....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
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भारतीय रेल के
फिरोजपुर मंडल में मेरे एक चिकित्सक साथी सहकर्मी डा.साहनी थे | काफी
तेज–तर्रार, खूब बोलने वाले, दुनियादारी
में संलग्न–मग्न | वे शायद अजमेर के
किसी संस्थान में
क्लेरिकल जॉब करते हुए मेडीकल में सिलेक्ट हुए एवं रेलचिकित्सा-सेवा में आये | अतः
अधिक उम्र
में विवाह हुआ क्योंकि वे सैटिल होकर ही एवं किसी चिकित्सक से ही शादी
करना चाहते थे ताकि
नर्सिंग होम खोला जा सके |
विवाह के उपरांत वे छुट्टी लेकर हनीमून
पर जम्मू-कश्मीर की ओर गए |
शीघ्र ही जब मैं
किसी दौरे आदि से कार्यवश जम्मू
गया तो वे दम्पति हनीमून ट्रिप से लौट कर ऑफीसर रेस्ट
हाउस में बगल के ही कमरे में
ही ठहरे थे, मुलाक़ात हुई|
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मैंने सहज ही पूछा,’ डाक्टर साहब हनीमून कैसा रहा ?
वे
अनायास ही बोल पड़े, यार ! बोर होगये, मज़ा नहीं आया|
मैंने आश्चर्य से दोनों की ओर बारी-बारी से देखा फिर मुस्कुराते हुए पूछ लिया,’ हनीमून पर बोर, मज़ा नहीं आया, क्या मतलब ?
दिन रात पानी बरसता रहा कहीं निकल ही नहीं पाए कमरे में ही बंद रहे |
मैंने हंसते हुए कहा,’ तो किस बेवकूफ ने जून के आख़िरी हफ़्तों में पहाड़ पर घूमने जाने को कहा
था|’
जल प्रलय के बाद ( कितनी इमारतें अब भी हैं तो कितनी बनी होंगी पृथ्वी पर भार बढाने हेतु ) |
मैं आज सोचता हूँ कि शायद वह बात अनायास ही नहीं थी| वास्तव में ही पहले हम लोग जून के आख़िरी सप्ताह से ही
मानसून सीज़न मानकर पहाड़ों आदि पर जाना तो क्या घूमना ही स्थगित कर दिया करते थे, जैन व बौद्ध श्रमण
आदि चातुर्मास भी तो इन्ही दिनों किसी मुख्य नगर के किसी एक भक्त के यहाँ करते हैं
| तो केदारनाथ त्रासदी
के समय १५-१६ जून को इतने लोग क्यों वहां थे | इतनी ऊंचाई पर ठेठ हिमालय के आँचल में, नवीन व अस्थिर पर्वत श्रृंखलाओं के शिखरों के
मध्य | केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री जैसे आदि-स्थलों पर क्या आवागमन स्थगित नहीं किया जा सकता
है | सभी जानते हैं कि इस वर्षा की ऋतु में, सावन में सभी नदियाँ बौराई हुई होती होंगी| शिव की जटाओं से
मुक्त हो भागने हेतु | न जाने कब कौन सी, किधर की जटा खुल जाय और वही हो जो हुआ है |
क्यों मनुष्य की
लिप्सा का, बाज़ार-धंधे का, अर्थशास्त्रीय दृष्टि का नियमन नहीं होता | क्यों मनुष्य को
तीर्थधामों में भी समस्त सुख-सुविधाएं चाहिए| उत्तराखंड में जहां छोटी-छोटी झौपडियों, स्लेट पत्थर की छतों
वाली बिल्डिंगें व बुग्यालों का सौन्दर्य हुआ करता था आज बहुमंजिले इमारतों का घर
होता जा रहा है | पुराकाल में तो इन यात्राओं पर आने का अर्थ पुनः न लौट कर आने वाली
पांडव-स्वर्गारोहण यात्रा का भाव हुआ करता था |
सब कुछ स्थानीय समाज पर निर्भर था| न कोई ख़ास तैयारी, न प्रवंधन, सभी में
धर्म-कर्म-सेवा का मूलभाव होता था | अर्थशास्त्र के फैलाव ने यह सब कुछ बदल दिया है | यह भौतिक प्रगति तो
है पर गति नहीं है जीवन की... सहज, सरल, शनै:-शनै: प्रवहमान स्वयमेव गति |