....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
बहुत पहले से यह कहा जाता रहा है कि ...
बहुत पहले से यह कहा जाता रहा है कि ...
अज्ञान तमिस्रा मिटाकर,
आर्थिक रूप से,
समृद्ध होगी, सुबुद्ध होगी ;
नारी ! तू तभी-
स्वतंत्र होगी,
प्रबुद्ध होगी |
"
परन्तु आजकल नारी सुबुद्ध भी है,
प्रबुद्ध भी और आर्थिक रूप से समृद्ध व स्वतंत्र भी ....परन्तु अब यह भी देखा-सुना
व अनुभव किया जारहा है कि ज्यादातर कामकाजी स्त्रियाँ घर और नौकरी की दोहरी
जिम्मेदारिओं के बीच पिस कर रह जा रही हैं एवं अब ये स्वर भी उठ रहे हैं कि ...आर्थिक
स्वतन्त्रता भी पुरुष सत्ता से आज़ाद नहीं करती ...
प्रश्न यह उठता है कि क्या
वास्तव में स्त्री, पुरुष सत्ता से आज़ाद होना चाहती है ...यदि हाँ तो
क्यों?.... फिर तो पुरुष भी स्त्री सत्ता से आज़ाद होना चाहेगा...क्यों वह
व्यर्थ में ही यह बोझ ढोए.... फिर विवाह का क्या अर्थ रह जाता है ...विवाह
संस्था ही अर्थहीन बन कर रह जाती है.... सब जैसा मन आये रहें , स्वतंत्र,
स्वच्छंद..... विवाह का ढकोसला क्यों ....
कहा जा रहा है कि सेल्फ ऐक्चुअलाइज़ेशन
और फुलफिलमेंट अर्थात अपनी स्वयं की एकल
पहचान एवं इच्छाओं की पूर्ति ... नहीं कर पा रही हैं महिलायें ....एवं उसमें
पुरुष/पति की इच्छाएं, आज्ञाएँ, अड़ंगेबाजी आज भी बाधा बनती हैं|
साथ ही साथ यह भी देखा जारहा है कि स्त्रियाँ/पत्नियां
भी पुरुष के मानसिक उत्प्रीणन में पीछे
नहीं हैं और न्यायालयों को निर्णय देने पड रहे हैं कि पति को भी इस आधार पर
तलाक का अधिकार है |
हमें यह सोचना होगा कि ..... यह सेल्फ
क्या है ?...सेल्फ यदि स्त्री का है तो पुरुष का भी होगा .....विवाह क्या
है..क्या व क्यों विवाह आवश्यक है ? सभी जानते हैं कि विवाह दो पृथक-पृथक
पृष्ठभूमि से आये हुए व्यक्तित्वों का मिलन होता है, एक गठबंधन है, अपनी अपनी जैविक
एवं सामाजिक आवश्यकता पूर्ति हित एक समझौता
...प्रेम विवाह हो या परिवार द्वारा नियत विवाह | समझौते में अपने अपने
सेल्फ को अपने दोनों के सेल्फ में समन्वित, विलय करना होता है, अपना एकल सेल्फ कुछ
नहीं होता, उसे भुलाकर समन्वित सेल्फ को उभारना होता है | यह एक दूसरे के
मान व इच्छा को सम्मान देने से एक दूसरे के सेल्फ को समझने व उसे सम्मान देने से ही
हो सकता है | तभी दोनों अपने अपने सेल्फ को जी सकते हैं| अन्यथा वह सेल्फ ..अहं
में परिवर्तित होजाता है और समस्या, कठिनाई व द्वंद्व की स्थिति वहीं आती
है | और इस स्थिति में समन्वय से काम लेने की अपेक्षा कोई भी एक पक्ष अपने अहं पर
अड जाता है और उसकी पूर्ति हित बल प्रयोग, हठधर्मिता, अत्याचार पर उतर आता है | निश्चय
ही पुरुष का अहं प्रधान होता है, पर उस
अहं को पिघलाना ही तो नारीत्व की जीत है, और नारीत्व के मान की रक्षा पुरुषत्व की
जीत है...दोनों के जीत ही विवाह संस्था की, परिवार संस्था की जीत है..अर्थात कोई
किसी की सत्ता से छुटकारा नहीं पा सकता समन्वय करना ही एक मात्र रास्ता है |
यदि कुछ युगलों में समन्वय नहीं होपाता तो हज़ारों युगल सदैव साथ-साथ जीते भी तो
हैं..हंसी-खुशी ...जीवन भर साथ निभाकर | निश्चय ही यह समस्या न पुरुष सत्ता की
बात है न स्त्री-सत्ता की अपितु मानव आचरण की बात है |
यह नर-नारी आचार-द्वंद्व तो सदा से
आदिम युग से ही चला आया है परन्तु इसी चाबी से ही तो मानव आचरण व व्यवहार का ताला
खुलता है|
यदि यह समन्वय नहीं हो सकता तो फिर
दोनों का अलग हो जाना ही उचित है |