कृण्वन्तो विश्वमार्यम् | 'सच का' सामना AryasamajOnline By--subodhkumar |
--सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा मे निषिद्ध माना जाता है.गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता. सपिण्ड (सगे बहन भाइ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10वें मण्डल के 10वें सूक्त मे यम यमि जुडवा बहन भाइ के सम्वाद के रूप में आख्यान द्वारा उपदेश मिलता है.
यमी अपने सगे भाई यम से विवाह द्वारा संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है.परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा विवाह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है,और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते है, “सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)
“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)
इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “, एक पुरखा के पोते,पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन!! “—मनु-५/६०.
“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है.”
आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है, गणित के समीकरण के अनुसार,
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है, मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है.
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं.
मेडिकल अनुसंधानो द्वारा , कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर , गठिया, द्विध्रुवी अवसाद (डिप्रेशन), दमा, पेप्टिक अल्सर, और हड्डियों की कमजोरी. मानसिक दुर्बलता यानी कम बुद्धि का होना भी ऐसे विकार हैं जो अंत:प्रजनन से जुडे पाए गए हैं
बीबीसी की पाकिस्तानियों पर ब्रिटेन की एक रिपोर्ट के अनुसार, उन के बच्चों मे 13 गुना आनुवंशिक विकारों के होने की संभावना अधिक मिली, बर्मिंघम में पहली चचेरे भाई से विवाह के दस बच्चों में एक या तो बचपन में मर जाता है या एक गंभीर विकलांगता विकसित करता है. बीबीसी ने यह भी कहा कि, पाकिस्तान में ब्रिटेन, के पाकिस्तानी समुदाय में प्रसवकालीन मृत्यु दर काफी अधिक है. इस का मतलब यह है कि ब्रिटेन में अन्य सभी जातीय समूहों. के मुकाबले मे जन्मजात सभी ब्रिटिश पाकिस्तानी शिशु मौते 41 प्रतिशत अधिक पाई गयी. इसी प्रकार Epidermolysis bullosa अत्यधिक शारीरिक कष्ट का जीवन, सीमित मानवीय और संपर्क शायद त्वचा कैंसर से एक जल्दी मौत भीआनुवंशिक स्थितियों की संभावना बताती है.
माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि. भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए; ----
आश्रम के नाम ,अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि के साथ, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम भी जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं. परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है. आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है. इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है. परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रह्ती. इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया. परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.
निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.