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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

गीत, अगीत और नवगीत ...१२..१२..१२.. में डा श्याम गुप्त की विशेष पोस्ट ....

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



                                                               गीत, अगीत और नवगीत

                    आजकल हिन्दी साहित्य व काव्य में पद्य-विधा के सनातन रूप गीत के दो अन्य रूप अगीत एवं नवगीत काफी प्रचलन में हैं | गद्य-विधा से भिन्नता के रूप में जिस कथ्य में, लय के साथ गति यति का उचित समन्वय एवं प्रवाह हो वह काव्य है,गीत है| तुकांत छंदों के अतिरिक्त, अन्त्यानुप्रास के अनुसार गीत- तुकांत या अतुकांत होते हैं | अतुकांत गीतों को गद्य-गीत भी कहा गया | गीत तो सनातन व सार्वकालिक है ही अतः आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है| यहाँ अगीत नवगीत पर कुछ दृष्टि डालने का प्रयत्न किया जायगा|
अगीत --- एक अतुकांत गीत है, जिसमें मूलतः संक्षिप्तता को ग्रहण किया गया है | निराला जी द्वारा स्थापित लम्बे-लम्बे अतुकांत गीतों से भिन्न ये ५ से ८ पंक्तियों में पूरी बात कहने में सक्षम हैं | लय, गति, यति के साथ प्रवाह इनकी विशेषता है जो इन्हें गीतों की श्रेणी में खडा करती है एवं अतुकान्तता पारंपरिक पद्य-गीत से पृथक करती है और संक्षिप्तता प्रचलित पारंपरिक अतुकांत गीतों से भिन्नता प्रदर्शित करती है | इस प्रकार अगीत एक स्वतंत्र व स्पष्ट विधा है एवं उसका का एक स्पष्ट तथ्य-विधान व रचना संसार है ...उदाहरणार्थ ---
खोल दो घूंघट के पट
हटादो ह्रदय पट से,
आवरण
मिटे तमिस्रा
हो नव-विहान |”             ---- सुषमागुप्ता     

टूट रहा मन का विश्वास
संकोची हैं सारी
मन की रेखाएं |
रोक रहीं मुझ को,
गहरी बाधाएं |
अन्धकार और बढ़ रहा,
उलट रहा सारा आकाश ||”      --- डा रंगनाथ मिश्र सत्य

नवगीत उसका भ्रामक संसार --- नवगीत की बात काफी समय से एवं काफी जोर-शोर से कही जा रही है| नवगीत को प्राय: गीत के नवीन एवं आधुनिक स्थानापन्न रूप में प्रचारित किया जाता है|  नवगीतकार प्रायः यह कहते हैं कि अब गीत पुरानी विधा होगई है नवगीत का युग है | परन्तु यदि ध्यान से विश्लेषण किया जाय तो यह एक भ्रांत धारणा ही है | वस्तुतः नवगीत कोई नवीन विधानात्मक तथ्य नहीं है अपितु  पारंपरिक गीत को ही तोड़-ताड़ कर लिख दिया जाता है | इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं,  कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है इसे गीत का सलाद या  खिचडी भी  कहा जा सकता है | इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता | वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | उदाहरणार्थ---- एक नवगीत है
जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |

सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे

थोपा गया
माथ पर पर्वत 
हमने कहाँ चुना         --मधुकर अस्थाना का नवगीत
            इसे  १२-१४  या१६-१०  या  २६ पंक्तियों वाला सामान्य गीत की भाँति लिखा जा सकताहै –-
जग ने जितना दिया,     ११              जग ने जितना दिया, लेलिया उससे कई गुना,   २६
लेलिया उससे कई गुना | १५     या      बिन मांगे जीवन में, अपने पन का जाल बुना|   २६
बिन मांगे जीवन में,    १२
अपने पन का जाल बुना |१४
                                                                      

सबके हाथ-पाँव बन,   १२                सबके हाथ पाँव बन सबकी-   १६
सबकी साधें शीश धरे | १४      या       साधें शीश धरे |            १०
.जीते जीते सबके –                      जीते जीते सबके सपने,
सपने हर पल रहे मरे |                  हर पल रहे मरे |

टेक-  थोपा गया माथ पर    १२     या     थोपा गया माथ पर पर्वत हमने कहाँ चुना २६
     पर्वत हमने कहाँ चुना ||  १४           जग ने जितना दिया लेलिया उससे कई गुना || २६

          कुछ  अन्य उदाहरण देखें ---
१-       
      ------ १४-१२ का पारंपरिक गीत है या नवगीत……
 विदा होकर जाते-जाते,    १४
बरस बीता कह गया।     १२
नवल तुम वो पूर्ण करना,   १४
जो नहीं मुझसे हुआ।    १२            ----कल्पना रमानी  का नवगीत
२-
टुकड़े टुकड़े 
टूट जाएँगे   १६
मन के मनके
दर्द हरा है    १६ = ३२
ताड़ों पर 
सीटी देती हैं 
गर्म हवाएँ    २४
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ       २४
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ     २४
धीरे-धीरे ढल जाएगा                                                   
वक्त आज तक
कब ठहरा है?    ३२       ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..
      
       ------ सीधा -सीधा 24 / ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ... इसे ऐसे लिखिए ....

ताड़ों पर सीटी देती  हैं गरम हवाएं ,   २४
जली दूब सी तलवों में चुभती यात्राएं | २४
पुनर्जन्म लेकर आती हैं दुर्घटनाएं |   २४
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके , दर्द हरा है  |  ३२

                  अतः इस प्रकार नवगीत कोई नवीन विधा नहीं ठहरती अपितु पारंपरिक गीत ही है जिसे गीत का सलाद  सा बना कर पेश किया जाता है | हाँ इस बहाने तमाम नवीन कथ्य तथ्यों के नाम पर दूर की कौड़ी के नाम पर , दूरस्थ व्यंजना के नाम पर ....असंगत कथ्य व तथ्य पेश कर दिए जाते हैं सिर्फ कुछ अलग दिखने हेतु | अब आप देखिये ---
जग ने जितना दिया
लेलिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपनेपन का
जाल बुना | ----   “

         क्या इस कथ्य का कोई अर्थ निकलता है ? अर्थात व्यक्ति को दुनिया कुछ देती नहीं वह ही दुनिया को देता है और जो कुछ वह अपने साथ पैदा होते ही लाता है दुनिया ले लेती है | हमें किसी( दुनिया, दोस्त, माता-पिता, भगवान ) का शुक्रगुज़ार होने की क्या आवश्यकता है |
होगयी है कर्मनाशा
समय की गंगा
नहाकर जिसमें हुआ
हर आदमी नंगा |   ---- यदि नदी कर्मनाशा है तो बुरा क्या है वह तो कर्मों का नाश हेतु होती ही है ...

                                                          

        और भी------
जली दूब-सी 
तलवों में चुभती
यात्राएँ   
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ   “                     ----- ??

आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन 
लगता है।    “                     ---- यह कौन सा नया महान तथ्य है  सब जानते हैं |

शाखाओं का बोझ उठाये
बरगद उठ न सका
                   ---- फिर वह बरगद ही क्यों कहलाता है फिर अतिरिक्त शाखाएं तो उसका  बोझ स्वयं उठाती हैं क्या अर्थ है कथ्य का ?

सोने के पिंजरे में
हमने
हर पल दर्द धुना |    …... दर्द के कारण अंग धुना जाता है नकि स्वयं दर्द .कोइ धुनने की चीज़ है ..

               मुझे तो इन असंगत कथ्यों का अर्थ समझ आता नहीं है यदि आपको तार्किक अर्थ समझ आ रहा हो तो बताएं मेरे विचार में तो इस प्रकार की कविता ही कविता व साहित्य, कवि-साहित्यकारों को जन जन, सामान्य जन से दूर करती जा रही है |