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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद -----आत्म- कथ्य---भाग दो -डा श्याम गुप्त .


               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त -----क्रमश -भाग एक से आगे ---


भाग दो 


-------- प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया है कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है, अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर, ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |

---------इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
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अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
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-------वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि विश्व को धारण करता है |
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तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
-------वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |.
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यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
-------जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व में ) ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में परमेश्वर को ( एवं आत्म तत्व को ) ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता, घृणा नहीं करता अतः आत्मानुरूप कर्मों के करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
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यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
---------जब व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे परमात्म-रूप ही होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |
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स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
---------और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित, अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य अनादिकाल से यातातथ्यतः अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों व अनुशासन की व्यवस्था करता है |
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-----------अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने, इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ?
--------वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर, ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से, समता भाव से कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |

---------क्रमश भाग तीन , अगले अंक में ---

पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त ..भाग एक---

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...





पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त -----
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------छात्र जीवन में आर्य समाज के ग्रन्थों एवं स्वामी दयानंद रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से वैदिक साहित्य एवं उसकी परंपरा से परिचय हुआ, क्योंकि भारतीय संस्कृति के पुजारी पूज्य पिताजी, स्वामी जी से अत्यंत प्रभावित थे | ------तत्पश्चात वेदों के एक प्राचीन संस्करण से उनके पारंपरिक कर्मकांडीय तथा बहु-अर्थीय अर्थार्थ से परिचय हुआ एवं गोरखपुर से प्रकाशित वेदों के पारंपरिक संस्करण तथा गायत्री परिवार के आचार्यवर श्रीराम शर्मा जी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी परिचय हुआ|
-------इस विशाल एवं बहु-आयामी, बहुमुखी ज्ञान का तनिक सा आस्वादन ही ज्ञान चक्षुओं को विभोर कर देता है | विभिन्न उपनिषदों से परिचय होने पर मुझे प्रतीत हुआ कि मानव-जीवन के सद-आचरण एवं उचित-जीवन व्यवहार ही समस्त वैदिक साहित्य के ज्ञान का मूलभाव है | ईशोपनिषद उस समस्त ज्ञान का मूल है |
--------महात्मा नारायण स्वामी के ‘उपनिषद् रहस्य’ एवं सस्ता साहित्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आचार्य विनोवा भावे जी के ‘ईशावास्यवृत्ति’ के अध्ययन से यह धारणा और पुष्ट हुई |
--------बस इन्हीं समस्त विचारों, भावों के आधार पर मुझे सरल हिन्दी में ईशोपनिषद के १८ मन्त्रों के काव्यभावानुवाद लिखने की अन्तःप्रेरणा प्राप्त हुई प्रस्तुत कृति के रूप में |
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--------- विश्व के प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के भण्डार 'वेद' , जिनके बारे में कथन है कि जो कुछ भी कहीं है वह वेदों में है और जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं , के ज्ञान ...परा व अपरा विद्या के आधार उपनिषद् हैं जो भारतीय मनीषा, ज्ञान, विद्या, संस्कृति व आचरण-व्यवहार के आधार तत्व हैं | उपनिषद् भवन की आधार शिला 'ईशोपनिषद ' है जिसमें समस्त वेदों व उपनिषद् शिक्षा का सार है | ईशोपनिषद यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है जो परा व अपरा ब्रह्म-विद्या का मूल है अन्य सभी उपनिषद् उसी का विस्तार हैं |
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---------वेदों के मन्त्रों का भाव मूलतः दो रूपों में प्राप्त होता है ...
१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...
२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |
--------ईशोपनिषद में ईश्वर, जीव, संसार, कर्म, कर्त्तव्य, धर्म, सत्य, व्यवहार एवं उनका तादाम्य 18 मन्त्रों में देदिया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं , समीचीन हैं एवं अनुकरणीय व पालनीय हैं | इसकी सैकड़ों टीकाएँ --- विधर्मी दाराशिकोह, जिसे इसके अध्ययन के बाद ही शान्ति मिली द्वारा फारसी में.... जर्मन विद्वान् शोपेन्हावर को अपनी प्रसिद्ध फिलासफी त्याग कर इसी से संतुष्टि प्राप्त हुई| शंकराचार्य की अद्वैतपरक...रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वेतपरक एवं माधवाचार्य की द्वैतपरक टीकाएँ इस उपनिषद् की महत्ता का वर्णन करती हैं |
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ईशोपनिषद के 18 मन्त्रों में चार भागों में सबकुछ कह दिया गया है | ये हैं--
१.प्रथम भाग...मन्त्र १ से ३ .... कर्तव्य-पंचक -मानव जीवन के मूल कर्त्तव्य ..
२.द्वितीय भाग....मन्त्र ४ से ८... ईश्वर के गुण -ब्रह्म विद्या मूलक सिद्धांत व ईश्वर के गुण व ईश्वर क्यों ...
३.तृतीय भाग....मन्त्र ९ से १४ ...मानव कर्तव्य एवं ब्रह्म प्राप्ति विधि ज्ञान-अज्ञान, यम-नियम, मानव के कर्त्तव्य, विद्या-अविद्या, संसार, ब्रह्म-विद्या प्राप्ति, प्रकृति, कार्य-कारण, मृत्यु-अमरत्व ....आत्मा-शरीर…..
४.चतुर्थ भाग ..... मन्त्र १५ से १८....आत्मरूपता, ईश्वर से तादाम्य, ईश्वर प्राप्ति-.सत्य, धर्म, कर्म, ईश्वर-जीव का मिलन, आत्मा-शरीर का अंतिम परिणाम |
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----- प्रथम भाग ------
\ ( मन्त्र १ से ३ तक )
ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १....
-------इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल, स्थावर, जंगम , प्राणी आदि वस्तु है वह.ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है | उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए, क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..
-------यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है | कर्म करने से अन्य जीने का कोई भी उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों में, ममत्व में लिप्त नहीं होता, अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं होते |
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.असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ ...
------ जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकारमय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |
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-------- निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है, अन्य कोई मार्ग नहीं है| इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है, अनुशासित है ..
तू ही तू है ,
सब कहीं है |
सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
सब कुछ ईश्वर के ऊपर छोडो यारो ,
अच्छे कर्मों का फल है अच्छा ही होता |
----------कर्म- संसार का अटूट नियम है ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती, अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु जो लोग अपनी आत्मा ( सेल्फ कोंशियस ) के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
"" मिलता तुझको वही सदा जो तू बोता है |""
--------यही आत्मप्रेरणा से चरित्र निर्माण का मार्ग है |


क्रमश ---- द्वितीय भाग----मन्त्र ४ से ८ तक-----
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