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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अयोध्या प्रकरण पर दो विचारों की व्याख्या...डा श्याम गुप्त.

अयोध्या प्रकरण पर दो विचार ---आज यहां हम दो विचारों पर विवेचना करेंगे---

१.नेहरू जी का लाहौर-मस्ज़िद-प्रकरण पर आलेख-"इन्सान जो तजुर्वे से नहीं सीखता"-हि हिन्दुस्तान-- २३/९/१० --. कुस्तुन्तुनिया की सेन्ट सोफ़िया गिरिज़ाघर को सोफ़िया मस्ज़िद बनाए जाने व मुस्तफ़ा कमाल द्वारा पुनः ईसाई जमाने को वापस करने संबन्धी आलेख ---नेहरू जी कहते हैं कि “…बाजेन्टाइन जमाना तुर्कों के आने से पहले का ईसाई जमाना था इसलिये अब आया-सुफ़ीया(मस्ज़िद) एक प्रकार से फ़िर ईसाई जमाने में वापस चली गई, मुस्तफ़ा कमाल के आदेश से ।

--------क्या कहना चाहते हैं नेहरू जी १९३५ में, सोचिये , अयोध्या के लिये राम पुराने हैं या हज़ारों साल बाद आया बाबर ?

२. राम चन्द्र गुहा का आज का आलेख—"रूमी, गान्धी और अयोध्या"---हि हिन्दुस्तान२४/९/१०----गान्धीजी द्वारा पढी गई अन्ग्रेज़ी पुस्तक एफ़ हडलेन्ड डेविस की “द विज़्डम ओफ़ ईस्ट” में किसी एक महान जलालुद्दीन रूमी का पूर्वी विचारक की भांति उनके विचार रखना कि “…उन्हें ईश्वर न सलीब पर, न मन्दिर में न हेरात में न कंधार ,पहाड व गुफ़ा में मिला” तथा पुस्तक को पढने की सिफ़ारिस करना व श्री गुहा का मोटे अक्षरों में कथन “….पत्थर के ढाचों की जरूरत नहीं….”

-----प्रश्न यह है कि

अ–--क्या जलालुद्दीन रूमी पूर्व के विचारक थे , नाम व कथन से तो वे रोम के लगते है, क्या रोम पूर्वी देश है, जो उनके विचार गान्धीजी व गुहा जी को इस समय प्रामाणिक रूप में उद्धरित करने योग्य लगे ? क्या उन्हें जलालुद्दीन से हज़ारों साल पहले पूर्व के महान भारतीय विचार—गीता में “..निहितं गुहायां..” या उससे भी हज़ारों साल पहले “अन्गुष्ठ मात्रः पुरुषोन्तरात्मा, सदा जनानां ह्रदये संनिविष्ठः”—कठोपनिषद २/१७ व “..तं ददर्श गूढम्नुप्र्विष्ठं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणं”—कठ-१/१२… क्यों नहीं ध्यान में आये( रिग्वेद की क्या बात करें) ---हमारी यही तो विडम्बना है कि हम अपने ग्यान को न स्वयं पढते-प्रयोग करते हैं न उद्धरित व सिफ़ारिस करते हैं ताकि जन जन प्रामाणिकता के बारे में आश्वस्त होकर उस पर विश्वास कर सकें। यदि गान्धीजी ने यह किया होता तो आज युवक उसे अपना रहे होते।

ब—गुहा जी के मूल कथन..”…पत्थर के ढांचे की जरूरत नहीं…...” समझकर मानें तो फ़िर क्यों नहीं हिन्दू मुसलमान दोनों ही मानते---जैसा पुरा प्रमाण है होने दें, मानें------और सोचिये अयोध्या के लिये राम पुराने हैं या बाद में बाहर से आया बाबर….????-