....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
******बात गीतों की****** (डा श्याम गुप्त ).......
-----भाग एक ------
-----------आज गीतों के ऊपर तमाम प्रश्न उठाये जा रहे हैं | गीत मर गए , अब तक प्रचलित सनातन गीत आज के समय के अनुकूल नहीं है, आदि आदि | उत्तर में नवगीत आदि विविध प्रकार की कविता विधाओं को खडा किया जा रहा है | काव्य एक गतिशील विधा है , समयानुसार उसमें प्रगति आना आवश्यक है, चाहे जितनी विधाओं की उत्पत्ति हो परन्तु उससे गीतों की मूल सनातन प्रकृति नहीं बदलती, वे प्रत्येक अवस्था में 'गीत' ही रहते हैं |
------------- ब्रह्म व प्रकृति के द्वैत-प्राकट्य पर अनाहतनाद से उद्भूत ओंकार की आदि ध्वनि से सृजित पुंजीभूत सृष्टि के साथ उत्पन्न स्वर-सप्तक के साथ ही प्रकृति में लयात्मकता युत प्रवाह से गीत का प्रादुर्भाव हुआ होगा |
-----आदि मानव ने जब उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में प्रकृति की लयात्मकता, संगीतमयता युत विविध भावों, बादलों के गर्जन में एक भय-मिश्रित रोमांच, नदियों-झरनों के नाद घोष में, खगवृंदों के कल-कंठों के गायन में जीवन की पुकार को सुना होगा, चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में एक आकर्षण, एक सौंदर्य भावबोध का अनुभव किया होगा, गीत की वाणी तभी से थिरकने लगी होगी।
-----वैदिक ऋषियों का वचन है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।
---------------- स्वर के आविर्भाव के साथ सृष्टि के सर्वाधिक भावुक प्राणी मानव ने मूक इंगितों के स्थान पर शब्दहीन ध्वन्यात्मक इंगितों, अर्थहीन ध्वनियों द्वारा प्रकृति के दृश्यों-रूपों से उत्पन्न भय मिश्रित रोमांच, सुखद आश्चर्यप्रद अनुभूति की मुग्धावस्था एवं उससे उत्पन्न श्रद्धा के स्व-भावों का स्वयं में ही अथवा आपस में सम्प्रेषण करना प्रारम्भ किया होगा |
------शिव के डमरू से उत्पन्न स्वर-ताल व अक्षर एवं माँ सरस्वती की वीणा ध्वनि से उद्भूत वाणी के बैखरी रूप की उत्पत्ति पर उन्मुक्त प्रकृति के विभिन्न स्वर—संगीत, वायु के मर्मर स्वर, नदी की कल कल कल, झरने की झर झर झर, मेघ की घनन घनन घन, तडित की गर्ज़न, पशु पक्षियों के विवध कलरव के अनुकरण द्वारा विभिन्न स्वरों में ताल–लय बद्धता के साथ प्रसन्नता, रोमांच, आश्चर्य, श्रद्धा का प्रदर्शन करने लगा होगा | निश्चय ही यही संगीतमय उत्कंठित स्वर गीत के प्रथम स्वर थे|
------ मानव ने जब सर्वप्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा व गद्यगीत | अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं दीर्घकालीन स्मृत्यांकन हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ |
---------------माँ सरस्वती के कठोर तप स्वरुप ब्रह्मा द्वारा वरदान में प्राप्त पुत्र ‘काव्यपुरुष’ के अवतरण पर मानव मन में लयबद्ध एवं विषयानुरूप गीत का आविर्भाव हुआ जो पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व के विविध भावों, कृतित्वों, कलापों, स्पंदनों के साथ लोकगीतों के रूप में हुआ |
-------इस प्रकार भौरों की गुंजार, कोयल की तान, मयूर के नृत्य, शिशुओं की मुस्कान, किसानों के श्रम, बादलों की गर्जन, दामिनी की चमक, पक्षियों की कलरव आदि प्रकृति के आदिम संगीत-गीत से जीवन में ऊर्जा एवं ताजगी का संचरण प्राप्त करते हुए, प्रकृति के हर क्रिया-व्यापार में स्थित लय से साम्य करते हुए विभिन्न भाव-स्वर लयबद्ध रूप में आविर्भूत हुए है और यह लय ही गीत है |
-------------- गीत, काव्य की सबसे पुरानी विधा है। सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता | गीत--काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है ।
-----गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा। जहां भावुक मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं गीत के मूल में भावना व कल्पना दोनों का ही समत्व होता है |
-----यद्यपि कल्पना अनुरंजनशील वृत्ति की भांति है जिसमें संभाव्य एवं संभावित वस्तु का मानवीय अंकन किया जाता है| कल्पना पूर्ण अनुभूति का स्थान नहीं ले पाती | मनोवेगों के आरोह-अवरोह में उनके आधारों का संयोजन भावना करती है जो कल्पना से अधिक वास्तविक, स्थिर व कोमल वृत्ति है |
----- मन की एकाग्रता के लिए आतंरिक व वाह्य आधार का अवलंबन भावना द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं- कल्पना द्वारा नहीं | प्रेमी व भक्त अपने इष्ट की भावना करता है, कल्पना नहीं |
------------- भारतीय गीतिकाव्य की परम्परा विश्व साहित्य में सबसे पुरातन है | ऋग्वेद के पूर्व भी गीत पूर्ण-परिपक्व व सौन्दर्यमय रहा होगा | वैदिक मन्त्रों में स्वर संबंधी निर्देश मिलने से एवं स्थान स्थान पर पुरा-उक्थों के कथन से यह प्रतीत होता है कि मौखिक गीत-रचना परम्परा वेदों से पूर्व भी अवश्य रही होगी |
----- मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए जाते हैं | वे गीत प्रकृति व ईश्वर के प्रति सुखद आश्चर्य, रोमांच एवं श्रद्धा भाव के गीत ही हैं | ऋषियों ने प्रकृति की सुकुमारिता व सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है जो भावमयता व अर्थग्रहण के साथ मनोहारी कल्पनाएँ हैं | ऋग्वेद ७/७२ में वैदिककालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है ---
“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”
----हे अश्वनी द्वय ! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्य वर्धक कृत्य की दैनिक चर्या ) करते हैं | सूर्य देवता ऊर्धगामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं | यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है |
-----तथा …..
“एषा शुभ्रा न तन्वो विदार्नोहर्वेयस्नातो दृश्ये नो अस्थातु
अथ द्वेषो बाधमाना तमो स्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात |
एषा प्रतीचि दुहिता दिवोन्हन पोषेव प्रदानिणते अणतः
व्युणतन्तो दाशुषे वार्याणि पुनः ज्योतिर्युवति पूर्वः पाक: ||”
----प्राची दिशा में उषा इस प्रकार आकर खड़ी होगई है जैसे सद्यस्नाता हो | वह अपने आंगिक सौन्दर्य से अनभिज्ञ है तथा उस सौन्दर्य के दर्शन हमें कराना चाहती है | संसार के समस्त द्वेष-अहंकार को दूर करती हुई दिवस-पुत्री यह उषा प्रकाश साथ लाई है, नतमस्तक होकर कल्याणी रमणी के सदृश्य पूर्व दिशि-पुत्री उषा मनुष्यों के सम्मुख खडी है | धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुषों को ऐश्वर्य देती है | दिन का प्रकाश इसने पुनः सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया है |
----------------- ऋग्वेद में प्रकृति के अतिरिक्त उर्वशी-पुरुरवा, यम-यमी, इंद्र-सरमा, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-इन्द्राणी के रूप में विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी ह्रदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी के संगीत-गीत की अभिव्यक्ति हुई है |
---- यही सृष्टि के प्राचीनतम गीत हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर परवर्ती काल में समस्त विश्व में काव्य का विकास हुआ, लोकगीतों-गीतों के विविध भाव-रूपों में | यजु, अथर्व एवं साम वेद में इनका पुनः विक्सित रूप प्राप्त होता है | साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा- ऋषि कहता है......
”ओ3म् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये |
नि होता सत्सि बर्हिषि ||” साम 1 ....
---- हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर) आप ही हमारे होता हो, समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो, हमारे ह्रदय रूपी अग्निकुंड ( यज्ञ ) हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो |
-----------क्रमशः-----भाग दो-----
******बात गीतों की****** (डा श्याम गुप्त ).......
-----भाग एक ------
-----------आज गीतों के ऊपर तमाम प्रश्न उठाये जा रहे हैं | गीत मर गए , अब तक प्रचलित सनातन गीत आज के समय के अनुकूल नहीं है, आदि आदि | उत्तर में नवगीत आदि विविध प्रकार की कविता विधाओं को खडा किया जा रहा है | काव्य एक गतिशील विधा है , समयानुसार उसमें प्रगति आना आवश्यक है, चाहे जितनी विधाओं की उत्पत्ति हो परन्तु उससे गीतों की मूल सनातन प्रकृति नहीं बदलती, वे प्रत्येक अवस्था में 'गीत' ही रहते हैं |
------------- ब्रह्म व प्रकृति के द्वैत-प्राकट्य पर अनाहतनाद से उद्भूत ओंकार की आदि ध्वनि से सृजित पुंजीभूत सृष्टि के साथ उत्पन्न स्वर-सप्तक के साथ ही प्रकृति में लयात्मकता युत प्रवाह से गीत का प्रादुर्भाव हुआ होगा |
-----आदि मानव ने जब उन्मुक्त प्रकृति के प्रांगण में प्रकृति की लयात्मकता, संगीतमयता युत विविध भावों, बादलों के गर्जन में एक भय-मिश्रित रोमांच, नदियों-झरनों के नाद घोष में, खगवृंदों के कल-कंठों के गायन में जीवन की पुकार को सुना होगा, चांद-तारों की रोशनी में, फूलों की हंसी में एक आकर्षण, एक सौंदर्य भावबोध का अनुभव किया होगा, गीत की वाणी तभी से थिरकने लगी होगी।
-----वैदिक ऋषियों का वचन है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।
---------------- स्वर के आविर्भाव के साथ सृष्टि के सर्वाधिक भावुक प्राणी मानव ने मूक इंगितों के स्थान पर शब्दहीन ध्वन्यात्मक इंगितों, अर्थहीन ध्वनियों द्वारा प्रकृति के दृश्यों-रूपों से उत्पन्न भय मिश्रित रोमांच, सुखद आश्चर्यप्रद अनुभूति की मुग्धावस्था एवं उससे उत्पन्न श्रद्धा के स्व-भावों का स्वयं में ही अथवा आपस में सम्प्रेषण करना प्रारम्भ किया होगा |
------शिव के डमरू से उत्पन्न स्वर-ताल व अक्षर एवं माँ सरस्वती की वीणा ध्वनि से उद्भूत वाणी के बैखरी रूप की उत्पत्ति पर उन्मुक्त प्रकृति के विभिन्न स्वर—संगीत, वायु के मर्मर स्वर, नदी की कल कल कल, झरने की झर झर झर, मेघ की घनन घनन घन, तडित की गर्ज़न, पशु पक्षियों के विवध कलरव के अनुकरण द्वारा विभिन्न स्वरों में ताल–लय बद्धता के साथ प्रसन्नता, रोमांच, आश्चर्य, श्रद्धा का प्रदर्शन करने लगा होगा | निश्चय ही यही संगीतमय उत्कंठित स्वर गीत के प्रथम स्वर थे|
------ मानव ने जब सर्वप्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा व गद्यगीत | अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं दीर्घकालीन स्मृत्यांकन हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ |
---------------माँ सरस्वती के कठोर तप स्वरुप ब्रह्मा द्वारा वरदान में प्राप्त पुत्र ‘काव्यपुरुष’ के अवतरण पर मानव मन में लयबद्ध एवं विषयानुरूप गीत का आविर्भाव हुआ जो पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व के विविध भावों, कृतित्वों, कलापों, स्पंदनों के साथ लोकगीतों के रूप में हुआ |
-------इस प्रकार भौरों की गुंजार, कोयल की तान, मयूर के नृत्य, शिशुओं की मुस्कान, किसानों के श्रम, बादलों की गर्जन, दामिनी की चमक, पक्षियों की कलरव आदि प्रकृति के आदिम संगीत-गीत से जीवन में ऊर्जा एवं ताजगी का संचरण प्राप्त करते हुए, प्रकृति के हर क्रिया-व्यापार में स्थित लय से साम्य करते हुए विभिन्न भाव-स्वर लयबद्ध रूप में आविर्भूत हुए है और यह लय ही गीत है |
-------------- गीत, काव्य की सबसे पुरानी विधा है। सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता | गीत--काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है ।
-----गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा। जहां भावुक मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं गीत के मूल में भावना व कल्पना दोनों का ही समत्व होता है |
-----यद्यपि कल्पना अनुरंजनशील वृत्ति की भांति है जिसमें संभाव्य एवं संभावित वस्तु का मानवीय अंकन किया जाता है| कल्पना पूर्ण अनुभूति का स्थान नहीं ले पाती | मनोवेगों के आरोह-अवरोह में उनके आधारों का संयोजन भावना करती है जो कल्पना से अधिक वास्तविक, स्थिर व कोमल वृत्ति है |
----- मन की एकाग्रता के लिए आतंरिक व वाह्य आधार का अवलंबन भावना द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं- कल्पना द्वारा नहीं | प्रेमी व भक्त अपने इष्ट की भावना करता है, कल्पना नहीं |
------------- भारतीय गीतिकाव्य की परम्परा विश्व साहित्य में सबसे पुरातन है | ऋग्वेद के पूर्व भी गीत पूर्ण-परिपक्व व सौन्दर्यमय रहा होगा | वैदिक मन्त्रों में स्वर संबंधी निर्देश मिलने से एवं स्थान स्थान पर पुरा-उक्थों के कथन से यह प्रतीत होता है कि मौखिक गीत-रचना परम्परा वेदों से पूर्व भी अवश्य रही होगी |
----- मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए जाते हैं | वे गीत प्रकृति व ईश्वर के प्रति सुखद आश्चर्य, रोमांच एवं श्रद्धा भाव के गीत ही हैं | ऋषियों ने प्रकृति की सुकुमारिता व सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है जो भावमयता व अर्थग्रहण के साथ मनोहारी कल्पनाएँ हैं | ऋग्वेद ७/७२ में वैदिककालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है ---
“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”
----हे अश्वनी द्वय ! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्य वर्धक कृत्य की दैनिक चर्या ) करते हैं | सूर्य देवता ऊर्धगामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं | यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है |
-----तथा …..
“एषा शुभ्रा न तन्वो विदार्नोहर्वेयस्नातो दृश्ये नो अस्थातु
अथ द्वेषो बाधमाना तमो स्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात |
एषा प्रतीचि दुहिता दिवोन्हन पोषेव प्रदानिणते अणतः
व्युणतन्तो दाशुषे वार्याणि पुनः ज्योतिर्युवति पूर्वः पाक: ||”
----प्राची दिशा में उषा इस प्रकार आकर खड़ी होगई है जैसे सद्यस्नाता हो | वह अपने आंगिक सौन्दर्य से अनभिज्ञ है तथा उस सौन्दर्य के दर्शन हमें कराना चाहती है | संसार के समस्त द्वेष-अहंकार को दूर करती हुई दिवस-पुत्री यह उषा प्रकाश साथ लाई है, नतमस्तक होकर कल्याणी रमणी के सदृश्य पूर्व दिशि-पुत्री उषा मनुष्यों के सम्मुख खडी है | धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुषों को ऐश्वर्य देती है | दिन का प्रकाश इसने पुनः सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया है |
----------------- ऋग्वेद में प्रकृति के अतिरिक्त उर्वशी-पुरुरवा, यम-यमी, इंद्र-सरमा, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-इन्द्राणी के रूप में विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी ह्रदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी के संगीत-गीत की अभिव्यक्ति हुई है |
---- यही सृष्टि के प्राचीनतम गीत हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर परवर्ती काल में समस्त विश्व में काव्य का विकास हुआ, लोकगीतों-गीतों के विविध भाव-रूपों में | यजु, अथर्व एवं साम वेद में इनका पुनः विक्सित रूप प्राप्त होता है | साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा- ऋषि कहता है......
”ओ3म् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये |
नि होता सत्सि बर्हिषि ||” साम 1 ....
---- हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर) आप ही हमारे होता हो, समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो, हमारे ह्रदय रूपी अग्निकुंड ( यज्ञ ) हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो |
-----------क्रमशः-----भाग दो-----