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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

.....वर्ष की अंतिम ग़ज़ल....डा श्याम गुप्त

        आज वर्ष २०११ का अंतिम दिवस है.... कल से नववर्ष का प्रारम्भ है....यदि हम एक गुणात्मक सोच के साथ, एक सुनिश्चित लक्ष्य लेकर  ज़िंदगी की राहों को  ज़िंदादिली, प्रेम , भाईचारा , सौहार्द , अनुशासन व सहज़ता के साथ  तय करें तो ...आने वाला समय अवश्य ही शुभ होगा | देखिये इसी भाव पर वर्ष की अंतिम ग़ज़ल.... 

         राहों के रंग न जी सके.....

राहों के रंग न जी सके, कोई ज़िंदगी नहीं |
यूँही चलते जाना, दोस्त कोई ज़िंदगी नहीं |


कुछ पल तो रुक के देख ले क्या-क्या है राह में ,
यूँ ही राह चलते जाना,  कोई ज़िंदगी नहीं |


चलने का कुछ तो अर्थ हो, कोई मुकाम हो ,
चलने के लिए चलना, कोई ज़िंदगी नहीं |


कुछ ख़ूबसूरत से पड़ाव, यदि राह में न हों ,
उस राह चलते जाना, कोई ज़िंदगी नहीं |


ज़िंदा -दिली से, ज़िंदगी को जीना चाहिए,
तय, रोते सफ़र करना कोई ज़िंदगी नहीं |


इस दौरे भागम-भाग में, सिज़दे में प्यार के,
कुछ पल झुके तो, इससे बढ़कर बंदगी नहीं |


कुछ पल ठहर, हर मोड़ पर, खुशियाँ तू ढूंढ ले,
उन पल से बढ़कर श्याम' कोई ज़िंदगी नहीं ||