति पर दूरगामी व सर्वतोमुखी प्रभाव होते हैं | इसी के चलते जन-लोकपाल बिल में न्यायालयों को भी लाने की बात होरही है | मेरे विचार में कुछ मूल बातें एसी हैं जो इनके प्रति जनता में भय  का वातावरण बनाती हैं और भ्रष्टाचार के लिए भाव भूमि...
१-न्यायालय की अवमानना---- न्यायालय के विरुद्ध कुछ भी कथन, टिप्पणी आदि  अवमानना  मान लिया जाता है, जो नागरिक के अधिकार का हरण है ...अवमानना न्याय की होती है.....न्यायालय व न्यायाधीश की नहीं ---अवमानना न्याय की नहीं होनी चाहिए ..यदि कोई न्याय द्वारा पारित आदेशों का पालन नहीं करे तो वह अवमानना हो सकती है परन्तु टिप्पणी व राय प्रस्तुत करना  नहीं , न्यायालय में न्याय-आसन पर उपस्थित न्यायाधीश के न्याय के  विरुद्ध  कथन अवमानना है परन्तु अन्य स्थान पर उनके विरुद्ध कोई कथन या व्यक्तिगत कथन आदि  न्याय के नहीं, सामान्य नागरिक के सन्दर्भ में  माना जाना चाहिये | होता यह है क़ि नागरिक का कुछ भी बोलना अवमानना मान लिया जाता है और जनता में व्याप्त भय ..भ्रष्टाचार का कारण बनता है | 
२- स्वयं संज्ञान लेना--- होता यह है क़ि प्रायः तमाम व्यक्तिगत कारणों से न्यायकर्ता, स्वयं संज्ञान के अधिकार का प्रयोग करके किसी को भी वारंट तक भेज देते हैं जो भ्रष्टाचार का कारक है | अत्यंत आवश्यक समाज व जन-जीवन से सम्बंधित कलापों के अन्यथा यह अधिकार नहीं होना चाहिए .... इस अवस्था में वे  स्वयं न्यायकर्ता न होकर,  सामान्य व्यक्ति की भाँति नियमानुसार अन्य अदालत में अपना वाद पेश करें |
३- कहीं भी न्यायालय -- न्याय सिर्फ न्याय-आसन पर ही होना चाहिये , कहीं भी या  घर पर नहीं , नियमित रूप से पूरे समय चेंबर में न बैठना भी एक बहुत बड़ी असुविधा है न्याय के लिए | और --"न्याय में देरी का अर्थ न्याय न मिलना "..जैसे जुमले इसीलिये बन जाते हैं |
३- विशेष अधिकार -- न्याय कर्ताओं को सुविधा आदि के लिए प्रशासनिक अधिकारियों की भाँति  व्यवहार नहीं करना चाहिए ,  विशेष अधिकार  भी अनाधिकार चेष्टा को प्रश्रय देते हैं |          

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

वैदिक साहित्य में आधुनिक वैज्ञानिक तथ्य..३.....

                                                                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...    

१- वायु चक्र --  ऋग्वेद -३/२८/२६८८...  के अनुसार ----
  "मातरिश्वा यदमिमीते मातरि | वातस्या मर्गो अभ्वात्सरी माणि ||" ---अर्थात   एक स्थान पर वायुमंडल में उपस्थित अग्नि (  उच्च ताप ) वायु में तरंगें , लहरें उत्पन्न होने का कारण हैं | स्थानीय ताप बढ़ने से निम्न वायु-दाब होने पर वायु की तरंगें उठती हैं और अधिक वायु दाब वाले स्थान से उस स्थान की और वायु चलने लगती है | इस प्रकार वायु चक्र बनाने से हवा बहती रहती है |

२-गीत-संगीत से पोधों में वृद्धिऋग्वेद ३/८/२२२९ -- में ऋषि कहता है ---
 "अन्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तो वनस्पते मधुना देव्येन | 
यदाध्वार्श्तिशठा द्रविणोह धत्तायद्वा क्षयो मातुरस्य उपस्थे |"  ---  अर्थात....हे  वनस्पति देव ! देवत्व के अभिलाषी ऋत्विक गण यज्ञ में आपको दिव्य मधु  व गान ( यज्ञीय प्रयोग... गान.. इन्द्रगान ...साम- गान...संगीत आदि  ) से सिंचित करते हैं | आप चाहे उन्नत अवस्था में हों ( पौधा..वृक्ष रूप ) या पृथ्वी की गोद में ( बीज अवस्था में ) , वृद्धि को प्राप्त हों , हमें एश्वर्य प्रदान करें |

 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण--दो- राजनीति--....डा श्याम गुप्त.....

.                                                                                                      ...कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
            राजनीति व  सत्ता  का भ्रष्ट होना तो प्रसिद्ध है ही | अंग्रेज़ी कहावत है ..'पावर करप्ट्स" अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है ; जबकि भारतीय कहावत है ..'सत्ता पाहि क़ाहि मद नाहीं '....दोनों में क्या अंतर है...वही अंतर पश्चिम व भारतीय संस्कृति  में है | पावर करप्ट्स का अर्थ है सत्ता सभी को करप्ट कर देती है अर्थात  सत्ता है ही करप्शन का स्थान  और ध्वनि निकलती है..मनुष्य का क्या दोष ?! जबकि भारतीय सन्दर्भ का अर्थ है कि सत्ता पाकर किसे मद  नहीं होता (==सभी को नहीं होता) , अर्थात दोष उस मनुष्य का होता है जो प्रायः सत्ता पाकर भ्रष्ट होजाता है | अतः वही मूल मानवीय कदाचरण ही राजनीति व शासन में भी भ्रष्टाचार का दोषी है |
                 प्राचीन समय में प्रायः राजा ही शासक व न्यायाधीश दोनों हुआ करता था, वही प्रशासन व  सेना  का अध्यक्ष | अतः सुनवाई, न्याय व कार्यपालन त्वरित विना अवरोध के होता था | जो राजा स्वयं को जन-सेवक मान कर चलता था उसकी प्रजा संपन्न व राज्य और जन-जीवन सहज रूप से  चलता था | जब राजा स्वयं अपने स्वार्थ में डूबता था ; जो सभी को दिखाई देता था क्योंकि सत्ता का केंद्र एक ही होता था, अतः ऐसे राजाओं के लिए कहावत बनी "राजा होय चोरी करे न्याय कौन पर जाय "और भ्रष्ट सिर्फ एक राजपरिवार  ; तो प्रायः जन क्रान्ति से उसे हटा दिया जाता था |
         आज प्रजातंत्र में सत्ता , प्रशासन, न्याय , सेना आदि सत्ता के विभिन्न केंद्र हैं ,सब कुछ गड्ड-मड्ड है| और न्याय, कार्य व उसके पालन के केंद्र अलग अलग होने से कार्य-पालन में त्वरितता नहीं आपाती और यदि सभी जन सहज आचरण वाले हैं तो सब ठीक है अन्यथा अनेकों भ्रष्टाचार के केंद्र होने से उसे रोकना एक टेडी-खीर साबित होता है, कौन किसे हटाये , अतः प्रत्येक जन को सदाचारी होना अत्यावश्यक है  | 
         राजनीति के निर्णय दूरगामी व सर्वतोमुखी प्रभाव वाले होते हैं , अतः राजनेताओं के  भ्रष्टाचार का प्रभाव शासन, प्रशासन, न्याय, सेना सभी पर पड़ता है , और जन जन भ्रष्टाचार में लिप्त होजाता है | अतः राजनेताओं को स्वयं व्यक्तिगत रूप से व राजनैतिक पार्टियों को भी समष्टिगत रूप से  स्वच्छ व सदाचरण पूर्ण होना ही होगा |
         आज राजनेताओं,  मंत्रियों आदि में भ्रष्ट राजाओं की भाँति ( अफसरों, यहांतक कि न्यायविदों में भी-जिसका वर्णन वाद में अलग पोस्ट में  किया जायगा ) स्वयं को जन सेवक की बजाय जनता के, देश के मालिक का भाव घर कर गया है , जो बदलना ही होगा | जिसका परिणाम --शासन , प्रशासन में चुपके चुपके ,छिपे तौर पर  भ्रष्टाचार  है तो ---राजनीति में ( विधायकों की खरीद-फरोख्त आदि ) व न्यायालयों में खुले आम | इसके चलते ही आज जन-लोकपाल बिल की आवाज़ उठी है | नेताओं को सुविधा,विशेष अधिकार, मासिक पे, निधि आदि सभी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कृत्य हैं |
क्या होना चाहिए ---    
१- नेताओं व सांसदों , विधायकों को  को पार्टी-हित से पहले देश हित की लिए कार्य करना चाहिए --पार्टी की मूल नीति यदि देश विरोधी  है तो पार्लियामेंट स्वतंत्र वोटिंग करें |
२-सांसदों आदि का वेतन व पेंशन पर कोइ अधिकार नहीं है क्योंकि वे जन सेवक, समाज सेवक हैं  सरकारी सेवक नहीं अतः बंद हो |
३-सांसद आदि के विशेष अधिकार व  संसद-निधि का प्रावधान बंद कर देना चाहिए , नेता सिर्फ सिफारिस करें , स्वयं शासन का भाग न बनें|
४- नेता ,सांसद आदि किसी भी सरकारी , प्राइवेट दफ्तर अदि में अफसरों  से मिलें  नहीं, सरकारी कार्य का भाग न बनें  , लोगों को लेकर काम कराने स्वयं न जायं , सिर्फ पत्र लिखें |
५- नेताओं, सांसदों आदि को अपने क्षेत्र से अन्यथा राजधानी में कोइ फ्लैट/ आवास न दिया जाय, सदा ही उसमें अवांछित गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है| सत्र के दौरान सम्मिलित -आवास होना चाहिए | सत्र के अलावा कोई नेता, सांसद आदि राजधानी न आये -जाए रेल व हवाई टिकट भी सिर्फ सत्र के लिए ही दिया जाय ६- वे बार बार कार्यालयों का दौरा न करें --मुख्य कार्यपालकों से ही रिपोर्ट लें , ट्रांसफर, पोस्टिंग , शासकीय आदेश पारित न करें | सिर्फ नीतिगत वक्तव्य ही दें |

 

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

हनुमान जयन्ती पर विशेष.....

                                                                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...आवाहन 

            आवाहन         
        ( कुन्डली –छन्द )
            १.
पवन तनय सन्कट- हरण,मारुति सुत अभिराम,
अन्जनि पुत्र सदा रहें, स्थित हर घर –ग्राम
स्थित हर घर- ग्राम, दिया वर सीता मां ने ,
होंय असम्भव काम ,जो नर तुमको सम्माने ।
राम दूत ,बल धाम ,श्याम, जो मन से ध्यावे,
हों प्रसन्न हनुमान, क्रिपा रघुपति की पावे ॥
           २.
निश्चयात्मक बुद्धि, मन प्रेम प्रीति सम्मान,
विनय करें तिनके सकल,कष्ट हरें हनुमान ।
कष्ट हरें हनुमान, पवन सुत अति बलशाली,
जिनके सम्मुख टिकै न कोई दुष्ट कुचाली ।
रामानुज के सखा ,दूत,प्रिय भक्त ,राम के ,
बिगडे काम बनायं,पवन-सुत,सभी श्याम के ॥
             प्रार्थना
(मनहरण कवित्त-३१ वर्ण,१६-१५ ,अन्त गुरु )
              १. 
दुर्गम जगत के हों, कारज सुगम सभी ,
  बस, हनुमत गुण-गान,  नित करिये ।
  सिन्धु पार करि,सिय-सुधि लाये लंक-जारि,
  ऐसे बजरन्ग बली का ही, ध्यान धरिए
  करें परमार्थ, सत कारज, निकाम भाव ,
  ऐसे उपकारी पुरुषोत्तम को,  भजिये
  रोग-दोष,दुख-शोक,सब का ही दूर करें,
  श्याम के, हे राम दूत! अवगुन हरिये ॥
            
                २.
(जल हरण घनाक्षरी-,३२ वर्ण,१६-१६ ,अन्त-दो लघु)

 विना हनुमत कृपा, मिलें नहीं राम जी,
राम भक्त हनुमान चरणों में ध्यान धर ।
रिद्धि–सिद्धि दाता,नव-निधि के प्रदाता प्रभु,
मातु जानकी से मिले ऐसे वरदानी वर ।
राम औ  लखन से मिलाये सुग्रीव तुम ,
दौनों पक्ष के ही दिये सन्कट उबार कर।
सन्कटहरण हरें, सन्कट सकल जग,
श्याम अरदास करें,कर दोऊ जोरि कर ॥
,

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

डा श्याम गुप्त की कहानी – मुक्ति पथ की ओर .....

      कहानी----                                                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


         न्हैया नंदन जी मेरे परम मित्रों में हैं। वे एक सफल चिकित्सक, कुशल अधिकारी के साथ एक एक अच्छे साहित्यकार भी हैं। सबसे बढ़कर वे एक सफल व्यक्तित्व हैं। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों , ज्ञान, विज्ञान, खेल , कर्मठता, प्रेम, सौहार्द , सम्बन्ध ,मित्रता आदि सभी में वे उन्मुक्त व्यवहारी व सफल व्यक्ति हैं। मेरी मित्रता एक सफल साहित्यकार के नाते रही है। हम एक समारोह में मिले,मित्रता हुई, वाद-विवाद व लम्बे पत्रोत्तरों का सिलसिला चला। लगभग चार वर्षों से उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ। कुछ दिन पहले उनका एक पत्र मिला जिससे ज्ञात हुआ कि वे अज्ञातवास में हैं। पत्र के साथ उनके पढ़ने की चाभी भी थी। पत्र का मंतव्य था कि अब वे शीघ्र लौट कर नहीं आयेंगे और उनकी आलमारी में जो भी कागज़-पत्र, अप्रकाशित रचनाएं आदि या जो कुछ भी है अब मेरे स्वामित्व में है , मैं जैसे भी चाहूँ उसका उपयोग व निस्तारण करने को स्वतंत्र हूँ।
          वे मुक्ति-पथ की ओर खोजलीन हैं। यह बात मैं उनके परिवार को भी बता दूँ ; वे ढूंढने का उपक्रम न करें, चिंता की कोई बात नहीं है जब ठीक समझेंगे वे स्वयं ही आजाएँगे। साहित्य से सम्बंधित लगभग सभी सामग्री मैंने हस्तगत करली ; जिसमें एक डायरी , कुछ रचनाएं व कुछ पत्र आदि थे। मुझे सबसे अधिक आकृष्ट किया कुछ हस्तलिखित पत्रों की असंपादित -रद्दी प्रतियों ने, जो उन्होंने लोगों के अपने प्रति विचारों पर अन्य विवेचनात्मक टिप्पणियों सहित भेजे होंगे। वे वास्तव में एक सफल व्यक्तित्व के आत्म-निरीक्षण के दस्तावेज़ थे। वही दस्तावेज़ मैं आगे के पन्नों में आपके सम्मुख ज्यों के त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ।

पत्र एक---
प्रिय अग्रज , सादर चरण स्पर्श ,
           आपको मलाल है कि मैं सब विधि कुशल होने पर भी एक महान व प्रसिद्ध चिकित्सक नहीं बना। आपका कहना है कि तुम जहां पहुँच सकते थे नहीं पहुंचे। भाई ! आप बड़े हैं, अनुभवी हैं, परिवार में हम सबसे अधिक कुशाग्र-बुद्धि;  मुझसे अधिक दुनियादार हैं। मैं क्या कहूं , पर सिद्धि को छोड़कर ( प्राप्त करने के बाद ) आगे बढ़ जाना मेरे विचार से मुक्ति पथ की ओर बढ़ना है। सिद्धियों को कभी मैंने अपने हित में भुनाने का कार्य नहीं किया। मैं कभी तेज दौड़ मैं शामिल ही नहीं हुआ। हो सकता है कि दुनियादारी की दौड़ में मैं बहुतों से पीछे रह गया होऊँ ; पर अपने अंतर में मुझे संतोष है। मैंने सिद्धियाँ प्राप्त कीं, शायद इस समय की चिकित्सा-विशेषज्ञता सिद्धि, जन सामान्य में आदर, समाज में स्थापित पहचान। शायद यह माता-पिता की साधना का उचित फल है। सिद्धियों के लाभपूर्ण उपयोग के शिखर पर मैं नहीं पहुँच पाया। प्रभु इच्छा! मैं एसा ही हूँ। पर मुक्ति-पथ की ओर मुझे बढ़ना ही है। आप जानते हैं कि , अनुज, भगिनी,रिश्तेदार आदि सभी लिए मैं प्रभा- मंडल युक्त हूँ। वे अभिभूत हैं मेरी कर्मठता, विद्वता, काव्यप्रेम, एवं सभी से समता व युक्ति-युक्त प्रेमपूर्ण व्यवहार के वे कायल हैं। नाते-रिश्तेदार, उनके बच्चों में, पड़ोसियों में, मैं आदर्श, अनुकरणीय व सफल व्यक्ति की भांति चर्चित व प्रशंसित हूँ। शिखर पर पहुंचे परिवार के शिखर पुरुष की तरह माननीय। जब आप किसी को डांट देते हैं या नाराज़ होजाते हैं तो या किसी का आपसे कोई काम नहीं हो पाता तो वे मुझे ही संपर्क करते हैं, सुलझाने के लिए।

              मेरे कवि मित्र मुझे आशु-कवि, आध्यात्मिक रचनाकार, भावुक, सुविनयी, ज्ञानी जाने क्या क्या कहते हैं। कवि ह्रदय की महानता ही है यह सब। ज्ञानी व सत्संगति वाले विद्वानों की संगति- सान्निध्य में जो रस प्राप्त होता है, ज्ञान व अनुभव होता है , उसी को अपने जीवन के अनुभवों से मिलाकर कलमबद्ध कर लेता हूं। उस असीम की कृपा होती है तो कविता बन जाती है और मैं कर्ता का भ्रम पाले रहता हूँ।

              मेरे सहकर्मी साथी चिकित्सक मुझे कर्मठ , ईमानदार, अपने काम में मस्त , निर्णय में कठोर,कानूनची पर सभी में समभाव रखने वाला विद्वान् व्यक्ति कहते हैं। कुछ सुधी चिकित्सक मित्र , भाई , आपकी तरह यह भी कहते हैं कि तुम अपने मुख्य पेशे में कभी नहीं रम पाए। अपनी सिद्धि-यात्रा से भटक गए। विशेषज्ञ कर्म सिद्धि-रूप था, योग था; तुम योग भ्रष्ट व पथ-भ्रष्ट योगी होकर रह गए। भाई ! जीवन का लक्ष्य क्या है ? सिद्धि या मुक्ति ? निश्चय ही मुक्ति। वे कहते हैं- सिद्धि प्राप्ति से ही तो जीवन सफल बनाया जा सकता है। पर भाई जी, मुक्ति ही वास्तविक सफलता है, जीवन है। आनंद, परमानंद, सत-चित भाव आदि ही मुक्ति है , वही सफल जीवन है। मुक्ति का आधार-भूत भाव - मानव कल्याण द्वारा शान्ति व परमानंद मार्ग है। सिद्धियों द्वारा मानव कल्याण , मुक्तिपथ की खोज से मानव कल्याण , प्रेम भाव के पथ से मानव कल्याण या किसी भी भाव व कर्म से मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करके मुक्ति प्राप्ति की राह पर अग्रसर हुआ जा सकता है। सिद्धियाँ भौतिक बस्तु हैं, सांसारिक हैं। ऋद्धि-सिद्धि में लक्ष्मी व् सरस्वती दौनों की ही कृपा दृष्टि होती है जो इस काल-खंड की रीति है। अतः सिद्धि में अहं तत्व के प्रमुखता पाने का, वैभव-भ्रष्टता का अधिक अंदेशा होता है। वहां से गिर कर, पथभ्रष्ट होकर उठा नहीं जा सकता। अतः सिद्धि से इतर अन्य राहें भी मुक्ति हेतु अपनाई जा सकतीं हैं। मैं वही राह अपनाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

               मैं योग भ्रष्ट हूँ ,शायद, पर भ्रष्ट या पथभ्रष्ट नहीं। मैं सिद्धि प्राप्ति के बाद रुका नहीं , छोड़कर आगे बढ़ गया हूँ। यह सिद्धि प्राप्ति के बाद जीवन का अगला सोपान है,योग भ्रष्टता नहीं। सिद्धि भ्रष्ट या सिद्धि में भ्रष्ट व्यक्ति प्राय: पथ भ्रष्ट हो जाता है। यह आज के युग की रीति है क्योंकि सिद्धि का मार्ग लक्ष्मी के मार्ग से टकराकर ही जाता है। जीवन का लक्ष्य या उद्देश्य क्या है -मुक्ति ; जिसके साधन चार पदार्थ हैं -धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष। सिद्धियाँ कर्म व पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त सीढियां हैं, साधनों को प्राप्त करने क, जो स्वयं धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मूलक होती हैं। यहाँ रुक जाना, रम जाना, सांसारिकता है, माया है। दौड़कर, छोड़कर आगे बढ़ जाना योग भाव है, ईश्वर से युक्त होने का पथ है। परमार्थ भाव व सच्चे प्रेम प्राप्ति भाव में इनको छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए, रमने का अर्थ पथ-भ्रष्टता है। छोड़कर आगे बढ़ जाना ब्रह्म प्राप्ति, अमृतत्व व मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करना है। जीवन में विद्याप्राप्ति, हठयोग, विशेषज्ञ कर्म व विद्या ,अर्थोपार्जन , भक्ति- भाव रत रहना--सभी सिद्धियाँ हैं यदि इनमें परमार्थ भाव है तो, अन्यथा स्वार्थ भाव में यही बंधन है, माया है, पतन के रास्ते हैं। परमार्थ-भाव सिद्धियों में भी, मगन होकर रम जाना, मुक्ति पथ पर रुक जाना है, अतः इनको भी छोड़कर आगे बढ़ना होगा; तभी मुक्ति की ओर बढ़ा जा सकता है।

           भाई जी, मेरे बरिष्ठ अधिकारी मुझे कर्मठ, अनुशासित, न्याय प्रिय, ईमानदार , योग्य अधिकारी की तरह देखते है, मानते भी हैं। सब मेरे इन गुणों का उपयोग भी करते हैं। पर परिस्थितियों को चतुरता व टेक्ट से सुलझाने में, लटकाने में ताकि उनके पास समस्याएं न पहुंचें, इसमें मुझे सफल नहीं समझते। उनको कमाई कराने में मैं समर्थ नहीं हूँ। अतः प्रायः लाभ के दायित्व मुझे सौंपने से कतराते हैं। भ्रष्ट अधिकारी तो मुझे नाकारा, अयोग्य, अदूरदर्शी भी कहा करते हैं। कठोर व अप्रिय निर्णय लेने के कार्य मुझे खुशी से सौंपते हैं। मैंने स्वयं आज तक किसी विशिष्ट पद या नगर, स्थान के बारे में स्वयं मांग नहीं की। जो होता है वही मान लेता हूँ। हरि इच्छा ! ईश्वर ने सब कुछ अपने आप ही दिया है वही मैं अपने लायक समझ कर प्रसन्न हूँ। आवश्यकता से अधिक प्राप्ति अहंकार की ओर ले जाती है।

           मेरे कनिष्ठ अधीनस्थ, जो स्वयं कर्मठ व अनुशासित हैं, मेरे अनुशासन प्रियता, समदर्शिता का सम्मान करते हैं। जाने कितनों को मैंने आर्थिक, सामाजिक, अनुशासनात्मक,कठिनाइयों से उबारा होगा, बिना भेद-भाव व बिना प्रति-प्राप्ति की इच्छा के। उनकी दृष्टि में मैं एक न्याय-प्रिय अधिकारी हूँ जो सभी छोटे-बड़े समान भाव से उचित न्याय व दंड, दोनों में विश्वास रखता है। यदि एक तरफ मैं शासकीय कार्य में कठोर व निर्मम कर्तव्यपालक हूँ तो व्यक्तिगत स्तर पर एकदम विपरीत। कार्यालय के कार्य के प्रतिद्वंद्विता ,छद्म भावना, द्वंद्व या विरोध को मैं कार्यालय के बाहर याद नहीं रखता। उसका व्यक्तिगत भाव से कोई लेना-देना नहीं होता। कामचोर, चालाक, नेता की भांति व्यवहार करने वाले कर्मचारी, अधीनस्थ व सामान्य जन मुझे अशिष्ट, सिर-फिरा, अकडू यहाँ तक कि भ्रष्ट भी कहते हैं, जिनको मैंने कभी अवांछित लाभ नहीं पहुंचाया। शैतानी शक्तियां सदैव आप पर हावी होने का यत्न करती हैं। यदि एक बार भी आप जाल में फंस गए तो उसी के उदाहरण स्वरुप वे पुनः पुनः आपका शोषण करती रहती हैं। न कहना भी एक कला है, और उस पर दृढ रहना -इच्छाशक्ति, जो सत्याचरण से मिलती है। प्रथम बार ही न, सदा का छुटकारा।

           अच्छा-बुरा व्यक्ति समानुपातिक, सापेक्षिक भाव है; जो आपसे लाभान्वित होते हैं वे अच्छा कहेंगे; अन्यथा आप बुरे हैं।  हाँ, जो स्वयं विज्ञ व उच्चकोटि के व्यक्तित्व हैं , वे उनका गलत कार्य नकारने पर भी पीठ-पीछे आपकी प्रशंसा करेंगे। दुर्जन का क्या कहा जा सकता है ? अतः जिस अधिकारी/ कर्मचारी को सभी अच्छा कहें वह टेक्टफुल, चलता पुर्जा होता है। अच्छा वह है जिसे अधिक लोग अच्छा कहें तो कुछ लोग बुरा अवश्य कहें। पीठ पीछे ऐसे लोगों को सब अच्छा ही कहते हैं। अच्छाई का कभी पूर्ण अंत नहीं होता।

          हम क्या हैं ? व्यक्ति क्या है ? मैं क्या हूँ ? मेरे अंतस में ये शाश्वत प्रश्न मुझे लगता है युगों से मंथित हो रहा है। अहं ब्रह्मास्मि, सर्व खल्विदं ब्रह्म जैसे वाक्य यह जानने की इच्छा और तीव्र करदेते हैं कि हम क्या हैं, क्यों हैं ? इसका उत्तर आत्म-निरीक्षण, आत्मालोचन, अपने को पहचानने के अतिरिक्त और कैसे किया जा सकता है। और यह जानने के लिए यह जानना, समझना व मनन करना आवश्यक है कि आपके चारों ओर के जन-जन आपको क्या समझते व मानते हैं। आखिर हम क्या हैं? व्यक्ति स्वयं में कुछ नहीं होता। वह उसके चारों ओर एकत्रित जन मानस के कारण ही अस्तित्व में होता है। अस्तित्व का अर्थ ही है कि उपस्थित अन्य लोग उसकी उपस्थिति अनुभव करें। वे अन्य यदि नहीं हैं तो आप भी नहीं हैं। आप एक अज्ञात, गुमनाम, अनजान, अनाम -प्राकृतिक जड़ तत्व संसार की ही भांति हैं। अतः यह जानना व विवेचना आवश्यक है कि अन्य आपके बारे में का सोचते हैं। इससे सत्य के मार्ग पर चलने की राह व दिशा प्राप्त होती है। भटकने पर सुधार की प्रवृत्ति होती है। आत्मालोचन व आत्म विवेचना से आपको मुक्ति पथ की ओर उचित दिशा निर्देश में सहायक होती है। यह जड़ तत्व जब एकोहं वाली स्थिति में होता है तो उसे- गति व नियति , बहुस्याम की इच्छा रूपी चित-शक्ति-यही जन जन इच्छा रूपी माया प्रदान करती है और उसे स्वत्व मिलता है। यही माया बंधन तोड़कर , छोड़कर जब आत्मतत्व अपना स्वत्त्व खोकर, अहं भाव त्यागकर, अस्तित्वहीन हो जाता है तो पुनः माया से अलिप्त होकर, प्रकृतिस्थ, जड़ भाव, ईश्वरोन्लय हो जाता है। यह मुक्ति है। मुक्ति और अस्तित्व के बीच यह अनवरत चलने वाला द्वंद्व, जीव की जीवन यात्रा है, जीवन है, मुक्ति पथ है।

           यदि अस्तित्व ही न हो तो मुक्ति कैसे प्राप्त होगी ? अतः आपको अपना अस्तित्व तो स्थापित करना ही होता है। इसके लिए आवश्यक है जन जन से जुड़ना। यह जुड़ाव सामाजिक अवधारणा का बीज रूप है। समाज है तो व्यक्ति का अस्तित्व है। सिद्धि-प्रसिद्ध, सामाजिक उपलब्धियां, धर्म, अर्थ, काम सभी व्यक्ति के अस्तित्व के लिए हैं और यही मोक्ष के द्वार हैं। उपलब्धियां कर्म से ही प्राप्त होती हैं अतः कर्म ही मोक्ष का वास्तविक द्वार है। सत्कर्म, निष्काम कर्म , सिद्धियों के मोह अहं से पथ भ्रष्ट न होकर कर्तव्य पथ पर चलते जाना ही वास्तविक कर्म है। यही मुक्ति-पथ है। मुझे चलना ही है। आशीर्वाद दें।

पत्र -दो ----
नीरा, आशीर्वाद;
        बेटी, तुम बेटी जैसी ही हो। मैं जानता हूँ तुम चाहती हो उसे। मैं जानता हूँ तुम उस माहौल से बाहर आना चाहती हो। स्वच्छंद स्वतंत्र आकाश में उड़ना चाहती हो। हम तो हैं ही मुक्ति राह के, नारी स्वतन्त्रता के झंडावरदार। तुम में मैं अपने मन की इच्छा की प्रतिच्छाया, नारी मुक्ति की बात ही देखता हूँ। मैं अवश्य तुम्हारी मुक्ति-सेतु की नींव बनूंगा। वर्षों पहले जो नारी उत्थान के बहाने समाज कल्याण का दुष्कर मार्ग मैंने घर फूंक कलाप से अपनाया था उसे अवश्य ही आगे बढ़ाऊंगा। मेरा आशीर्वाद व शुभकामनाएं हैं तुम्हारे साथ। पर इस पथ पर कमर कस कर चलना होगा। संघर्ष को दृढ़ता से जीतना होगा। दुर्बलता के क्षणों में धैर्य बनाए रखना होगा, वही सफलता दिलाएगा। मैं हूँ न तुम्हारे साथ, मैं आऊँगा लौटकर अवश्य, तुम्हारी सफलता का साक्षी बनने। पूर्णाहुति के लिए।

पत्र -तीन -----
नीरज ,
          आशीर्वाद। बेटे तुम कुछ नया करना चाहते हो। नीति -रीति के नए अंदाज़ से मुझे चौंकाना चाहते हो। पुत्र का पिता से प्रतिद्वंद्विता का भाव होता है। तुम, हम भी कुछ हैं, यह जमाने को बताना चाहते हो। नीति-रीति की संकीर्णता तोड़कर समाज में विचार वैविध्य व उन्नन्ति के सोपानों की एक सीढ़ी अंतरजातीय विवाह भी है। प्रसन्न ही हूँ, चाहे चौंकाने के भाव से ही सही, मेरे भाव को ही तुम आगे बढाओगे। मैं तो कलम का सिपाही हूँ। चाहे कलम हो या कूंची-ब्रुश या चाकू -- सर्जना मेरा कर्म है, धर्म है। आशीर्वाद है।

            लगभग ३५ वर्ष पहले जब मैंने सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह किया था तो वह बहुत सी व्यक्तिगत, सामाजिक , आर्थिक लालसाओं व आकर्षणों को त्याग कर, समाज में नारी को उन्नंत दिशा प्रदान करके भावी पीढ़ी को आगे दिशा निर्देश का प्रयास भर था। अब लगता है उसका परिणामी रूप सम्मुख आ रहा है। मैं साथ हूँ। मैं आऊँगा तुम्हारी सफलता का एक पृष्ठ लिखने।

             बेटे ! तुम कहते हो कि आपको किसी बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। आपके लिए तो "आउट आफ साईट आउट आफ माइंड"। कविता से दुनिया नहीं चलती आदि। इसका अर्थ है कि मैं तुम्हारे किये कार्यों व उपलब्धियों की, नए नए कलापों की तुम्हारी माँ की भांति अत्यधिक प्रशंसा नहीं करता। पुत्र की उपलब्धियों पर अत्यधिक उत्सुकता, एक्साईटमेंट प्रदर्शित नहीं करता। सच है। हाँ, मैं ऐसा ही हूँ। आज तुम्हारे कथन से मुझे लगता है कि शायद मैं अपने जीवन के लक्ष्य की ओर वास्तव में उन्मुख हूँ। भेदा-भेद, फलाफल से परे , ज्ञान अज्ञान से परे, गुणातीत अवस्था की ओर, मुक्ति की ओर। धन्यवाद, आनंदित हूँ। और बेटे ! कवि का अर्थ क्रान्तिदर्शी होता है, आत्मदर्शी। समदर्शी, कवि, मनीषी, स्वयंभू, परिभू -ईश्वर के गुण हैं। ईश्वर ने ही सारा संसार , माया जगत बनाया है , रचाया सजाया है। यह कैसे हो सकता है कि कवि, दुनिया-जगत को न जाने , न पहचाने। हाँ यह हो सकता है कि वह उसमें रमे नहीं। सिर्फ माया जगत उसका लक्ष्य न हो। सिद्धियाँ प्राप्ति के बाद त्यागकर , मुक्ति पथ उसका लक्ष्य हो।

           तुम कहते हो कि आप स्वयं कोई निर्णय नहीं लेते, ताकि जवाब-देही न करनी पड़े। हो सकता है यह सत्य हो; पर किसी भी प्रभावशाली, दूरगामी व अंतिम निर्णयों से पहले पक्की तौर पर जांच आवश्यक है। अतः मुखिया को सर्वदा अन्य व मातहतों को ही निर्णय लेने देना चाहिए। क्योंकि दूर से देखने पर कमियों व भूलों का ज्ञान सरलता से होता है। स्वयं कार्य करते समय, कार्य सदैव सही लगते हैं। हाँ तुरंत व हानिकारक होने वाले क्रिया-कलापों पर तो मैं तुरंत वीटो-पावर ( विशेषाधिकार ) से निर्णय लेता हूँ। यह सत्य ही लोकरंजक व एकतान्त्रिक के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था है।

पत्र चार ---
दक्षा ,
        बेटी,  तुम दहेज़ के नाम पर तीव्र प्रतिक्रिया करती हो। नारी-नर समानता व नारी की महानता पर गौरवान्वित हो। कभी कभी शादी-विवाह के विपरीत विचार भी व्यक्त करती हो। तुम कहती हो कि ( जब कभी नाराज होकर झगड़ा करती हो तो ) अब आप पिता की तरह सोच रहे हैं। अच्छा लगता है; तुम मेरी ही प्रतिकृति हो इस स्थान पर। यदि पुत्र , पिता की ज्ञान कृति है तो पुत्री भाव कृति। पर बेटी, पुरुष अर्थात प्रकृति के सामान्य अर्ध-भाव को ठुकराने या दबाकर पूर्ण-काम कैसे हुआ जा सकता है ? यह ठीक उसी तरह है जैसे प्रकृति की सुकुमार कृति नारी को ठुकराने या पुरुष अहं-भाव से दबाकर कोई भी पुरुष पूर्ण-काम नहीं हो सकता। सम्पूर्ण नहीं हो सकता। हिन्दू देवों -राधा-कृष्ण ,शिव-पार्वती, सीता-राम आदि के युगल रूप होने का यही अर्थ है। हमें साध्य से नहीं साधनों से होशियार रहना चाहिए। साधन ही उचित-अनुचित, सही-गलत होते हैं। साध्य तो लक्ष्य ही होता है ,गलत या सही नहीं। हाँ, यदि वह साध्य शास्त्रोचित, परमार्थ भाव युक्त है तो , और अहंकार भाव से ग्रसित नहीं है। अपनी इच्छा भाव से उचित चुनाव करो, मैं तो साथ हूँ ही। शेष स्वयं सब कुछ सोच विचार कर, न कि इच्छाभाव में बहकर व सांसारिक चकाचौंध से ग्रसित व मोहित होकर। आशीर्वाद है।

पत्र पांच ----
सुप्रिया,
             तुम कहती हो कि तुम बहुत भोले हो। बात करना नहीं आता। बुद्धू हो। घर- गृहस्थी से मतलब नहीं रखते। कुछ नहीं समझते। छोटी-छोटी बात पर झल्लाते हो, छोटी छोटी गलतियों पर गुस्सा होते हो। रूठने पर कभी मनाते नहीं। वक्त पर जरूरी काम याद आते नहीं। प्रिया ! पूर्णकाम कौन हो पाया है ? मानव मन भूलों की गठरी है, अधभरी गगरी है , खामियों की नगरी है। पर सोचो, समझो ,बताओ कि जीवन की डगर पर जीवन-सुख में कहीं तुम्हें कमी आखरी ? या किसी भी त्रुटि पर , कमी पर या हानि-क्षति पर कभी मुझे क्रोध आया? अन्य लोग तो कहते हैं कि मुझे क्रोध आता ही नहीं। छोटी छोटी कमियों या त्रुटियों पर गुस्सा, सुधारने की कोशिस का फ़साना है। ये सुधर सकतीं हैं यह कहने का बहाना है। गुस्सा अपनों पर ही आता है, गैरों पर नहीं। मैं अवश्य आऊँगा। पर कब ......?

पत्र छः ---
सुमि,
            तुम कहती हो, तुम पूर्ण-काम हो, राधा के श्याम। राधा का श्याम होना, पूर्णकाम होना , व्यक्ति को जग से ऊपर उठा देता है। सारे जग से समभाव प्रेम करना सिखा देता है। वह राधा का श्याम तो हो जाता है, योगेश्वर ! तो बन जाता है पर गोकुल का कान्हा कहाँ रह पाता है ? राधारानी का कन्हैया कहाँ रह जाता है, उसे माया रूपी पटरानियों का स्वामी, पति या दास बन जाना पड़ता है। वह वृन्दावन बिहारी नहीं रहता, चक्र सुदर्शन धारी हो जाता है। कृष्ण मुरारी होना पड़ता है। वह राधा प्यारी के रूप रस भाव पर मुग्ध, मन ही मन मुस्काता है, गीत गाता है , हरषता -तरसता तो है , पर वो प्रीति कहाँ पाता है? राधा का कहाँ हो पाता है ? समझी न ......।

पत्र सात ---
श्री प्रकाश ,
         तुम कहते हो कि तुम तो कलियुग के कृष्ण हो , पर विज्ञान के छात्र व आधुनिक चिकित्सा शास्त्री होने पर भी ईश्वर भक्ति व ज्ञान-अज्ञान की बातें कैसे कर लेते हो ? हाँ भई ! सच है, मैं अति आधुनिक विचार वादी , अत्यंत उदार वादी, तार्किक, न्याय वादी , कभी पूजा न करने वाला, कठोर अनुशासन वादी, रूढ़ियाँ व लीक छोड़कर चलने वाला, होते हुए भी ईश्वर में आस्था रखता हूँ। हां, मैं समरसता में जीवन व्यतीत करना व अधिक झंझट में न पड़ने वाला व्यक्ति हूँ। परन्तु यदि बात मेरे देश, समाज, संस्कृति व मानवता की है तो मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ। कभी भी, किसी के भी साथ। हाँ , सच ही मैं श्री कृष्ण का प्रशंसक,उपासक, साधक हूँ , इस भाव में भक्त हूँ। तुम जानते हो कि भक्ति की चरम अवस्था में भक्त- भगवन्लय हो जाता है। जैसा कि वेदान्त कहता है कि आत्मा अपने चरम ज्ञान के उत्कर्ष में ज्ञान और ज्ञाता का भेद मिटा कर परमात्म लीन हो जाती है , तदाकार, तदनुरूप हो जाती है, द्वैत अद्वैत में लय हो जाता है। जीव स्वयं परमात्मा हो जाता है। मैं अभी उस राह पर चलने को प्रयत्न शील हूँ।
" जल में कुंभ कुम्भ में जल है , बाहर भीतर पानी।
टूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यों गियानी।।"
परिणाम तो वही जानता है।

           तो हे कलियुग के श्री दामा ! हे ऊधो ! श्री प्रकाश जी , कहीं तुम गोपियों को सबक पढ़ाने मत पहुँच जाना। कहीं मेरा राग भाव उन पर व्यक्त मत कर देना। अब इस स्तर पर कहीं वे सब मिलकर भ्रमर-गीत में ताने देने लगीं तो मुश्किल होगी। जो जहां है वहीं ठीक है। मैं तो वैसे भी तुम्हारे अनुसार कृष्ण भाव हूँ -राग-विराग से परे। पत्रोत्तर की आवश्यकता ही नहीं है। शेष मिलने पर।



शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

प्रेरक वाक्य---डा श्याम गुप्त....

                                                                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...   
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वेभूतेन गुप्तो भव्येन चाहम |
मा मा प्रापत पाप्मा मोत मृत्युरंतर्दधेहं सलिलेन वाच:|| -------अथर्व वेद १७/१/२९ ....

---- सत्यकर्म और धर्माचरण से ही  जीवन( संसार ) सुरक्षित रहता है | हम समस्त विश्व( के जड़- जंगम, प्राणियों)  की सुरक्षा की इच्छा करते हैं , सुरक्षा चाहते हैं, सुरक्षा की इच्छा करें | अत: हम सदैव निष्पाप व यशस्वी बनें ( अयश व पाप को प्राप्त न हों, अनुचित  कर्म न करें  ) हम सदैव (मृत्युपर्यंत ) ही जल की भाँति निर्मल मन से कार्य करते हुए उच्च ज्ञान प्राप्त करते रहें |

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण..मीडिया --.३- समाचार......डा श्याम गुप्त.....

                                                                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
   समाचार गुणात्मक होने चाहिये न कि व्यर्थ के जिनका हम से, हमारे समाज से , देश से , सन्स्क्रिति से कोई मतलब न हो और समाज सन्स्क्रिति के लिये विघटनात्मक हों.... अब देखिये कुछ समाचारों की बानगी....
१-युवा चाहते है कम किराये में बस सेवा....  कौन नहीं चाहेगा ? क्या यह कोई समाचार है? फ़िर क्यों युवाओं से निरर्थक सवाल पूछे जायं, जिन्हें अभी पढने -लिखने में समय लगाना चाहिये न कि इन सवालों में जिसका अभी उन्हें कोई ग्यान ही नहीं, बडों का, शासन का यह कर्तव्य है । क्या हम युवाओं के मन में यह सोच डालना चाह्ते हैं कि आपके बडे नाकारा हैं अब आप ही बताइये हल...
२-पेरेन्ट बनें सपोर्ट सिस्टम... क्या सदा से ही माता-पिता बच्चों के सपोर्ट-सिस्टम नहीं है?...भारत में तो हैं..किसी कानून के बिना भी... अपनी शक्ति भर, यथायोग्य सभी माता-पिता बच्चों के भले ,उनकी तरक्की के लिये प्रयास करते हैं....यह विदेशी विचार है जहां माता-पिता ,कानून के डर से बच्चों का पालन-पोषण करते हैं।......इस प्रकार के समाचार बच्चों में  और असीमित  अपेक्षायें व माता-पिता के विरुद्ध अवग्या भाव उत्पन्न होते हैं ...जो भविष्य के अनाचरण के कारण हैं...
३- विशेष्ग्यता से सम्बन्धित समाचारों का सिर्फ़ वह भाग ही प्र्दर्शित हो जिससे जनता को सीधा मतलब हो----देखिये .... अ-लखनऊ के पानी में नाइट्रेट की मात्रा चिन्ताजानक....क्या इस जानकारी का सामान्य जनता से कोई मतलब है...यह एक विशेषग्य ग्यान है और उन्हीं को जानना व उचित व्यवस्था करनी है....व्यर्थ के समाचार द्वारा  सामान्य जन में घबराहट फ़ैलाने से क्या लाभ...क्या वे पानी पीना बन्द करदें...फ़िर क्या करें....क्या करपायेंगे..?ब सुपर बग से डरिये मत..यदि कोई डर है ही नहीं तो उसे जनता को अखबार में बताने की ही क्या आवश्यकता है---भ्रम, भय व अनास्था फ़ैलाने का जरिया हैं येऔर चिकित्सा-जगत में भ्रष्ट आचरण प्रारम्भ के कारक... स-चिकिन पोक्स से डरिये नहीं हटाइये---सामान्य जनता क्या चिकिन पोक्स को हटा सकती है..यह विशेष्ग्यों का कार्य है तो जानकारे का जनता क्या करे---हां भ्रम व भय अवश्य फ़ैल सकता है ....
४-नया नज़रिया ----
--(अ) शैतान बच्चा या अगला सचिन.... वाह क्या नज़रिया है सभी बच्चे पढाई-लिखाई छोडकर खेलने में लग जायें और बच्चों में...अकर्म, अनास्था, टूटने दो कोई बात नहीं, सचिन बनना है...अर्थात गलतियों का नियमितीकरण की भावना उत्पन्न करता है।
---(ब).. मिस इन्डिया २०१५....वाह क्या नया नज़रिया है...सब लडकियों को बस मिस इन्डिआ बनने के प्रयत्नों में लग जाना चाहिये, न कि महा देवी वर्मा, इन्दिरा गान्धी, सीता, मदालसा, किरन बेदी अदि.....

४-इन पर भी नज़र डालिये ---
-----मस्त केटरीना कैफ़.....
-----पूनम अवस्थी कपडे उतारने को तैयार....
-----नायर अब भी दिल के करीब --हर्ले.....
-----छ: करोड की डायमन्ड बस्टर...चोली...
-----बर्लुस्कोनी( इटली के पी एम ) को सेक्स के बदले पैसा देने की क्या जरूरत-- रूसी महिला मित्र......अखिर इन व्यर्थ के समाचारों का क्या महत्व है?...उत्तेजना, भ्रम, असान्स्क्रितिकता  फ़ैलाना...
५-  कुछ अन्य व्यर्थ के समाचार... जो व्यर्थ के पेज बढाकर अखबार का मूल्य व जनता का पैसा व समय बर्बाद करते हैं, जिसकी भरपाई के लिये वही...भ्रष्टाचार का छोटा सा रूप.....
 ---सऊदी अरब में बनेगी सबसे ऊंची इमारत---तो हम क्या करें, जब बनेगी देखा जायगा...
----आज का भविष्य---क्या अन्धविश्वास फ़ैलाना लक्ष्य है...
----सुडोकू..व्यर्थ के लतीफ़े अदि......क्या कोई औचित्य है ...?
---चेर्नोबल सन्कट में जापान...सामान्य जन क्या करे ...जब सरकारी स्तर पर कुछ होगा देखा जायगा...
---उपवास  से कमजोर होता है शरीर----कौन कब से नहीं जानता.....क्या आवश्यकता है इस समाचार की..

 --------और क्या कहाजाय आप तो सभी प्रतिदिन ही झेलते हैं...या सिर्फ़ हेडिन्ग पढकर कुड कुडाते हुए अपने काम में लग जाते हैं.....

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण..मीडिया --..२ -हिन्दुस्तान-स.पत्र का नया आकार...डा श्याम गुप्त.....

.                                                                                         ...कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...   
               जैसा कि घोषित था हिन्दी -हिन्दुस्तान का नया अंक १५/४/११ आया -- और जैसा कि हमने कहा कि क्या नया होगा ..वही ढाक के तीन पात...कुछ बानगी देखिये...
१.... देखिये एक  बयान....जिन्हें महान कवयत्री  महादेवी वर्मा व एक पान वाले के विचारों में कोई अन्तर नही लगता.....जो  महादेवी वर्मा व एक पान वाले के विचारों को एक ही स्तर पर रखते  हों उनका ..वैचारिक स्तर आपही तय करिये और उनसे हम क्या आशा करें........ देखिये चित्र एक-->
 
२- देखिये चित्र दो.. बायें...   क्या नया अवतार भी पहले की ही भांति सेक्सी विग्यापन से युक्त रहेगा , तो नया क्या है.... क्या यह कदाचरण, अनाचरण नहीं है.....
३- देखिये चित्र तीन---दायें--क्या  अमरीकी मारियो से इसलिये नया डिजायन कराया था कि यह बताया जासके कि गान्धीजी के आन्दोलन का मूल विचार  उनका अपना नहीं अपितु एक अमेरिकी नागरिक के विचार से प्रेरित था, और बचपन में वे बहुत डरपोक थे । अर्थात हम अमेरिका के बिना कुछ भी नहीं कर सकते............. सामने चित्र तीन दायें --->
 ४- देखिये चित्र ४-नीचे....  ये लन्दन के भिखारी का गुण गान है या रवीन्द्रनाथ टेगोर का ..?
-----क्या कहना चाहते हैं समाचार पत्र वाले.... यदि अमरीका से बुलाकर डिज़ायन करायेंगे तो अमरीका/ योरोप के गुण गान व उनकी सन्स्क्रिति गान तो होंगे ही....और अपने लोगों के करे कराये पर धूल....अपने हिन्दुस्तानी अखबार -वालों की फ़ौज़ को शर्म से डूब जाना चाहिये....
-----अधिक क्या कहा जाय ...सब जानते हैं...क्या यह भ्रष्ट आचरण, अनाचरण, कदाचरण  के  वाहक नहीं  हैं......

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण....१-हिन्दुस्तान-स.पत्र का नया आकार व मारियो...डा श्याम गुप्त.....

                                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...  
           भ्रष्टाचार सदैव  ही प्रत्येक वस्तु, भाव, विचार , कर्म की अति से प्रारम्भ होता है । यहां समाज में उपस्थित विभिन्न कारणों पर धारावाहिक पोस्टों में प्रकाश डाला जायगा...

भ्रष्टाचार की कारण एक---मीडिया ---  दि ११/४/११ के दैनिक हिन्दुस्तान में बडे जोर शोर से घोषणा की जारही है कि कल से हिन्दुस्तान एक नए रूप आकार में आ रहा है | इस के लिए किसी विदेशी  मारियो, के बड़े गुणगान किये जारहे हैं | मारियो की देख रेख में लग भग दस भारतीय एक दल बना कर सिर्फ हिन्दुस्तान समाचार पत्र को एक नया आकार देंगे |
          अर्थात सिर्फ एक पत्र को नया रूप देने को भी एक विदेशी पर निर्भरता , जिसे मोटी राशि तो देनी ही होगी , अन्य १० लोग भी सिर्फ इस व्यर्थ से कार्य के लिए | वे भी मुफ्त तो कार्य नहीं करते होगे ? और क्या भारतीय पत्रकार, सम्पादक, तकनीशियन इतने गए गुजरे है कि एक नया आकार नहीं दे सकते अखबार को |
           क्या इस नए रूप देने से क्या नई नई खबरें आने लगेंगीं समाचार पत्र में , या खबरों का विषय बदलाजायागा, या बुरी-बुरी , रोजमर्रा की आतंक, चोरी, लूट, बलात्कार , बहू जलाना आदि ख़बरें बंद हो  जाएँगी ?  आखिर सिर्फ खबरें देने वाले समाचार पत्र के नए-आकार रूप की आवश्यकता ही क्या है  सिर्फ अन्य पत्रों की तुलना में हमारा अच्छे आकार वाला है.....यह निश्चय ही दृश्य मीडिया की भाँति रेटिंग का ही चक्कर है | और परिणाम---- खर्चे बढ़ेंगे ,कीमतों में वृद्धि , फिर अन्य पत्र भी आगे आने को वही कार्य करेंगे ...और भ्रष्टाचार की एक लम्बी श्रृंखला का गठन.....|  
  क्या करना चाहिए ---
१- समाचार पत्रों को--- व्यर्थ के आकार -प्रकार सुन्दरता की बजाय साधारण पत्र निकालने चाहिए ताकि कीमत कम रहे , पत्र में व्यर्थ के हीरो-हीरोइनों के गोसिप -कालम, चित्र कालम, सिनेमा की तारीफें बंद कर देनी चाहिए ,  सेक्स से सम्बंधित, मीठी-मीठी बातें, काल गर्लों के प्रचार , खिलाड़ियों के बड़े बड़े अनावश्यक चित्र , कहानियां , प्रेम, विवाह घरेलू समाचार बंद करदेने चाहिए |----पत्र के पेज कम होने से मूल्य स्वतः कम होगा, पत्र के  खर्चे कम होंगें |
२- टी वी  अर्थात दृश्य मीडिया को भी --खिलाड़ियों के, हीरो-हीरोइनों के,  व्यर्थ के इंटरव्यू, व्यर्थ के नाच-गानों , उछल कूद, भोंडे हास्य , फोर्थ अम्पायर , अदालत, विदेशी खेल आदि के सारे प्रोग्राम बंद कर देने चाहिए सिर्फ महत्वपूर्ण मैचों का ही प्रसारण हो... --जिससे जाने कितनी विदेशी मुद्रा की बचत होगी , संस्कृति -प्रदूषण कम होगा और इन व्यर्थ के प्रोग्रामों के लिए, आसानी से मोटी कमाई के लिए  मची आपाधापी, netaage स्टेज पर आने के लिए असंगत उपाय, रिश्वत खोरी, जिस्म फरोशी  अदि भ्रष्टाचार के मूल कारण कम होंगे |
३- हमें ---  किसी भी ऐसे प्रोग्रामों को न देखें , न अन्य को प्रेरणा दें,...   पत्रों , टीवी, केबुल, इंटरनेट आदि पर व्यर्थ के प्रोग्रामों ,अनाचार के फैलाने वाले प्रोग्रामों , समाचारों, चित्रों  का विरोध करें |

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

अन्ना हज़ारे, जन समर्थन , जन क्रान्ति व विचार क्रान्ति-----डा श्याम गुप्त ..

                                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
          एक होती है "जन क्रान्ति " जो अन्ना हजारे द्वारा की जारही है, जो महात्मा गांधी द्वारा की गयी | जिसमें जन जन, बिना अधिक सोचे हुए, विना तर्क-वितर्क के  जन-नेता के पीछे चलता है | यह सामयिक रूप से  किसी लक्ष्य  व विचार की प्राप्ति का शीघ्र -उपाय होता है, जो उचित ही है और लक्ष्य को तेजी से पाने में समाज को सक्षम करता है | जन क्रान्ति जो मूलतः राजनैतिक या किसी विशेष लक्ष्य के लिए होती है जिसमें  में सम्मिलित जन जन की विभिन्न अपेक्षाएं, इच्छाएं रहती हैं | इसमें चमक, नेतागीरी, प्रसिद्धि व प्रशंसा का भाव भी रहता है | जन क्रान्ति मूलतः दूसरे के विरुद्ध होती है, किसी विशिष्ट के विरुद्ध होती है, अतःजन जन का समर्थन शीघ्र उपलब्ध होता है | 
          परन्तु यदि  जन क्रान्ति के साथ , प्रतिक्रान्ति, वास्तविक क्रान्ति " विचार क्रान्ति " न हो तो वह क्रान्ति अधूरी ही रहती है | जैसा भारतीय स्वतंत्रता-क्रान्ति के साथ हुआ कि राजनैतिक सफलता व लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात एक विचार क्रान्ति के लिए जन मानस को तैयार करने का कोइ ठोस कार्य नहीं किया गया | यह विज्ञ-जन, बुद्धिवादी लोगों , साहित्यकारों , विद्वानों का दायित्व होता है | परन्तु समस्त जन -जन व विज्ञ-जन भी,  स्वतन्त्रता के भोग, उपभोग में लिप्त होगये जिसका परिणाम आज समाज के हर क्षेत्र व जन जन में उपस्थित भ्रष्टाचार, अनाचार , सांस्कृतिक प्रदूषण जनित अकर्म-अनाचरण -दुराचरण व अप संस्कृति का मूल कारण है | विचार क्रान्ति चुपचाप, प्रसिद्धि से दूर व चमक रहित होती है , अतः कठिन होती है और जन-समूह का जन जन का सहयोग मिलना दुष्कर होता है , क्योंकि यह स्वयं अपने ही विरुद्ध होती है एवं  लक्ष्य दीर्घ कालीन व जन जन के, सामान्य जन के आचरण के विरुद्ध होती है |
            अतः आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना के जन समर्थन व सफलता से हमें अति-उत्साहित होकर -कि 'अब तो किला फतह कर लिया ' -सोचकर ,मस्त नहीं होजाना चाहिए | प्राय: सामान्य जन अपने अपने त्वरित व क्षेत्रीय लाभ के लिए भी जन नेताओं के पीछे लाम बंद होजाता  है , लक्ष्य प्राप्त होते ही अपने स्व-स्वार्थ कर्म में लिप्त हो जाता है |  
            हाँ इस प्रकरण से यह तथ्य तो सिद्ध होता ही है कि गांधी आज भी प्रासंगिक हैं | सामान्य जन में सदैव ही इच्छा तो होती है पर विचार व दिशा नहीं और सदा ही विज्ञ जनों , उच्च- पदस्थ जनों व, विद्वानों का यह दायित्व होता है कि उन्हें समय समय पर उचित ज्ञान व मार्ग निर्देशन कराते रहें |
           अतः निश्चय ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक विचार क्रान्ति  का उद्घोष होना चाहिए , जो स्व-भाव,  स्व-भाषा, स्व- देश-राष्ट्र व स्व-संस्कृति के प्रति श्रृद्धा व स्वानुशासन से होना चाहिए | यह आज बुद्धिवादी लोगों का दायित्व है कि  जन जन स्वानुशासन द्वारा स्वयं को भ्रष्टाचार , अनाचरण व सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्त करे |  अन्यथा यह जन क्रान्ति अधूरी व अर्थहीन होगी |

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

वेदिक साहित्य में विग्यान के तथ्य...२....डा श्याम गुप्त...

.                                                                             ...कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 
               वैदिक  साहित्य में आधुनिक विज्ञान के बहुत से तथ्य सूत्र रूप में मौजूद हैं ,  कुछ अन्य तथ्यों को यहाँ रखा जारहा है.....

प्रकाश के सात रन्ग.....ऋग्वेद  १/४/५२५---  में सूर्य की उपासना करते हुए ऋषि कहता है.....
           "सप्त त्वा हरितो रथो वहन्ति देव सूर्यः | शोचिष्केशं विचक्षण: ||"   ----हे सर्व दृष्टा सूर्यदेव ! आप तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त दिव्यता धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणों रूपी अश्वों के रथ पर सुशोभित होते हैं |
ऊर्ज़ा के रूप व उपयोगों का वर्णन-----   ऋग्वेद 1/66/723  के अनुसार -----
"य ई चिकेत गुहा भवन्तमा य: ससाद धाराम्रतस्य।वि ये च्रितन्त्र्प्रत्या सपन्त आदिद्वसूनि प्र ववाचास्मै ॥"
          -----जो गुह्य अग्निदेव को जानते हैं, यग्य में उन्हें प्रज्वलित करते हैं, और धारण की स्तुति करते हैं, वे अपार धन प्राप्त करते हैं ।----अर्थात.. जो विभिन्न पदार्थों में निहित --रसायन, काष्ठ, कोयला, जल, अणु आदि में अन्तर्निहित छुपी हुई अग्नि= शक्ति= ऊर्ज़ा को जानकर , उनसे ऊर्ज़ा-शक्ति प्राप्त करके उपयोग में लाते हैं वे  वे व्यक्ति, समाज, देश सम्पन्नता प्राप्त करते हैं। केमीकल, एटोमिक, हाइड्रो-, स्टीम, काष्ठ स्थित मूल अग्नि ऊर्ज़ा आदि का वर्णन है ।         
अग्नि की खोज व उपयोग--- ऋग्वेद 1/127/1432----का कथन है ---
" द्विता यवतिं  कीस्तासो अभिद्य्वो वमस्पन्त । उद वोचतं भ्रिगवो मथ्नन्तो दाश्य भ्रगव ॥"  ----भ्रगु वेष में उत्पन्न रिषियों ने मन्थन द्वारा अग्नि देव को प्रकट किया,  स्त्रोत कर्ता,( पढ्ने-लिखने वाले) स्रजनशील( वैग्यानिक उपयोग कर्ता-खोजकर्ता), विनय शील( समाज व्यक्ति के प्रति उत्तर्दायी)  भ्रगुओं ने प्रार्थनायें कीं ।
शब्द व वाणी अविनाशी- रिग्वेद १/१६४/१२१६--कहता है "तभूवुर्षा सहस्राक्षरा परमे व्योमनि॥" ...अर्थात ..वाणी सहस्र अक्षरों से युक्त होकर व्यापक आकाश , अन्तरिक्ष में संव्याप्त होजाती है ।अर्थात शब्द, वाणी, ( व सभी ऊर्ज़ायें) कभी विनष्ट नहीं होतीं , वे अक्षर हैं, अविनाशी । इसीलिये आज वैग्यानिक गीता के श्लोकों को अनन्त आकाश में से रिकार्ड करने का प्रयत्न कर रहे हैं ।



गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार व अन्ना हज़ारे का अनशन.....

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...       
          ६१ वर्ष में न जाने कितनी सरकारें आईं व गईं ...परन्तु भ्रष्टाचार बढ्ता ही गया व बढ्ता जारहा है...अतः भ्रष्टाचार कोई राजनैतिक मामला नहीं है, अपितु मानवीय आचरण का मामला है। जिस प्रकार से  कान्ग्रेस व मनमोहन सिन्ह सरकार पर आक्षेप लगाये जारहे हैं ( क्योंकि संयोग से इस सरकार के विरुद्ध ही तमाम मामले उजागर हुए हैं एवं  अधिकान्श समय कान्ग्रेस सरकार ही सत्ता में रही है, इससे क्या अन्य सरकारें क्या कर रहीं थीं ), एवं लोकपाल को सर्व-समर्थ बनाने की बात की जारही है, इससे लगता है कि इसे एक राजनैतिक मामला माना जा रहा है । क्या गारन्टी है कि लोकपाल स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हो जायगा । क्या आज कोई एसा व्यक्ति है सरकार, शासन, प्रशासन,जनता कहीं भी जिसे माना जाय कि वह भ्रष्ट नहीं हो जायगा।....साफ़-सुथरे पूर्व राष्ट्रपति कलाम/ प्रधान मन्त्री अटल बिहारी बाजपेयी-- क्यों नहीं इस मसले पर आगे आये ? 
         यद्यपि पहल को अच्छा ही कहा जायगा, कहीं से  तो  पहल हो । हां जब तक राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ ,आमूल चूल रूप में  मानवीय आचरण सुधारने के , सांस्कृतिक सुधार के, स्वयं जन जन स्वयं को सुधारने के  उपाय नहीं किये जाते ..भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो सकता |  

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

आज के प्रेरक वाक्य....डा श्याम गुप्त.....

                                                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
             उदारता और प्रमाद ----

"अध स्वप्नस्य निर्विदेSभुन्जातश्च रेवत । उभ्राता वास्त्रिनश्यत: ॥".....  ऋग्वेद १/१२०/१३५५.....

-----असमर्थों को भोजन प्रदान करने तक की उदारता न रखने वाले धनवानों को और आलस्य प्रमाद में पड़े रहने वाले व्यक्तियों को देखकर हमें दुःख होता है क्योंकि उनका शीघ्र ही विनाश सुनिश्चित है |

                     पुरुषार्थ  


"प्र तद्वीचेयं भव्यायेन्दवे ... ॥"   --ऋग्वेद -१/१२९/१४५०.....   जो अपने स्वयम के पुरुषार्थ से प्रगतिशील होकर वृद्धि पाता है वह इंद्र के समान प्रशंसनीय व प्रार्थनीय है ||  अपने स्वयं के बल-योग्यता से कार्य करने वाला , प्रसिद्धि आदि पाने वाला  ही  पुरुषार्थी  है और  सम्मान पाने योग्य |

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

निडर...डा श्याम गुप्त की कविता....

                                                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
उस रात जब लाइब्रेरी के पास,
मैने कहा था -
"क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
क्या तुम्हें होस्टल छोड़ दूं ?"-
'डर की क्या बात है, हाँ -
यदि तुम बार बार यही कहते रहे ,
तो मुझे डर है कि-
कहीं मैं डरने न लगूँ '-
तुमने कहा था |
मैं चाहता ही रहा कि-
शायद तुम कभी डरने लगो,
रात की गहराई से , या-
रास्ते की तनहाई से |
पर, तुम तो निडर ही रहीं,
निष्ठुरता की तह तक निर्भीक,
कि मैं स्वयं ही डर गया था ,
तुम्हारी इस निडरता से |
और, अभी तक डरता हूँ मैं कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी या नहीं ;
और होगी तो-
मैं क्या कहूंगा, क्या पूछूंगा ?
शायद  यही कि-
क्या तुम अभी तक वैसी ही हो;
निडर और निर्भीक !
और इसी बात से  डरता हूँ  मैं ,
अभी तक ||

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

----दीपयन्ती को १००१ और खिलाडी को एक करोड...डा श्याम गुप्त...

                                                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
         बडी नाइन्साफ़ी है.... दीपयन्ती जिसने लूट कर भागते हुए बदमाश को जान पर खेल कर पकडवाने में कोशिश की उसे सिर्फ़ १००१ रु का पुरस्कार , वो भी कालोनी के नागरिकों द्वारा......और क्रिकेट के खिलाडी जो सिर्फ़ पैसे के लिये खेलते हैं, जिन्हें खेलने के पैसे मिलते हैं और जीतना उनकी जिम्मेदारी है, उन्हें सिर्फ़ एक कप जीतने पर एक-एक करोड रु ,फ़्लेट और न जाने क्या क्या .....क्यों भाई ????? क्या जान पर खेलने की कीमत इतनी कम है और पैसे लेकर खेलने की और भाग्य से जीतजाने की कीमत करोडों ( मेच फ़ीस के अलावा )...
       यूं तो जीतना सभी को अच्छा लगता है, जीत सदा ही अच्छी होती है...पर उसका क्या गुणात्मक लाभ है, आखिर क्या खास बात की है इन खिलाडियों ने, देश को क्या मिल गया, हार जाते तो देश का क्या घट जाता...??? क्या इससे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार ,घोटाले,दुराचरण, कदाचरण , लूट, चोरी ,डकैती , आतन्कवाद कम होजायगा ?? वास्तव में तो और बढेगा ही...अरबों खर्च करके, आयोजनों में लूट-खसोट, बन्दरबांट,भ्रष्टाचार, अनाचार,मेच-फ़िक्सिन्ग, जनता का धन-समय बर्बाद करके....एक कप......
       और कहां से आयेगा देने को  यह धन...मेहनत कश जनता की गाढी कमाई से...... सरकार व आई सी आइ को क्या..उनके घर से थोडे ही जारहा है.......माल मुफ़्त दिले बेरहम....लुटाओ....एक तरफ़ तो जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है दूसरी ओर करोडों लुटाये जारहे हैं उन पर जो पहले ही करोड पति हैं....
            खिलाडियों का सम्मान करना चाहिये, यदि वे लाखों रु फ़ीस लेकर देश के लिये खेले तो धन किसलिये......खिलाडियों को भी चाहिये यदि वे वास्तव में देश के लिये खेले तो उन्हें पुरस्कार की राशि लेने से इन्कार कर देना चाहिये, क्योंकि वे अपने एम्प्लोयर से नियमित वेतन व खेलने के लिये फ़ीस लेते ही हैं..... पुरस्कार का अर्थ ही निशुल्क सेवा के लिये सम्मान होता है।