....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
उस गुलाबी धूप का...ग़ज़ल----
इक शमा यादों की मन में चाह बन जलती रही,
फिर मुलाकातें भी होंगीं आस इक पलती रही |
उस गुलाबी धूप का...ग़ज़ल----
इक शमा यादों की मन में चाह बन जलती रही,
फिर मुलाकातें भी होंगीं आस इक पलती रही |
उस गुलाबी धूप का क्या वाकया कोई कहे,
जो हमारे आपके थी दरमियाँ छलकी रही |
रूह में छाई हुई इक धुंध वर्फीली उसे,
गुनगुनाया वो पिघलकर गीत बन ढलती रही |
क्या कहें क्या ना हुआ अब उस सुहानी शाम को,
नयन नयनों में ही बातें नेह की चलती रहीं |
नयन नयनों से मुखातिब हुए तो ये क्या हुआ,
मौन की मधुरिम मुखरता रूह में फलती रही |
गुनुगुनाने लग गए कलियाँ बहारें चमन सब,
शोखियाँ अठखेलियाँ तन मन को यूं छलती रहीं |
धूप अपने दरमियां जो उस अजानी शाम थी,
नयन से होठों पे आने से सदा टलती रही |
आ न पायी नयन से ओठों पे वो धुन प्रीति की
श्याम’ इक मीठी व्यथा बन हाथ यूं मलती रही ||
जो हमारे आपके थी दरमियाँ छलकी रही |
रूह में छाई हुई इक धुंध वर्फीली उसे,
गुनगुनाया वो पिघलकर गीत बन ढलती रही |
क्या कहें क्या ना हुआ अब उस सुहानी शाम को,
नयन नयनों में ही बातें नेह की चलती रहीं |
नयन नयनों से मुखातिब हुए तो ये क्या हुआ,
मौन की मधुरिम मुखरता रूह में फलती रही |
गुनुगुनाने लग गए कलियाँ बहारें चमन सब,
शोखियाँ अठखेलियाँ तन मन को यूं छलती रहीं |
धूप अपने दरमियां जो उस अजानी शाम थी,
नयन से होठों पे आने से सदा टलती रही |
आ न पायी नयन से ओठों पे वो धुन प्रीति की
श्याम’ इक मीठी व्यथा बन हाथ यूं मलती रही ||